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संसद ने एससी/एसटी क़ानून ब्लैकमेल के लिए नहीं बनाया: सुप्रीम कोर्ट

भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में एससी/एसटी ऐक्ट के दुरुपयोग पर चिंता जताई है और इसके तहत मामलों में तुरंत गिरफ़्तारी की जगह शुरुआती जांच की बात कही है.

एक आदेश में जस्टिस एके गोयल और यूयू ललित की बेंच ने कहा कि सात दिनों के भीतर शुरुआती जांच ज़रूर पूरी हो जानी चाहिए.

क़ानून के आलोचक इसके दुरुपयोग का आरोप लगाते रहे हैं.

By BBC News हिन्दी
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सुप्रीम कोर्ट
SAJJAD HUSSAIN/AFP/Getty Images
सुप्रीम कोर्ट

भारतीय सुप्रीम कोर्ट ने एक आदेश में एससी/एसटी ऐक्ट के दुरुपयोग पर चिंता जताई है और इसके तहत मामलों में तुरंत गिरफ़्तारी की जगह शुरुआती जांच की बात कही है.

एक आदेश में जस्टिस एके गोयल और यूयू ललित की बेंच ने कहा कि सात दिनों के भीतर शुरुआती जांच ज़रूर पूरी हो जानी चाहिए.

क़ानून के आलोचक इसके दुरुपयोग का आरोप लगाते रहे हैं.

समर्थक कहते हैं कि ये क़ानून दलितों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल होने वाले जातिसूचक शब्दों और हज़ारों सालों से चले आ रहे ज़ुल्म को रोकने में मदद करता है.

आइए जानते हैं सुप्रीम कोर्ट के आदेश की मुख्य बातें.

1. अगर किसी व्यक्ति के ख़िलाफ़ क़ानून के अंतर्गत मामला रिपोर्ट होता है तो अदालत ने अपने आदेश में सात दिनों के भीतर पूरी हो जाने वाली शुरुआती जांच की बात कही.

2. अदालत ने कहा कि चाहे शुरुआती जांच हो, चाहे मामले को दर्ज कर लिया गया हो, अभियुक्त की गिरफ़्तारी ज़रूरी नहीं है.

3. अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी है तो उसकी गिरफ़्तारी के लिए उसे नियुक्त करने वाले अधिकारी की सहमति ज़रूरी होगी.

4. अगर अभियुक्त सरकारी कर्मचारी नहीं है तो गिरफ़्तारी के लिए एसएसपी की सहमति ज़रूरी होगी.

5. एससी/एसटी क़ानून के सेक्शन 18 में अग्रिम ज़मानत की मनाही है. अदालत ने अपने आदेश में अग्रिम ज़मानत की इजाज़त दे दी. अदालत ने कहा कि पहली नज़र में अगर ऐसा लगता है कि कोई मामला नहीं है या जहां न्यायिक समीक्षा के बाद लगता है कि क़ानून के अंतर्गत शिकायत में बदनीयती की भावना है, वहां अग्रिम ज़मानत पर कोई संपूर्ण रोक नहीं है.

6. अदालत ने कहा कि एससी/एसटी क़ानून का ये मतलब नहीं कि जाति व्यवस्था जारी रहे क्योंकि ऐसा होने पर समाज में सभी को साथ लाने में और संवैधानिक मूल्यों पर असर पड़ सकता है. अदालत ने कहा कि संविधान बिना जाति या धर्म के भेदभाव के सभी की बराबरी की बात कहता है.

7. आदेश में अदालत ने कहा कि कानून बनाते वक्त संसद का इरादा क़ानून को ब्लैकमेल या निजी बदले के लिए इस्तेमाल का नहीं था. क़ानून का मक़सद ये नहीं है कि सरकारी कर्मचारियों को काम से रोका जाए. हर मामले में - झूठे और सही दोनो में - अगर अग्रिम ज़मानत को मना कर दिया गया तो निर्दोष लोगों को बचाने वाला कोई नहीं होगा.

8. अदालत ने कहा कि अगर किसी के अधिकारों का हनन हो रहा हो तो वो निष्क्रिय नहीं रह सकती और ये ज़रूरी है कि मूल अधिकारों के हनन और नाइंसाफ़ी को रोकने के लिए नए साधनों और रणनीति का इस्तेमाल हो.

9. आदेश में साल 2015 के एनसीआरबी डेटा का ज़िक्र है जिसके मुताबिक ऐसे 15-16 प्रतिशत मामलों में पुलिस ने जांच के बाद क्लोज़र रिपोर्ट फ़ाइल कर दी. साथ ही अदालत में गए 75 प्रतिशत मामलों को या तो ख़त्म कर दिया गया, या उनमें अभियुक्त बरी हो गए, या फिर उन्हें वापस ले लिया गया. इस केस में एमिकस क्यूरे रहे अमरेंद्र शरण ने बीबीसी को बताया ऐसे मामलों की जांच डीएसपी स्तर के अधिकारी करते हैं "इसलिए हम उम्मीद करते हैं कि ये जांच साफ़ सुथरी होती होगी."

10. आदेश में ज़िक्र है कि जब संसद में क़ानून के अंतर्गत झूठी शिकायतों को लेकर सवाल उठा तो जवाब आया कि अगर एससी/एसटी समाज के लोगों को झूठे मामलों में दंड दिया गया तो ये क़ानून की भावना के ख़िलाफ़ होगा.

सांकेतिक तस्वीर
iStock
सांकेतिक तस्वीर

क्या था मामला

सुप्रीम कोर्ट का ये ताज़ा फ़ैसला डॉक्टर सुभाष काशीनाथ महाजन बनाम महाराष्ट्र राज्य और एएनआर मामले में आया है. मामला महाराष्ट्र का है जहां अनुसूचित जाति के एक व्यक्ति ने अपने वरिष्ठ अधिकारियों के ख़िलाफ़ इस क़ानून के अंतर्गत मामला दर्ज कराया.

गैर-अनुसूचित जाति के इन अधिकारियों ने उस व्यक्ति की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट में उसके खिलाफ़ टिप्पणी की थी. जब मामले की जांच कर रहे पुलिस अधिकारी ने अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई के लिए उनके वरिष्ठ अधिकारी से इजाज़त मांगी तो इजाज़त नहीं दी गई.

इस पर उनके खिलाफ़ भी पुलिस में मामला दर्ज कर दिया गया. बचाव पक्ष का कहना है कि अगर किसी अनुसूचित जाति के व्यक्ति के खिलाफ ईमानदार टिप्पणी करना अपराध हो जाएगा तो इससे काम करना मुश्किल जो जाएगा.

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English summary
Parliament has not made SC / ST statute for blackmail Supreme Court
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