महाराष्ट्र में अब किस करवट बैठेगा ऊंट, पार्टियों में MLA खरीद-फरोख्त का बैठा डर!
बेंगलुरू। महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश के बाद बीजेपी, शिवसेना, एनसीपी और कांग्रेस समेत सभी राजनीतिक दल अब बैक डोर से सत्ता तक पहुंचने की गणित से घबराई हुई हैं। सभी राजनीतिक दल अपने जीते हुए विधायकों पर नजर बनाए हुए है, क्योंकि महाराष्ट्र में सरकार गठन के लिए संख्याबल की जरूरत है। यही कारण है कि सभी राजनीतिक दल विधायकों की खरीद-फरोख्त से बचाने के लिए सतर्क हो गई हैं।
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2019 के नतीजों में नंबर वन पार्टी बन कर उभरी बीजेपी ने एनडीए सहयोगी शिवसेना की नाजायज मांगों के चलते सबसे पहले सरकार गठन से अपना हाथ पीछे खींच लिया। इसके बाद सरकार गठन के लिए आगे शिवसेना भी सरकार गठन में फेल रही। फिर तीसरे नंबर की पार्टी एनसीपी को राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी ने सरकार बनाने के लिए आमंत्रित किया, लेकिन एनसीपी भी सरकार गठन में फेलियर साबित हुई, जिसके बाद राज्यपाल ने महाराष्ट्र में राष्ट्रपति शासन की सिफारिश कर दी।
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव में जनादेश बीजेपी और शिवसेना गठबंधन को मिला था, लेकिन तकरीबन 18 दिनों तक हाथ-पांव मारने के बाद भी दोनों दल सरकार गठन के लिए तैयार नहीं हो सकी। शिवसेना के 50-50 फार्मूले की जिद ने जनता के जनादेश का जनाजा निकाल दिया, जिससे महाराष्ट्र में थाली में परोस कर रखी गई सत्ता का स्वाद दोनों दलों के मुंह तक पहुंचते-पहुंचते रह गया।
माना जा रहा है कि आगामी विधानसभा चुनावों में दोनों दलों को इसका खामियाजा भुगतना पड़ सकता है। हालांकि पूर्व महाराष्ट्र सीएम देनेंद्र फड़णवीस ने जल्द ही स्थिर सरकार बनाने और नारायण राणे ने 145 विधायक जुटाने की बात कही है। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राष्ट्रपति शासन की सिफारिश के बाद महाराष्ट्र में अगले कुछ दिनों में क्या होने वाला है।
माना जा रहा है कि अब शिवसेना को अपने विधायकों को पार्टी में बनाए रखने की चुनौती पेश आने वाली है, क्योंकि अब तक शिवसेना के विधायक सत्ता मिलने के मोह में उद्धव ठाकरे के साथ मज़बूती से खड़े थे, लेकिन राष्ट्रपति शासन की सिफारिश ने सरकार गठन के आसार खत्म हो गए हैं। ऐसे में शिवसेना विधायक खरीद-फरोख्त के बाजार में सबसे बिकाऊ विधायकों की श्रेणी में पहुंच गए हैं और बीजेपी से बड़ा राजनीतिक खरीदार उनका कोई नहीं है। चूंकि यह मामला आर्थिक राजधानी मुंबई का है, तो यहां राजनीतिक निवेशकों की कोई कमी नहीं हैं।
कमोबेश यही हाल एनसीपी कुनबे के विधायकों का भी है, जो विधायकों के हॉट बाजार मे दूसरे सबसे बिकाऊ ट्रेंड कर रहे हैं। एनसीपी को विधानसभा चुनाव से पहले ही पार्टी छोड़कर बीजेपी में जाने वाले नेता पहले ही आघात पहुंचा चुके हैं। यही कारण है कि एनसीपी भी अपने विधायकों को लेकर सशंकित है कि कही सत्ता की लालच में उनके नवनिर्वाचित विधायक उन्हें छोड़कर बीजेपी में चले जाएं।
रही बात कांग्रेस की तो कांग्रेस को अभी हाल ही में कर्नाटक में इसका ताजा अनुभव कर चुकी है, जिससे कर्नाटक में 14 महीने पुरानी कांग्रेस-जेडीएस गठबंधन धाराशाई हो चुकी है। अगर महाराष्ट्र में भी कांग्रेस के दो तिहाई विधायकों का हृदय परिवर्तन हो गया तो बीजेपी की सरकार महाराष्ट्र में बनने से कोई नहीं रोक सकेगा।
सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि महाराष्ट्र में दोबारा चुनाव में जाने की ताकत बीजेपी को छोड़कर किसी भी दल में नहीं है और कोई भी दल चाहता भी नहीं है कि महाराष्ट्र में सत्ता के लिए दोबारा चुनावी कैंपेन में जाए। सभी दल चाहते हैं कि बैक डोर से ही सही, महाराष्ट्र में सरकार गठन में उसकी हिस्सेदारी हो।
सभी दल अच्छी तरह से जानते हैं कि चुनाव कितना खर्चीला होता है। हालांकि अपवाद रूप में बीजेपी को दोबारा चुनाव से ज्यादा फर्क नहीं पड़ने वाला हैं, क्योंकि उसके पास पैसे की कोई कमी नहीं और केंद्र और कुल 17 राज्यों में काबिज बीजेपी की सरकारों के चलते उन्हें निवेशक ढूंढने में भी अधिक परेशानी नहीं होगी।
यही कारण है कि सभी दल, जिसमें बीजेपी भी शामिल है महाराष्ट्र में दोबारा विधानसभा चुनाव टालने के लिए वैकल्पिक रास्ता अपनाती दिख रही है। माना जा रहा है क राष्ट्रपति शासन के दौरान ही सभी राजनीतिक दल महाराष्ट्र में सरकार गठन की संभावनाओं को तलाशते की कोशिश करेंगी।
इस बीच अगर कोई भी गठबंधन संख्याबल जुटाने में कामयाब रही तो राज्यपाल भगत सिंह कोश्यारी के समक्ष सरकार बनाने का दावा राज्यपाल के समक्ष पेश कर देगा, लेकिन सवाल अब भी वही है कि कौन बाजी मार सकता है और किसमें पाला बदलने विधायकों को इंटरटेन करने की अधिक ताकत है और जवाब सिर्फ एक है बीजेपी?
इसमें कोई दो राय नहीं है कि बीजेपी से बड़ी खरीदार महाराष्ट्र में कोई नहीं है, जिससे शिवसेना-एनसीपी-कांग्रेस तीनों पार्टियां डरी हुई हैं, क्योंकि इन तीनों दलों को अपने विधायकों को टूटने से बचाने की चुनौती है। तीनों पार्टियां जानती हैं कि अगर उनके विधायकों के सामने बड़ा ऑफर आया तो उससे नज़रें फिराने से विधायकों को तीनों दल रोक नहीं पाएंगे, क्योंकि सत्ता में काबिज होने का लालच उन्हें नैतिकता और पार्टी के वसूलों से अधिक देर तक रोक पाएंगी और वैसे भी कहा जाता है कि राजनीति में कोई भी किसी का सगा नहीं होता है।
फर्ज कीजिए राष्ट्रपति शासन के दौरान भी कोई भी दल सरकार गठन में नाकाम रहती है तो अगले विधानसभा चुनाव में बीजेपी और शिवसेना गठबंधन होने से रहा और बीजेपी अकेल ही चुनाव में उतरेगी। दूसरी ओर, स्थानीय मराठी दल शिवसेना और एनसीपी गठबंधन करके चुनाव में उतर सकती है।
लेकिन बहुत मुश्किल है कि कांग्रेस और शिवसेना चुनाव पूर्व गठबंधन करके चुनावी मैदान में उतरेंगी। इसके लिए न ही शिवसेना तैयार होगी और न ही कांग्रेस गठबंधन करना चाहेगी। वैसे राजनीति में बेमेल गठबंधन की एक पूरी फेहरिस्त है, जहां सत्ता के लिए सिद्धांत गौढ़ हो गए।
मौजदूा दौर में ऐसे अनेकों उदाहरण हमारे बीच मौजूद हैं जब महज सत्ता के लिए परस्पर विरोधी पार्टियां एकदूसरे से गलबहियां करती हुईं दिखी। इनमें सबसे ताजा उदाहरण बीएसपी और सपा गठबंधन है, जिन्होंने सत्ता के लिए 30 वर्ष पुरानी दुश्मनी को भुलाकर लोकसभा चुनाव 2019 में एक साथ यूपी में उतरी। ऐसे ही परस्पर विरोधी गठबंधन में बीएसपी-बीजेपी, पीडीपी-बीजेपी और हिंदू महासभा-मुस्लिम लीग का गिनाया जा सकता है, जो महज सत्ता के लिए किया गया था। इसलिए मेल और बेमेल गठबंधन की बहस करना ही बेकार है।
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