कांग्रेस भले बर्बाद हो जाए लेकिन इसे संभालेंगे सिर्फ सोनिया और राहुल ही!
Sonia Gandhi- Rahul Gandhi: अगर राहुल गांधी फिर कांग्रेस का पूर्णकालिक अध्यक्ष बनते हैं तो क्या पार्टी का कायाकल्प हो जाएगा ? कांग्रेस के जी-23 ने जिन सवालों को अगस्त 2020 में उठाया था क्या उनके जवाब मिल जाएंगे ? क्या कांग्रेस में गुलाम नबी आजाद, कपिल सिब्बल, आनंद शर्मा, मनीष तिवारी, राज बब्बर, पृथ्वीराज चौहान जैसे 23 नेताओं के असंतोष का कोई मतलब है ? कांग्रेस में बदलाव का मतलब क्या यही है कि सोनिया गांधी की जगह राहुल आ जाएं ? कांग्रेस का अध्यक्ष कोई बन जाए, इससे क्या फर्क पड़ता है? जब सोनिया-राहुल की इच्छा के खिलाफ कोई फैसला मुमकिन ही नहीं। तो फिर कांग्रेस का नया अवतार होगा कैसे ? राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने का सपना देखने वाली कांग्रेस 2014 और 2019 का लोकसभा चुनाव हार चुकी है। इसके बावजूद कांग्रेस उन्हीं के नाम पर अटकी पड़ी है। यूपीए के सहयोगी दल अब सोनिया-राहुल के नाम से आगे बढ़ना चाहते हैं। इस संबंध में राजद के वरिष्ठ नेता शिवानंद तिवारी की टिपण्णी बहुत महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा है, सोनिया गांधी पुत्र मोहत्याग कर कांग्रेस और लोकतंत्र को बचाएं। लेकिन सवाल ये है कि अगर नेहरू-गांधी परिवार से बाहर का कोई व्यक्ति कांग्रेस अध्यक्ष बन भी गया तो क्या वह इज्जत और आजादी से काम कर पाएगा ? सीताराम केसरी और नरसिंह राव के साथ सोनिया समर्थकों ने जो बदसलूकी की थी, क्या उसे कोई भूल पाएगा?

क्या सिर्फ सोनिया-राहुल ही संभाल सकते हैं कांग्रेस को ?
राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, सोनिया गांधी और राहुल गांधी के नजदीक कुछ नेताओं का एक मजबूत घेरा बना हुआ है। इसने यह स्थापित कर रखा है कि पार्टी सिर्फ नेहरू-गांधी खानदान के लोग ही संभाल सकते हैं। कांग्रेस के अधिकतर नेताओं ने एक अकाट्य सिद्दांत के रूप में इसे मान भी लिया है। इंदिरा गांधी गहरी सूझबूझ वाली नेता थीं। उनके समय तक तो ये बात सच साबित हुई। लेकिन राजीव गांधी, सोनिया गांधी और राहुल गांधी इस अवधारणा पर सटीक नहीं बैठते। ये कभी इंदिरा गांधी की राजनीतिक योग्यता की बराबरी नहीं कर सके। इन्हें मौके तो मिले लेकिन पार्टी की आकांक्षा पर खरे नहीं उतरे। केवल इंदिरा गांधी की विरासत के नाम पर ये कांग्रेस के लिए अपरिहार्य बने हुए हैं। राजनीतिक पंडितों का मानना है कि कांग्रेस की मूल समस्या इस अवधारणा में ही छिपी है। कांग्रेस बर्बाद हो रही है फिर भी वह कुछ नया नहीं सोच पाती। अगर किसी नेता ने कुछ नया करने की कोशिश की तो उसे बदले में सिर्फ अपमान ही मिला।

1991 में रिटायर होने की सोच रहे थे नरसिम्हा राव
कांग्रेस ने मजबूरी में नरसिम्हा राव को प्रधानमंत्री बनाया था। विनय सीतापति की किताब 'हाफ लायन : हाऊ पी वी नरसिम्हा राव ट्रांसफॉर्म इंडिया’ और पत्रकार संजय बारू की किताब- 1991 हाऊ पीवी नरसिम्हा राव मेड हिस्ट्री में जो तथ्य लिखे गये हैं उसके आधार पर कहानी कुछ यूं बनती है। 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी ने विरासत में सत्ता और पार्टी की बागडोर संभाली थी। 1989 के लोकसभा चुनाव में राजीव गांधी की हार हो गयी। उस समय नरसिम्हा राव की उम्र करीब 70 साल हो चुकी थी। वे अपने राजनीतिक जीवन के अंतिम पड़ाव पर थे। 1990 में उन्होंने रिटायरमेंट प्लान कर लिया था। 1991 में हैदराबाद लौटने की तैयारी में थे। इस बीच 1991 के लोकसभा चुनाव प्रचार के दौरान राजीव गांधी की हत्या कर दी गयी। चूंकि नरसिम्हा राव सक्रिय राजनीति से अवकाश लेकर घर लौटने की तैयारी में थे इसलिए उन्होंने लोकसभा का चुनाव भी नहीं लड़ा था।

