नज़रिया: पटेल के सम्मान पर विपक्ष की छटपटाहट का कारण क्या है?
मोदी ने इतिहास में दफ़न एक ऐसी शख़्सियत को विश्व के सांस्कृतिक और सभ्यतायी पृष्ठ पर अंकित कर दिया है, जिसने राष्ट्र के समक्ष व्यक्तिगत स्वार्थ को तिनका भर भी महत्व नहीं दिया और स्वयं से कम वांछित और अल्प योग्य व्यक्ति के नेतृत्व में कार्य करना स्वीकार किया गया.
संभवत: गांधीजी इस बात को जानते रहे होंगे कि पटेल राष्ट्र की अखंडता के लिये स्वार्थ त्याग देंगे जबकि नेहरू अपने स्वार्थ के लिए राष्ट्र को खंडित कर देंगे.
जिस प्रकार कम्युनिस्टों ने त्रिपुरा में स्टालिन की मूर्ति गिर जाने पर कोलाहल मचाया था, उसी तरह आज कांग्रेस और उसके साथी पटेल की भव्य प्रतिमा के लोकार्पण पर शोर मचा रहे हैं.
त्रिपुरा में कथित 'लाल आतंक' के निर्माता को ध्वस्त किया गया था जबकि गुजरात में नर्मदा किनारे हमारे राष्ट्र के निर्माता को इस धरती की कोख में बोया गया. इन दोनों घटनाओं का विरोध और फिर उसका छद्म विश्लेषण वर्तमान राजनीति की बौद्धिक निम्नता को दर्शाता है.
मोदी का विरोध करते-करते कब ये लोग देश का विरोध करने लगे, संभवत: इसका भान इन्हें भी नहीं है. वामपंथी और नेहरूवादी इतिहासकारों द्वारा इतिहास पर चढ़ाए गए असत्य और अर्द्धसत्य के आवरण को वर्तमान में मोदी सरकार द्वारा परत दर परत उतारा जा रहा है. ऐसे में कांग्रेस की असहजता स्वभाविक है, क्योंकि ज्यों-ज्यों परतें उतरेंगी, कांग्रेस हाशिए पर जाती जाएगी.
अपनी विरासत की सम्पन्नता के वशीभूत नेहरू स्वयं को राष्ट्र के स्वाभाविक उत्तराधिकारी समझते थे. उनकी नज़रों में सरदार द्वारा अपने पुरुषार्थ से अर्जित दावेदारी का कोई स्थान नहीं था.
पार्टी के अंतर्गत देश की एकता को अक्षुण रखने के लिए सरदार ने पंद्रह राज्य/प्रांतीय कांग्रेस कमिटी द्वारा न चुने हुए नेहरू के लिये पार्टी के अध्यक्ष पद की दावेदारी 1946 में छोड़ दी थी.
संघ और सरदार के संबंध
संघ और सरदार के संबंधों को लेकर सवाल खड़ा किया जाता है परन्तु सत्य इससे भिन्न है. पटेल ने सलाह के रूप में एक-दो बातें कही थीं परन्तु इन्हीं बातों को संबंधों का आधार मान लेना अनुचित है. संघ के प्रति न सिर्फ़ वह उदार मन रखते थे, इसकी देशभक्ति, प्रतिबद्धता और अनुशासन के प्रशंसक भी थे.
तभी तो संघ पर प्रतिबंध लगाने का उन्होंने विरोध किया था और कश्मीर में महाराजा को मनाने के लिये संघ के सरसंघचालक गोलवलकर (गुरुजी) को चार्टड प्लेन में भेजा था. यहां तक कि संघ पर प्रतिबंध जब अवास्तविक साबित हुआ तब कांग्रेस कार्य समिति में प्रस्ताव पारित कर स्वयंसेवकों को कांग्रेस ने आमंत्रित करने की पहल जुलाई 1949 में की.
संघ और पटेल के राष्ट्रवाद दर्शन में जितनी अधिक समानता थी, उतना ही अधिक अंतर पटेल और नेहरू के दृष्टिकोणों में था. पटेल का राजनीति में वर्तमान और आने वाली पीढ़ियों के लिए जो संदेश है, वह नेहरू एवं उनके वारिसोंकी राजनीति में शामिल नहीं है.
