नज़रिया: डगमगाते जातीय समीकरणों के बीच संभलने की कोशिश में बीजेपी
गुजरात विधानसभा चुनावों में जातीय समीकरण अहम रहे हैं. इस बार बीजेपी इन्हीं से जूझती नज़र आ रही है.
1995 में पूर्ण बहुमत पाने के बाद से गुजरात चुनाव में पाटीदार या पटेल समुदाय के 15 फ़ीसदी मतदाता बीजेपी की जीत के लिए अहम कड़ी रहे हैं.
लेकिन इस बार माना जा रहा है कि पाटीदार बीजेपी का विरोध कर रहे हैं. गुजारत में बीजेपी की चुनावी गणित पर वरिष्ठ पत्रकार राधिका रामासेशन का नज़रिया यहां पढ़िए:
ऐसा नहीं है कि बीजेपी ने पाटीदारों के लिए कुछ ग़लत किया है और कांग्रेस ने कुछ ज़्यादा बढ़िया कर दिया है.
कांग्रेस के प्रति इस समुदाय का सहज-विरोध 1980 के दशक में शुरू हुआ, जब तत्कालीन मुख्यमंत्री माधव सिंह सोलंकी ने क्षत्रिय, हरिजन, आदिवासी और मुस्लिमों को मिलाकर एक मज़बूत सामाजिक गठजोड़ बनाया. इस गठजोड़ को इतिहास खाम के नाम से जानता है.
इंदिरा गांधी के आशीर्वाद प्राप्त इस गठजोड़ से पटेलों को दूर रखा गया.
जिस तरह से उत्तर प्रदेश में जाट, राजस्थान में मीणा और कर्नाटक में लिंगायत राजनीतिक रूप से अहम रहे हैं वैसी ही स्थिति गुजरात में पटेलों की है. पटेल कांग्रेस पार्टी की भीतर और बाहर दोनों विरोध करते रहे हैं.
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हालांकि ऐसा नहीं है कि कांग्रेस में बहुत सारे पटेल थे, क्योंकि यह पार्टी कभी भी उनकी पहली पसंद नहीं थी, लेकिन जो पार्टी में थे, वो खाम के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन में शामिल हुए.
इनमे से दो, वल्लभाई पटेल और पोपटभाई सनातु पुलिस फायरिंग में मारे गए, लेकिन कांग्रेस सरकार ने पुलिस के ख़िलाफ़ कोई कार्रवाई नहीं की.
उसके बाद बीजेपी ने मुख्यमंत्री के रूप में केशुभाई पटेल को चुना, इसलिए पटेल उसके कट्टर समर्थक बन गए. वो तब भी बीजेपी के वफ़ादार बने रहे, जब मुख्यमंत्री के पद पर पहले सुरेश मेहता और फ़िर ओबीसी से संबंध रखने वाले नरेंद्र मोदी को लाया गया.
बीजेपी से क्यों छिटके पाटीदार?
मोदी ने अपनी जाति की पहचान को उजागर किया, यह जानते हुए भी कि अपनी जाति का खुलकर हवाला देने का मतलब है पटेलों से दुश्मनी मोल लेना.
हालांकि 2012 के विधानसभा चुनाव के समय से बीजेपी ने अपना सामाजिक आधार बढ़ाने की मंशा से अन्य पिछड़ी जातियों को साधने का काम किया.
गुजरात के ओबीसी अपनी निष्ठा प्रधानमंत्री मोदी के प्रति दिखाएंगे, शायद इसी डर ने पटेलों को शिक्षा और रोजगार के लिए युवा हार्दिक पटेल के नेतृत्व में आरक्षण की मांग के लिए प्रेरित किया, जो ख़ुद चुनाव नहीं लड़ सकते क्योंकि अभी वो सिर्फ़ 23 साल के हैं.
लेकिन हार्दिक ने पटेलों के एक बड़े तबके, ख़ासकर युवाओं की भावना को जगाया है. इस वजह से ये युवा खुलकर बीजेपी को छोड़कर हार्दिक के समर्थन की बात कर रहे हैं. उस शर्त पर भी, अगर हार्दिक कांग्रेस के साथ जाते हैं.
हार्दिक का प्रभाव कितना है?
