पंडित जसराज- भक्ति और शास्त्रीय गायन के विलक्षण शिखर पुरुष
शास्त्रीय के एक विशद अध्याय का समापन है, वे अपने पीछे गौरवशाली विरासत छोड़ गए हैं.
पंडित जसराज एक विलक्षण गायक थे. भारतीय शास्त्रीय संगीत के संसार में जब अधिकांश गायिकी ध्रुपद, ख्याल और ठुमरी आधारित रहती आई है, ऐसे में अपनी शास्त्रीयता की राह को मेवाती घराने से पूरी तरह सम्बद्ध रखते हुए पण्डित जी ने वैष्णवता का आँगन चुना.
एक ऐसा परिसर, जहाँ भक्ति संगीत की आवाजाही थी, पारम्परिक ख्याल गायन की परम्परा में धार्मिक और आध्यात्मिक बन्दिशों को गायन की रवायत रही है, जिसमें कई दफा मुस्लिम गायकों ने भी देवी-स्तुतियाँ और शिव-आराधना की बन्दिशों को अपनी रागदारी में उतारा.
मगर पण्डित जसराज जी की राह थोड़ी अलग थी, जिसमें एक ऐसा लोक-विन्यास भी ढूँढा जा सकता है, जो कहीं न कहीं मठ-मन्दिरों, हवेलियों और देवताओं की ठाकुरबाड़ी से सृजित होता है.
वे वैष्णव परम्परा की पुष्टिमार्गी शाखा की अप्रतिम आवाज़ थे, जिसने इस भक्ति मत को व्यावहारिक तौर पर संगीत-प्रेमियों के मन में सम्मान से प्रतिष्ठित किया.
मेवाती घराने के अप्रतिम गायक, पिता श्री मोतीराम और माँ कृष्णा बाई, पिता की लिखी बंदिशें मिलती हैं, जिनमें कुछ आपने गायीं भी हैं.
बड़े भाई पंडित मनीराम जी से शास्त्रीय संगीत की तालीम मिली.
गाँव पीली मंदौरी, हिसार (हरियाणा) में 28 जनवरी, 1930 को जन्म हुआ. उस वक़्त यह क्षेत्र पंजाब के अधीन था.
जिस मेवाती घराने से पंडित जी सम्बन्ध रखते हैं, उसकी नींव उस्ताद घग्गे नज़ीर खां ने रखी थी. पंडित जसराज के दादा गुरु, पंडित नत्थूलाल और पंडित चिमनलाल, उस्ताद घग्गे नज़ीर खां के पट्ट शिष्य थे.
ये दोनों उनके पिता मोतीराम जी के नाना शिवकुमार जी की संतान थे. जसराज के पिता मोतीराम जी ने अपने मामा पंडित चिमनलाल जी से संगीत की शिक्षा ली थी.
सन 1946 में जसराज जी ने पंडित डीवी पलुस्कर के साथ तबले पर संगत की थी, ताल की उनकी गहरी समझ हमेशा उनकी गायिकी में रही लेकिन बाद के सालों में उन्हें तबला बजाते शायद ही देखा गया हो.
फ़िल्म अभिनेता पहाड़ी सान्याल, संगीत निर्देशक सुबल दासगुप्ता, गायिका जूथिका रॉय, पंडित जसराज के अनन्य प्रशंसकों में रहे हैं जबकि पंडित जी किशोरावस्था से ही बेगम अख्तर साहिबा की गायिकी के मुरीद थे.
कृष्ण भक्ति साहित्य जसराज जी की गायिकी में पहली पसंद रही है. उन्होंने सूरदास, कृष्णदास, परमानंददास, छीतस्वामी और गोविंद स्वामी की पदावली खूब गाई है.
उन्होंने 'ओम नमो भगवते वासुदेवाय', कृष्णभक्ति की स्तुतियों 'मधुराष्टकं'और 'अच्युचतं केशवम्' को शास्त्रीय ढंग से गाकर भारत के घर-घर में पहुँचाया.
टोरंटो विश्विद्यालय ने पंडित जी के नाम पर स्कॉलरशिप की शुरुआत की है, जिसे भारतीय संगीत की युवा प्रतिभाओं को दिया जाता है.
न्यूयॉर्क में एक संगीत भवन का नाम ' पंडित जसराज ऑडिटोरियम' रखा गया है.
पंडित जी अनेक पुरस्कारों से विभूषित थे जिनमें- पद्मविभूषण, पद्मभूषण, पद्मश्री, कालिदास सम्मान, संगीत नाटक अकादमी रत्न-सदस्यता, कांची कामकोटि का 'अस्थाना विद्वानम,' महाराष्ट्र गौरव पुरस्कार, शांतिनिकेतन की मानद उपाधि ' देसिकोत्तम', उस्ताद हाफ़िज़ अली खां पुरस्कार, पंडित दीनानाथ मंगेशकर सम्मान, डागर घराना सम्मान, आदित्य विक्रम बिड़ला पुरस्कार, पंडित भीमसेन जोशी लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड, सुमित्रा चरतराम लाइफटाइम अचीवमेंट पुरस्कार और उस्ताद बिस्मिल्लाह खान सम्मान विशेष उल्लेखनीय हैं
वे अष्टछाप के कवियों को गाते थे, 'नवधा-भक्ति' में डूबी हुई 'आठों-याम' सेवा के उपासक थे, जिसमें शरणागति की पुकार लगाना उनका प्रिय खेल था.
पण्डित जसराज ने कृष्ण उपासना को शास्त्रीय ढंग से अपने एकाधिकार का क्षेत्र बनाया.
