नज़रिया: मोदी सरकार और विपक्ष दोनों की परीक्षा है अविश्वास प्रस्ताव
शुक्रवार का दिन भारतीय संसद में बेहद गहमागहमी वाला और अहम होने वाला है. केंद्र की मोदी सरकार के ख़िलाफ़ विपक्षी दलों की ओर से लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर आज बहस होगी.
दिलचस्प बात यह है कि तीन महीने पहले सरकार ने इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया था. फिर अचानक वो इसके लिए तैयार क्यों और कैसे हो गई?
शुक्रवार का दिन भारतीय संसद में बेहद गहमागहमी वाला और अहम होने वाला है. केंद्र की मोदी सरकार के ख़िलाफ़ विपक्षी दलों की ओर से लाए गए अविश्वास प्रस्ताव पर आज बहस होगी.
दिलचस्प बात यह है कि तीन महीने पहले सरकार ने इस प्रस्ताव को ख़ारिज कर दिया था. फिर अचानक वो इसके लिए तैयार क्यों और कैसे हो गई?
वहीं, एक दिन पहले यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी ने कहा था कि उनके पास पर्याप्त संख्याबल है.
उपचुनाव हारने के बावजूद लोकसभा में बीजेपी के पास बहुमत है. उनके पास कुछ सहयोगी भी हैं.
गणित के हिसाब से देखें तो संसद में सरकार का संख्याबल काफ़ी ठीक ठाक है. मुझे नहीं लगता कि अविश्वास प्रस्ताव से उन्हें कोई ख़तरा है. उनका दावा है कि दूसरी पार्टियां भी उनके साथ हैं. अन्नाद्रमुक ने भी समर्थन का एलान कर दिया है.
ऐसा नहीं है कि इस अविश्वास प्रस्ताव का सरकार पर कोई असर नहीं पड़ेगा. कहीं न कहीं यह केंद्र सरकार के लिए एक टेस्ट तो है ही.
बीजेपी को सत्ता में आए चार साल से ज़्यादा ही हो चुके हैं और प्रधानमंत्री मोदी पहली बार अविश्वास प्रस्ताव का सामना कर रहे हैं. मौजूदा वक़्त में तमाम ऐसे मुद्दे हैं जो सरकार के पक्ष में नहीं हैं. फिर चाहे वो लचर आर्थिक नीतियों का मुद्दा हो या शिक्षा व्यवस्था या एक ख़ास तबके के साथ होने वाली 'मॉब लिंचिंग' का.
अहम मुद्दों पर ख़ामोशी
विदेश नीति में सरकार को कुछ सफलता ज़रूर मिली है लेकिन असफलताएं भी कम नहीं हैं. भीड़ के हाथों की जाने वाली हत्याओं से समाज में तनाव है और सरकार इस पर मुंह नहीं खोल रही है. एक तरफ़ सरकार दावा करती है कि वो ग़रीबों के लिए काम कर रही है और दूसरी तरफ़ शिक्षा का तेज़ी से निजीकरण हो रहा है.
हमें देखना होगा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी इन सवालों का किस तरह जवाब देते हैं. उनके जवाबों में कितना तथ्य होगा और कितनी हवाई बातें, इन पर भी ध्यान देना होगा.
यानी, सीधे शब्दों मे कहें तो संख्याबल भले सरकार के पास है लेकिन संसद में महौल उसके ख़िलाफ़ जा सकता है.
अविश्वास प्रस्ताव: कौन फ़ायदे में, किसका नुक़सान
ऐसा तो नहीं है कि विपक्ष रोज अविश्वास प्रस्ताव लाता है. अच्छी बात तो यह है कि ये सब सत्र की शुरुआत में ही हो रहा है. एक दिन के बाद अगले हफ़्ते से काम फिर शुरू हो सकता है. यह एक मौक़ा भी है कि सरकार और विपक्ष तीन तलाक़ जैसे तमाम अहम विधेयकों पर खुलकर चर्चा करें और अपना नज़रिया सामने रखें.
राजनीतिक दल संसद में चर्चा में बाधा डालते हैं. बीजेपी के ही सहयोगी दल कई बार बातचीत भंग करते हैं. संसद में होने वाली चर्चाएं दिन पर दिन छोटी होती जा रही हैं.
विपक्ष को क्या होगा हासिल
वैसे तो विपक्ष की एकजुटता का नेतृत्व कांग्रेस को करना चाहिए लेकिन वहां कोई ऐसा नेता नज़र नहीं आ रहा है जो मज़बूती से सबकी बात रख सके.'
तेलुगू देशम पार्टी ज़रूर अगुवाई करती दिख रही है. इसके अलावा बीजू जनता दल भी न तो कांग्रेस के साथ है और न बीजेपी के साथ. अब देखना यह होगा कि कांग्रेस बहुजन समाज पार्टी, समाजवादी पार्टी, तृणमूल कांग्रेस और वामदलों को अपने साथ ले पाती है या अकेले ही संघर्ष करती है.
यह अविश्वास प्रस्ताव 2019 के चुनाव से पहले विपक्ष के लिए भी उतनी ही बड़ी परीक्षा है, ख़ासकर कांग्रेस के लिए तो यह और भी बड़ी परीक्षा है.
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(बीबीसी संवाददाता दिलनवाज़ पाशा से बातचीत पर आधारित)
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