कांग्रेस को 232 सीटें मिलीं तो आया यू टर्न
राजीव गांधी की हत्या के बाद दो चरण के और चुनाव हुए। 18 जून को नतीजे घोषित हुए तो कांग्रेस ने 521 में से 232 सीटें जीती। कांग्रेस बहुमत से दूर रह गयी लेकिन वह सबसे बड़ी पार्टी बन कर उभरी। ऐसे में सवाल उठा कि अगर कांग्रेस संविद सरकार बनाती है तो प्रधानमंत्री कौन बनेगा ? राजीव गांधी की हत्या के एक दिन बाद 22 मई को कांग्रेस कार्य समिति की आपात बैठक बुलायी गयी थी। इस बैठक में अर्जुन सिंह ने सोनिया गांधी को कांग्रेस का नया नेता चुनने की मांग उठायी थी। लेकिन सोनिया गांधी ने इंकार कर दिया था। वे राजनीति में आने की मन:स्थिति में नहीं थीं। यानी ये साफ हो गया था कि अब कांग्रेस को प्रधानमंत्री पद के लिए किसी नये नेता का चुनाव करना था। चुनावी नतीजे घोषित होने के बाद शरद पवार, अर्जुन सिंह, एनडी तिवारी प्रधानमंत्री पद की होड़ में शामिल हो गये। ये नेता सोनिया गांधी की इनायत हासिल करने के लिए लॉबिंग करने लगे।

सोनिया को हक्सर की सलाह
सोनिया गांधी को बेशक राजनीति का कोई अनुभव नहीं था लेकिन वे कुछ अलग सोच रही थीं। तब उन्होंने इंदिरा गांधी के प्रमुख सचिव रहे पीएन हक्सर से सलाह मांगी। पीएन हक्सर पूर्व नौकरशाह थे और उनकी बुद्धिमानी की कांग्रेस में बहुत कद्र थी। उन्होंने सोनिया गांधी को तत्कालीन उपराष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा का नाम सुझाया। नटवर सिंह और अरुणा आसफ अली सोनिया का दूत बन कर शंकर दयाल शर्मा के पास पहुंचे। लेकिन उन्होंने उपराष्ट्रपति पद और सेहत का हवाला देकर प्रधानमंत्री पद के प्रस्ताव को अस्वीकर कर दिया।

अचानक किस्मत पलटी
शंकर दयाल शर्मा के इंकार के बाद सोनिया गांधी ने फिर पीएन हक्सर से पूछा, अब क्या करें ? तब हक्सर ने उन्हें पीवी नरसिम्हा राव से बात करने की सलाह दी। सोनिया गांधी को विनम्र, अनुभवी और विश्वासपात्र नेता की तलाश थी। वे किसी तेज-तर्रार नेता को प्रधानमंत्री बना कर अपनी राह का रोड़ा नहीं बनाना चाहती थीं। ऐसे में किस्मत की वरमाला नरसिम्हा राव के गले में जा पड़ी। पारी समाप्ति की घोषणा कर चुके नरसिम्हा राव को सपने में भी ये ख्याल नहीं आया होगा कि उम्र की इस दहलीज पर उनकी झोली में प्रधानमंत्री का पद गिरने वाला है। लेकिन ऐसा ही हुआ। नरसिम्हा राव किसी सदन के सदस्य नहीं थे। फिर भी मजबूर कांग्रेस ने उन्हें प्रधानमंत्री बनाया। बाद में उन्होंने हैदराबाद की नांदयाल सीट से लोकसभा का उपचुनाव जीता और सांसद बने।