वे रागदारी में भी कठिन रागों, मसलन- गौरी, आसा मांड, अडाना, विलासखानी तोड़ी, अबीरी तोड़ी, हिण्डोल बसन्त आदि को गाते हुए भी पूरी तरह भक्ति के बाने में प्रस्तुत रहते थे.
कृष्णलीला के लगभग सभी प्रचलित विषयों को उन्होंने जतन से गाया.
कभी-कभी उनकी तैयारी देखकर यह अचम्भा होता था कि इतनी विशुद्ध रागदारी और स्वरों के लगाव को पण्डित जी कितनी तन्मयता से भक्ति गायन के सिर-माथे कर दे रहे हैं.
दरअसल, उन्होंने ही भजन के प्रचलित सुगम-संगीत वाले पक्ष को एक दार्शनिक अवधारणा दी.
वे भक्ति सम्मानित ग्रन्थों- 'भक्ति-रसामृतसिन्धु', 'भक्ति रसायन' और 'गोपालतापनीय उपनिषद' को जैसे लोकवाणी में पुनराविष्कृत कर रहे थे
सूरदास का पद 'रानी तेरो चिरजीवौ गोपाल' हो या 'किशोरी तेरी चरणन की रज पाऊँ'- सभी जगह पण्डित जसराज अप्रतिम, अद्भुत, अलौकिक रहे.
उनके शुरुआती संगीत जीवन के बारे में कम लोग जानते हैं कि उन्होंने अपनी संगीत साधना की शुरुआत एक तबला-वादक के रूप में की थी. धीरे-धीरे अपने बड़े भाई मण्डित मनीराम जी से संगीत की बारीकियों को सीखते हुए और उसमें कल्पना के सुघर प्रयोगों द्वारा भावों को विस्तार देने में उन्होंने दक्षता दिखाई.
बाद में उनके बोलतान, मींड़, कण और मधुर ढंग से विकसित होने वाली सरगम ने गायिकी का एक पण्डित जसराज घराना ही बना दिया.
वी शांताराम की फ़िल्म 'लड़की सहयाद्री की' (1966) में संगीतकार वसन्त देसाई के निर्देशन में उन्होंने एक गीत 'वन्दना करो, अर्चना करो, इस धरा महान की' गाया था. जसराज रिश्ते में शांताराम के दामाद थे.
एक मशहूर म्युज़िक कम्पनी के लिए उन्होंने 'बैजू बावरा' बनना पसन्द किया और एक डिस्क जारी हुई, जिसमें पण्डित जसराज ने बैजू बावरा की पदावलियों का गायन किया.
उसी दौर में पण्डित भीमसेन जोशी ने उस सीरीज के लिए तानसेन की बन्दिशों का गायन किया था.
उनके ढेरों रेकाॅर्ड्स, सीडीज और एल्बमों में उनका गायन देखकर यह अन्दाजा लगाया जा सकता है कि उन्होंने भक्ति को सर्वोपरि रखते हुए अपनी कला-साधना के ढेरों वर्षों को एक ऐसी आध्यात्मिक यात्रा में बिताया था, जिससे लगता है कि उन्हें गायिकी से मोक्ष पाने की कामना रही हो.
यह अकारण नहीं है कि उनके आध्यात्मिक गुरु, साणन्द (गुजरात) के महाराजा जयवन्त सिंह जी वाघेला ने उन्हें भक्ति गायन के लिए प्रेरित किया था.
उनकी लिखी ऐसी तमाम बन्दिशें जसराज जी ने गायी हैं, जो दुर्गा स्तुति, राम और कृष्ण महिमा का सुन्दर उदाहरण हैं.
पंडित पलुस्कर, पंडित दिनकर कैंकिणी, पंडित जितेन्द्र अभिषेकी की भक्ति गायन परम्परा की याद दिलाता, पण्डित जसराज का मधुरोपासना गायन हमारी भारतीय शास्त्रीय संगीत की वह धरोहर है, जो हवेली-संगीत, संकीर्तन, नामजप-गायन और भक्ति आधारित उत्सव-गायन की अमूल्य थाती बन चुके हैं.
अपनी उदात्त स्वतंत्र पुकार, तान और दार्शनिक वैचारिकता के साथ पण्डित जसराज ने जिस तरह सरगमों को उत्साह से बरतते हुए शास्त्रीय गायन सम्भव किया है, वह रागदारी संगीत की आने वाली पीढ़ी के लिए टेक्स्ट-बुक की तरह है.
उनके निधन से एक बड़ी परम्परा में रिक्तता तो ज़रूर आई है, मगर मुझे लगता है कि धीरे-धीरे उनकी गायिकी और पुनर्नवा होकर आधुनिक सन्दर्भों में भी जीवित रहने वाली है.
अभी शायद वह समय आयेगा, जब जसराज जी की कीर्तिपताका उनके 'अष्टछाप-गायन' से और भी अधिक पुष्ट होगी, उनका गाया हुआ कुछ भी नहीं भुलाया जा सकता.
पंडित जसराज अपने पीछे एक भरी-पूरी विरासत छोड़ गए हैं. उनके प्रमुख शिष्यों की सूची काफ़ी लंबी और प्रभावशाली है. कुछ प्रमुख नामों में पंडित संजीव अभ्यंकर, तृप्ति मुखर्जी, कला रामनाथ, पंडित रतन मोहन शर्मा, शारंगदेव पंडित, दुर्गा जसराज, शशांक सुब्रमण्यम, सौगात बनर्जी, अरविंद थत्ते, सुमन घोष, अंकिता जोशी, गिरीश वजलवाड, हसमुख चावड़ा, कविता कृष्णमूर्ति, लोकेश आनंद, सुरेश पतकी, विजय साठे हैं.