ऊषा चोमर: कभी सिर पर मैला ढोती थीं, लोग छूना भी पाप समझते थे, अब मिलेगा पद्मश्री सम्मान
नई दिल्ली। गणतंत्र दिवस पर दिए जाने वाले पद्म पुरस्कारों की भारत सरकार ने घोषणा कर दी है। एक बार फिर से समाज की ऐसी हस्तियों को पद्म पुरस्कार दिया गया है जिन्हें बहुत ही कम लोग जानते हैं, लेकिन उन्होंने अपने निस्वार्थ सेवा भाव की वजह से खुद की एक अलग पहचान बनाई है। देश के कुछ चुनिंदा लोग जो सुर्खियों से इतर निरंतर अपने क्षेत्र में बेहतर काम कर रहे हैं, उनकी पहचान करके सरकार ने उन्हें पद्म पुरस्कार देने का फैसला लिया है। इन हस्तियों में मोहम्मद शरीफ, जगदीश लाल आहूजा, सत्यनारायण और उषा चोमर शामिल हैं।
समाज में अलग नजर से देखते थे लोग
राजस्थान के अलवर में रहने वाली ऊषा चोमर मैला ढोने का काम करती हैं। जब उनके नाम का एलान पद्म अवार्ड के लिए किया गया तो वह बहुत खुश हुईं। अपनी पुरानी यादें ताजा करते हुए ऊषा कहती हैं कि उन्हें समाज में तिरस्कार की नजरों से देखा जाता था। लोग मेरे साथ अच्छा व्यवहार नहीं करते थे और यही वजह है कि वह कई बार इस काम को छोड़ना चाहती थीं। लेकिन सुलभ शौचालय के संस्थापक बिंदेश्वर पाठक से जब मैं जुड़ी तो उसके बाद मेरी सोच और जिंदगी पूरी तरह से बदल गई।
पांच देशों की यात्रा कर चुकी, कई बार पीएम से मिलीं
ऊषा बताती हैं कि एक वक्त था जब मैं मैला ढोने के काम से उब चुकी थी। लेकिन इसी काम की वजह से आज मुझे समाज में एक नई पहचान मिली है। आज लोग इस काम को इज्जत की नजर से देखते हैं। लोग ऊषा के काम को प्रेरणा के तौर पर देख ररहे हैं। ऊषा ने बताया कि वह पांच देशों की यात्रा कर चुकी हैं और कई बार प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से भी मिल चुकी हैं। जिस काम को लोग समाज में तुच्छ काम के तौर पर देखते थे और उन्हें छूना भी अपराध समझते थे, आज वही लोग मुझे अपने घर पर बुलाते हैं। शादी समारोह में जाने पर मेरा विशेष स्वागत करते हैं। मैं अब मंदिरों में पूजा पाठ भी कर पाती हूं।
पीएम मोदी का आभार जताया
पद्म पुरस्कार के लिए चुने जाने पर ऊषा ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का आभार जताया है। वह कहती हैं कि महात्मा गांधी के बाद पीएम मोदी ही ऐसे व्यक्ति हैं जिन्होंने हाथ में झाड़ू लिया और इसका असर देशभर के लोगों पर हुआ। ऊषा का विवाह बचपन में ही महज 10 वर्ष की आयु में हो गया था। जब वह ससुराल पहुंची तो उन्हें वहां मैला ढोने के काम में लगा दिया गया। वह अपने मायके में भी यही काम करती थीं। ऊषा बताती हैं कि जब मैं बिदेश्वर पाठक से 2003 में मिली तो मेरी सोच बदलने लगी। वह अलवर में मैला ढोने वाले परिवारों के साथ मिलकर काम करना चाहते थे। लेकिन जब कई महिला समूह उनके साथ काम करने के लिए तैयार नहीं हुई तो किसी तरह से महल चौक में महिलाओं को इकट्ठा किया गया, जिनका नेतृत्व ऊषा ने किया।
बिंदेश्वर पाठक ने बदल दी जिंदगी
बिंदेश्वर पाठक से इस मुलाकात के बाद ऊषा पापड़ और जूट से जुड़ा काम करने लगी और 2010 तक अलवर की सभी मैला ढोने वाली महिलाओं को उन्होंने अपने साथ जोड़ लिया। इस काम से इन लोगों की आमदनी में भी काफी इजाफा हुआ। ऊषा ने बताया कि इस काम से उनका जीवन बदल गया। अब तमाम महिलाएं सम्मान के साथ जीवन जी रही हैं। यह सबकुछ बिंदेश्वर पाठक की वजह से ही हुआ है। अब अलवर में कोई भी महिला मैला नहीं ढोती है। उन्होंने बताया कि जब मुझे पद्मश्री पुरस्कार देने की घोषणा हुई तो मुझे बधाई देने वालों का घर में तांता लग गया। ऊषा बताती हैं कि उनके दो बेटे और एक बेटी है जो ग्रेजुएशन कर रही है और वह इस बात से खुश हैं कि आने वाली उनकी पीढ़ि को मैला ढोने का काम नहीं करना पड़ेगा।