नरसिम्हा राव बनाम सोनिया गांधी
नरसिम्हा राव बुजुर्ग, अनुभवी और विद्वान नेता थे। प्रधानमंत्री के रूप में उन्हें डिक्टेट करना सोनिया और उनके समर्थकों के लिए आसान न था। 1992 से 1996 तक वे कांग्रेस के अध्यक्ष भी रहे। नरसिम्हा राव सोनिया गांधी से औपचारिक मुलाकात तो करते थे, लेकिन उन्होंने कभी सोनिया गांधी को सत्ता का केन्द्र नहीं बनने दिया। वे मानते थे कि सरकार चलाने के लिए सोनिया गांधी की सलाह की जरूरत नहीं। अल्पमत की सरकार चलाने के लिए उन्हें अच्छे-बुरे सभी इंतजाम करने पड़े। उन दिनों वोट के बदले नोट का मामला बहुत उछला था। राव पर सांसदों की खरीद फरोख्त का आरोप लगा। जोड़तोड़ से ही सही, सरकार पूरे पांच साल चली। लेकिन तब तक सोनिया समर्थक उन्हें नापसंद करने लगे थे। 1996 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस की करारी हार हुई। सोनिया समर्थकों ने हार का ठीकरा नरसिम्हा राव पर फोड़ दिया। राव को कांग्रेस अध्यक्ष पद छोड़ने के लिए मजबूर कर दिया गया।
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नरसिम्हा राव की मौत पर राजनीति
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के पूर्व मीडिया सलाहकार संजय बारू के मुताबिक, 23 दिसम्बर 2004 को नरसिम्हा राव ने दिल्ली के एम्स में आखिरी सांस ली। रात ढाई बजे उनका शव दिल्ली स्थित उनके सरकारी आवास पर लाया गया। कांग्रेस की सरकार थी। इसके बाद भी उनकी मौत पर राजनीति शुरू हो गयी। 24 दिसम्बर को तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने नरसिम्हा राव के पुत्र प्रभाकर को सुझाव दिया कि वे अपने पिता का अंतिम संस्कार गृहराज्य हैदराबाद में करें। लेकिन राव परिवार ने इस सुझाव को ठुकरा दिया और वे दिल्ली में अंत्येष्टि के लिए अड़ गये। (तब इस बात का आरोप लगा था कि सोनिया समर्थक पुरानी खुन्नस के कारण नरसिम्हा राव का अंतिम संस्कार दिल्ली में इस लिए नहीं करने देना चाहते थे क्यों कि इससे उन्हें अन्य पूर्व प्रधानमंत्रियों की तरह प्रतिष्ठा मिल जाती)। इसके कुछ देर बाद सोनिया के एक और करीबी गुलाम नबी आजाद राव के निवास पर पहुंचे। उन्होंने नरसिम्हा राव के पार्थिव शरीर को हैदराबाद ले जाने की अपील की। लेकिन राव परिवार नहीं माना।

नरसिम्हा राव का अपमान
शाम को सोनिया गांधी, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और प्रणब मुखर्जी वहां पहुंचे। लेखक विनय सीतापति के मुताबिक, मनमोहन सिंह ने प्रभाकर राव से पूछा, आप लोगों ने क्या सोचा है ? सब लोगों का कहना है कि अंत्येष्टि हैदराबाद में होनी चाहिए। इस पर प्रभाकर राव ने मनमोहन सिंह को कहा, दिल्ली मेरे पिता की कर्मभूमि रही। वे पूर्व प्रधानमंत्री थे। आप सभी लोगों को दिल्ली में ही अंत्येष्टि के लिए मनाइये। विनय सीतापति के मुताबिक, इसके बाद सोनिया गांधी ने कुछ कहा। मनमोहन सरकार ने दिल्ली में नरसिम्हा राव मेमोरियल बनाने का आश्वासन दिया। तब राव परिवार नरम पड़ गया। वे हैदराबाद में अंतिम संस्कार के लिए राजी हो गये। इसके बाद भी राजनीति खत्म नहीं हुई। राव परिवार ने नरसिम्हा राव के शव को हैदराबाद ले जाने से पहले कांग्रेस मुख्यालय ले जाने की बात कही। 25 दिसम्बर को जब पूर्व प्रधानमंत्री का शव ले जा रहा विशेष वाहन (गन कैरिज) कांग्रेस मुख्यालय पहुंचा तो उसका गेट बंद पाया गया। करीब आधे घंटे तक शववाहन फुटपाथ पर खड़ा रहा लेकिन गेट नहीं खुला। लोग बाहर ही अंतिम दर्शन करते रहे। इसके बाद शववाहन एयरपोर्ट के लिए रवाना हो गया। अपने पूर्व प्रधानमंत्री के साथ जब कांग्रेस ने ऐसा अपमानजनक व्यवहार किया तो सवाल उठने लगे। इस पर कांग्रेस ने सफाई दी थी, चूंकि दफ्तर का गेट छोटा था इसलिए शववाहन अंदर नहीं जा सका। लेकिन हकीकत सब जानते हैं। कांग्रेस की वरिष्ठ नेता मार्गरेट अल्वा ने भी अपनी आत्मकथा (करेज एंड कमिटमेंट) में इस बात का जिक्र किया है। नरसिम्हा राव ने जब कांग्रेस को स्वतंत्र रूप से संचालित करने की हिम्मत दिखायी तो उनके साथ कैसा बुरा वर्ताव किया गया, इसे सारे देश ने देखा।