पटेल ने वंशवाद, व्यक्तिवाद और छवि पर आधारित राजनीति को अस्वीकार किया था. संविधान सभा की बहस नेहरू एवं पटेल के दृष्टिकोणों में अंतर को रेखांकित करती है. पटेल ने धर्म के आधार पर आरक्षण को समाप्त करने में निर्णायक भूमिका निभाई थी और वह अल्पसंख्यक राजनीति के घोर विरोधी थे. इस प्रश्न पर अजमेर के दंगों पर नेहरू और पटेल का टकराव उल्लेखनीय है.
अजमेर में तब शंकरी प्रसाद चीफ़ कमिश्नर थे. नेहरू ने प्रसाद एवं पटेल को लांघते हुए अपने निजी सचिव एच.वी.आर. आयंगर को अजमेर दंगों में मुसलमानों का हाल जानने के लिए भेजा. नेहरू के इन तानाशाही तरीक़ों से पटेल को घोर असहमति थी जिसे पटेल ने गांधी जी को पत्राचार के माध्यम से व्यक्त भी किया था. हैदराबाद के विलय के मुद्दे पर नेहरू पुलिस हस्तक्षेप के विरोधी थे पर पटेल ने परवाह नहीं की.
पटेल की गोलवलकर से नज़दीकी
पटेल का राष्ट्रवाद के प्रति यह दृष्टिकोण उन्हें गोलवलकर के क़रीब ले आता है. वास्तव में कांग्रेस की नेहरूवादी संस्कृति पटेलवादी संस्कृति से टकराती है. अतः कांग्रेस की असहजता स्वभाविक है. नरेंद्र मोदी ने पटेल को सम्मान देकर भारत के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद और सार्थक इतिहास के नए युग का अनावरण किया है. साथ ही कांग्रेस को आनेवाली पीढ़ी को इस बात के लिए जवाब देना होगा कि क्यों सत्तर सालों तक पटेल को नेहरू से बौना दिखाया गया.
वामपंथी तो पटेल को सेकुलर नेता मानते ही नहीं थे. कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ़ इंडिया के तत्कालीन महासचिव पी. सुन्दरय्या ने तब पटेल को गांधी की हत्या की साज़िश का हिस्सा तक बता दिया था. राष्ट्रपुरुषों को जाति, क्षेत्र और भाषा के आधार पर बांटना उनका ही नहीं बल्कि स्वतंत्रता आन्दोलन की विरासत का भी अपमान है.
अतः पटेल का विरोध तरह-तरह के बहानों से हो रहा है. कभी ज़मीन अधिग्रहण तो कभी पटेल और संघ के बीच के संबंधों को लेकर. लेकिन उन लोगों को यह बताना पड़ेगा कि इसी मोदी ने अपने मुख्यमंत्री काल में क्रान्तिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा को ऐसा ही सम्मान दिया था.
वर्मा लंदन में रहते थे, वे क्रान्तिकारी थे और सावरकर के प्रेरणा स्रोत भी. वह 'इंडियन सोशियोलॉजिस्ट' के संपादक भी थे. उनकी मृत्यु 1930 में हुई थी. उनकी वसीयत के आधार पर 2003 में मोदी जी ने उनके पार्थिव अवशेषों को लंदन से भारत लाकर प्रवाहित किया था.
कहा जाता है कि महापुरुषों की प्रतिमा उनपर फेंके गए पत्थरों से बनती है. कांग्रेस द्वारा परिवारवाद के तहत ऐसे हर महान व्यक्तियों को कमतर बताया गया है. भारत की आज़ादी से पहले और उसके बाद सभी उपलब्धियों का श्रेय नेहरू गांधी परिवारवाद के सुपुर्द कर दिया.
मोदी ने इतिहास में दफ़न एक ऐसी शख़्सियत को विश्व के सांस्कृतिक और सभ्यतायी पृष्ठ पर अंकित कर दिया है, जिसने राष्ट्र के समक्ष व्यक्तिगत स्वार्थ को तिनका भर भी महत्व नहीं दिया और स्वयं से कम वांछित और अल्प योग्य व्यक्ति के नेतृत्व में कार्य करना स्वीकार किया गया.
संभवत: गांधीजी इस बात को जानते रहे होंगे कि पटेल राष्ट्र की अखंडता के लिये स्वार्थ त्याग देंगे जबकि नेहरू अपने स्वार्थ के लिए राष्ट्र को खंडित कर देंगे. इसीलिए उन्होंने कुंती की तरह अपने देश को बचाने के लिए कर्ण की तरह पटेल से त्याग मांगा था.
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