यह अतिशयोक्ति नहीं होगी कि इस साल गुजरात चुनाव में हार्दिक पटेल एक महत्वपूर्ण फ़ैक्टर हैं. उनके साथ दो युवा कल्पेश ठाकोर और जिग्नेश मेवाणी भी हैं.
लेकिन एक तिकड़ी के रूप में इन्हें शायद ही देखा जाता है, क्योंकि इनके बीच पारस्परिक जातिगत विरोधाभास उन्हें एक सामाजिक धुरी पर नहीं खड़ा कर पाता है.
अल्पेश पिछड़ी जाति से हैं तो मेवाणी दलित हैं. मगर पटेल इन दोनों जातियों से दूरी बनाए रखना चाहते हैं.
इस वजह से कांग्रेस के ठाकोर नेताओ को नुक़सान पहुंचा है. सौराष्ट्र में यह हिचक साफ़ देखी जा सकती है. पटेल कांग्रेस को दिल से स्वीकार नहीं कर पाए हैं और गुजरात सरकार द्वारा उनके समुदाय के साथ 'अन्याय' किए जाने के बावजूद वोटिंग वाले दिन वे बीजेपी का समर्थन कर सकते हैं. कांग्रेस के स्थानीय प्रतिनिधियों के आकलन में कुछ सच्चाई हो सकती है.
सूरत दक्षिणी गुजरात का राजनीतिक और व्यावसायिक केंद्र है. यहां वस्त्र और हीरा व्यापार से जुड़े पटेलों में भारी नाराज़गी देखने को मिलती है. वे वैसे तो सौराष्ट्र के हैं मगर दशकों से सूरत में रह रहे हैं.
2016 में अहमदाबाद में पटेलों के ख़िलाफ़ हुई पुलिस की कार्रवाई में जब 13 प्रदर्शनकारी मारे गए थे, नाराज़गी इतनी थी कि कुछ दिन पहले तक पटेलों की हाउज़िंग सोसाइटी में बीजेपी के पटेल विधायकों को घुसने नहीं दिया जा रहा था.
'...फिर भी दिल बीजेपी के साथ'
दक्षिणी गुजरात के पटेलों के बीच चुनाव में 'बीजेपी को हर कीमत पर सबक सिखाने' की भावना पार्टी के लिए परेशानी का सबब है.
समुदाय के चुनाव को लेकर पैदा हुए असमंजस में फंसे एक युवा पटेल जूलर से मैंने बात की. उसने स्वीकार किया अब भी उसका 'दिल' बीजेपी के साथ है. अगर वह अभी कांग्रेस को वोट देता भी है तो 2019 के लोकसभा चुनाव में दोबारा बीजेपी और नरेंद्र मोदी को वोट देगा.
दरअसल सोलंकी युग, जाति और सांप्रदायिक दंगों की यादें ताज़ा करना बीजेपी सोची-समझी रणनीति थी. ये एक व्यापारिक राज्य है और यहां निवेश और मुनाफ़े को लेकर बहुत कुछ दांव पर है.
सामाजिक अशांति से व्यापारी वर्ग का नाराज़ होना तय था, जिसका मानना है कि व्यवस्था और सादगी उनके कारोबार और जीवन के लिए बहुत ज़रूरी है.
दूसरी तरफ़, किसान, जिनमें पटेल भी शामिल हैं, पहले बाढ़ के कारण खेती को नुक़सान पहुंचने, सरकार द्वारा बीमे की रक़म चुकाने में नाकाम रहने, नक़दी फसलों का सही दाम न मिलने और फिर जीएसटी के कारण बुरी तरह प्रभावित हुए हैं.
बीजेपी अपने चुनावी घोषणापत्र में राहत का वादा करके किसानों के बीच पैदा हुए "अविश्वास" और "नाराज़गी" को दूर करने की कोशिश करेगी. कांग्रेस ने पहले ही कह दिया है कि वो किसानों के कर्ज़ माफ़ कर देगी.
गांधीनगर पहुंचने के लिए लड़ी जा रही इस लड़ाई में गांवों में भी उतनी ही कड़ी टक्कर है, जितनी क़स्बों और शहरों में है. और बीजेपी इस बात को जानती है.
(राधिका रामासेशन से बीबीसी की बातचीत पर आधारित.)