नज़रिया: दहेज क़ानून में सुप्रीम कोर्ट के नए फ़ैसले से महिलाओं पर क्या होगा असर?
सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा फ़ैसले की जो पृष्ठभूमि है उसमें 498-ए के मामले में आरोपितों की गिरफ़्तारी का मुद्दा अहम है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फ़ैसलों के आधार पर इस बात का ज़िक्र करना ज़रूरी समझा है कि गिरफ़्तारी किन-किन हालात में हो सकती है. गिरफ़्तारी के लिए क्या-क्या सावधानी बरती जाए.
इसलिए वह फ़ैसले के साथ यह कहना नहीं भूलती कि जांच करने वाले अधिकारी सावधानी बरतें और सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग फ़ैसलों में इस संदर्भ में कही गई बातों के आधार पर कार्रवाई करें.
दस दिन के अंदर दूसरी बार सुप्रीम कोर्ट ने अपने ही पिछले फ़ैसले पर फिर से ग़ौर किया है. ये दोनों दूरगामी असर वाले फ़ैसले हैं. पहले धारा 377 और अब धारा 498-ए से जुड़े अपने पिछले फ़ैसले पर सुप्रीम कोर्ट ने निर्णय दिया है.
दोनों पहले के फ़ैसले की तुलना में ज़्यादा बेहतर हैं. धारा 377 से जुड़ा फैसला तो ऐतिहासिक ही है. धारा 498-ए का ताज़ा फ़ैसला ऐतिहासिक तो नहीं है, मगर पिछले साल के फ़ैसले से बेहतर है. सुप्रीम कोर्ट ने धारा 498-ए से जुड़े पिछले साल के फ़ैसले में महत्वपूर्ण हस्तक्षेप करने का काम किया है.
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल राजेश शर्मा बनाम उत्तर प्रदेश सरकार मामले में 498-ए पर सुनवाई करते हुए इसके 'दुरुपयोग' पर चिंता ज़ाहिर करते हुए एक अहम फ़ैसला दिया था. उस फ़ैसले में ऐसा बहुत कुछ था जिसका दूरगामी असर होता.
पिछला फ़ैसला यह मानकर दिया गया था कि धारा 498-ए का महिलाएं दुरुपयोग कर रही हैं. वे इसका ग़लत तरीक़े से इस्तेमाल करती हैं. नतीजतन झूठे केस दर्ज किए जाते हैं.
यही नहीं, इन सबकी वजह से इसमें कई बार महिला के बेकसूर ससुरालीजन भी पिस जाते हैं. उनकी गिरफ़्तारी होती है.
इस पसमंज़र में ऐसे 'दुरुपयोग' ख़ासतौर पर गिरफ़्तारी को रोकने के लिए न्यायमूर्ति आदर्श कुमार गोयल और न्यायमूर्ति उदय उमेश ललित ने 27 जुलाई 2017 को अपने फ़ैसले में कुछ निर्देश दिए थे.
परिवार समिति को नहीं पाया गया सही
उन निर्देशों में सबसे ख़ास था परिवार कल्याण समिति बनाने का निर्देश. ख़ास इसलिए क्योंकि यह समिति हर ज़िले में बननी थी. इसे ज़िला विधिक सेवा प्राधिकार को बनाना था. इसमें तीन सदस्यों का प्रावधान था. ये तीन लोग, समाज के अलग-अलग हिस्सों से लिए जाने थे.
पिछले साल के फ़ैसले के मुताबिक़, अगर कोई महिला पुलिस या मजिस्ट्रेट के पास धारा 498-ए के तहत शिकायत करती तो उसकी शिकायत परिवार कल्याण समिति के पास भेज दी जाती. प्रताड़ित महिला की शिकायत की पड़ताल का सबसे पहले इसी समिति को करनी थी. इस बीच पुलिस किसी की गिरफ़्तारी नहीं कर सकती थी.
यही नहीं, समिति की रिपोर्ट के आधार पर ही पुलिस आगे की जांच या कोई और कार्रवाई कर सकती थी. सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ याचिका दायर हुई. उसी याचिका के संदर्भ में मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति दीपक मिश्र, न्यायमूर्ति एएम खानविलकर, न्यायमूर्ति डॉक्टर डीवाई चंद्रचूड़ ने शुक्रवार 14 सितम्बर को फैसला दिया.
35 पेज के इस फ़ैसले की सबसे अहम बात यह है कि सुप्रीम कोर्ट ने माना कि परिवार कल्याण कल्याण समिति के गठन का निर्देश सही नहीं है. यह समिति न्यायिक दायरे से बाहर की चीज़ है. कोई समिति, पुलिस या अदालत जैसा काम कैसे कर सकती है.
सुप्रीम कोर्ट ने माना कि यह समिति आपराधिक प्रक्रिया की संहिता के बाहर है. ऐसी किसी समिति बनाने का निर्देश देना कोर्ट के दायरे में नहीं आता है. दो सदस्यीय खंडपीठ के फ़ैसले के समिति बनाने वाले हिस्से को मुख्य न्यायाधीश के नेतृत्व वाली तीन सदस्यीय खण्डपीठ ने पूरी तरह ख़ारिज कर दिया.
सुप्रीम कोर्ट के मुताबिक़ यह अनुचित है. कोर्ट ने कहा कि धारा 498-ए के दुरुपयोग की जहां तक बात है, उसे रोकने के लिए पहले से ही दंड प्रक्रिया संहिता में कई प्रावधान और कई फ़ैसले हैं. समिति की बात करना या ऐसे सुझाव देना सुप्रीम कोर्ट की नज़र में ठीक नहीं है.
सिर्फ़ निचली अदालत से नहीं ख़त्म होगा केस
पिछले फ़ैसले में एक और बात थी कि अगर किसी तरह का समझौता होता है तो ज़िला और सत्र न्यायाधीश या उनके द्वारा नामित वरिष्ठ न्यायायिक अधिकारी केस को बंद या ख़त्म कर सकता है. तीन सदस्यीय पीठ ने इस निर्देश में सुधार किया.
सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फ़ैसले का हवाला देते हुए कहा कि समझौते की हालत में 498 ए को सिर्फ़ हाईकोर्ट ही ख़त्म कर सकता है. यानी इस मामले में अगर केस ख़त्म करना होगा तो निचली अदालत से यह नहीं होगा.
पिछले साल के फ़ैसले में दो सदस्यीय पीठ ने समिति बनाने सहित आठ निर्देश दिए थे. मौजूदा फ़ैसले को देखने से लगता है कि बाकि किसी न किसी रूप में मौजूद रहेंगे. जैसे- विवादास्पद दहेज का पाया जाना ज़मानत की अर्ज़ी खारिज होने की वजह नहीं बन सकता, विदेश में रहने वालों का पासपोर्ट आमतौर पर ज़ब्त नहीं होगा या उसके ख़िलाफ़ रेड कॉर्नर नोटिस जारी नहीं होगा.
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले निर्देश को ज़्यादा तार्किक बनाते हए यह भी कहा है कि वैवाहिक विवाद से जुड़े सभी मामलों की इकट्ठे सुनवाई या बाहर रहने वालों के लिए पेशी पर आने से छूट या वीडियो कॉन्फ्रेंस के ज़रिए पेशी की इजाज़त के लिए पक्षकार उचित धाराओं में आवेदन कर सकते हैं.
सुप्रीम कोर्ट के मौजूदा फ़ैसले की जो पृष्ठभूमि है उसमें 498-ए के मामले में आरोपितों की गिरफ़्तारी का मुद्दा अहम है. इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने अपने पिछले फ़ैसलों के आधार पर इस बात का ज़िक्र करना ज़रूरी समझा है कि गिरफ़्तारी किन-किन हालात में हो सकती है. गिरफ़्तारी के लिए क्या-क्या सावधानी बरती जाए.
इसलिए वह फ़ैसले के साथ यह कहना नहीं भूलती कि जांच करने वाले अधिकारी सावधानी बरतें और सुप्रीम कोर्ट के अलग-अलग फ़ैसलों में इस संदर्भ में कही गई बातों के आधार पर कार्रवाई करें.
यही नहीं, सुप्रीम कोर्ट ने इसी संदर्भ में सभी राज्यों के पुलिस महानिदेशक को निर्देश दिया है कि वे धारा 498-ए के मामलों की जांच करने वाले अफ़सरों की ज़बरदस्त ट्रेनिंग कराएं. यह ट्रेनिंग ख़ासतौर पर गिरफ़्तारी से जुड़ी सुप्रीम कोर्ट द्वारा तय सिद्धांतों की हो.
औरतों के लिए कोर्ट ने क्या कहा
इस पूरे फ़ैसले में 498-ए के तहत गिरफ़्तारी की छाया हावी रही है. इसमें 498-ए के तहत इंसाफ़ की गुहार लगाने वालियों के बारे में बहुत चर्चा नहीं है. निर्देश तो नहीं ही है. वे अपनी छवि इसमें कैसे देखती हैं, यह तो आने वाला वक़्त बेहतर बताएगा. अभी इस फ़ैसले की कई परतें और खुलेंगी.
498-ए के तहत होने वाले अपराध ग़ैर-बराबरी वाले मर्दाना समाज की देन हैं. सुप्रीम कोर्ट ने उसे सिर्फ़ क़ानून के तकनीकी नुक्ते से देखने की कोशिश की है.
आमतौर पर धारा 498-ए के तहत दायर मामलों के बारे में यह छवि बना दी गई है कि सभी ग़लत/झूठ हैं. यह फ़ैसला भी उस छवि या कलंक को खत्म करने का काम नहीं करता है.
धारा 498-ए के तहत अपनी तकलीफ़ दायर करने वालियों का मसला महज़ गिरफ़्तारी या न गिरफ़्तारी का नहीं है. उनके हिस्से घाव ही घाव है. वैसा घाव जिसके महज़ छोटे से अंश को कभी पत्रकार और कवि रघुवीर सहाय ने इन चंद लाइनों में ज़ाहिर किया था-
एक रंग होता है नीला
और एक वह जो तेरी देह पर नीला होता है
इसी तरह लाल भी लाल नहीं है
बल्कि शरीर के रंग पर एक रंग
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