किसानों की क़र्ज़माफ़ी का बुरा असर किस पर: नज़रिया
नए क़र्ज़ देने पर भी कई रोकटोक को मानना पड़ रहा है. ऐसे में कई राज्य सरकारें अपनी मनमानी नहीं कर पा रही हैं. इसलिए पिछले कुछ महीनों में रिज़र्व बैंक और सरकार में नोकझोंक बढ़ गई है.
पिछले दशक के शुरुआती सालों में रिज़र्व बैंक ने जिस ढंग से आसान शर्तों पर क़र्ज़ न देने की नीति बनाई थी, इससे उद्योगों में थोड़ी चिंता बनती है पर लंबे दौर में देश को फ़ायदा होता है.
बीते कुछ वर्षों में किसानों की कर्ज़माफ़ी के वायदों की बाढ़ सी आ गई है.
राज्य में किसी भी पार्टी की सरकार हो, किसानों के लिए उन्हें सरकारी ख़ज़ाने से पैसे देने में कोई भी हिचकिचाहट नहीं हो रही है. लेकिन किसानों के मुद्दों को सुलझाने में शायद वो फुर्ती नहीं दिख रही.
भारतीय रिज़र्व बैंक ने साफ़ किया है कि सरकारों की कर्ज़ माफ़ करने की नीति सही नहीं है. इससे बैंकों पर बुरा असर होता है और लोन लेने वाले आम लोगों की सोच पर भी प्रतिकूल असर होता है.
लेकिन रिज़र्व बैंक के तीखे शब्द नीति निर्धारण करने वालों पर कोई असर नहीं कर रहे हैं. लोन माफ़ करने के प्रति उनकी उदार नीति फिलहाल बदलती नहीं दिखाई दे रही.
सिर्फ़ किसानों के प्रति नरम रवैया नहीं, बड़े उद्योगों को दिए गए लोन के गड़बड़झाले को मिलाकर अब बैंकों के लिए सांस लेना दूभर सा हो गया है.
किसानों की कर्ज़माफ़ी और उद्योगों को दिए गए ऐसे लोन जो शायद वापस नहीं आएंगे, उन दोनों ने मिलकर ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि बैंकिंग प्रणाली कुछ समय से ख़तरे में दिखाई दे रही है.
कर्ज़माफ़ी की नीति
हर साल बजट में किसानों को लोन मुहैया कराने का आंकड़ा वित्त मंत्री के भाषण में छाया रहता है.
अब ये आंकड़ा सालाना 10 लाख करोड़ रुपये से ऊपर पहुंच गया है. लेकिन सरकारी आंकड़ों के इस दावे में ये साफ़ दिखाई नहीं देता कि मूल रूप से किसानों को इसका फ़ायदा पहुंच रहा है या नहीं.
जैसे जैसे ये आंकड़ा ऊपर पहुंचता गया है, पिछले कुछ साल में अलग अलग राज्यों ने किसानों के लिए अपनी घोषणाओं में कर्ज़माफ़ी की सरकारी नीति सी बना ली है.
अलग अलग राज्यों के किसान नेता अब इसको अपने हक़ के रूप में मांगने लगे हैं. इस महीने हिंदी भाषी राज्यों के चुनाव में किसानों का मुद्दा जिस ढंग से छाया रहा, इस नीति को अब और सरकारें भी अपना सकती हैं.
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कर्ज़ माफ़, चुनाव का रास्ता साफ़?
महाराष्ट्र: 34000 करोड़ रुपये
उत्तर प्रदेश: 36000 करोड़ रुपये
पंजाब: 10000 करोड़ रुपये
कर्नाटक: 8000 करोड़ रुपये
(स्रोत: राज्य सरकारों की घोषणा)
चार राज्यों की सरकारी घोषणाओं के आधार पर रिज़र्व बैंक ने ये समझने की कोशिश की कि इससे बैंकों पर क्या असर पड़ेगा.
रिज़र्व बैंक के आंकड़ों के अनुसार, अगर देश भर में सिर्फ़ छोटे किसानों को पूरी तरह से फसल के लिए कर्ज़माफ़ी दे दी जाए तो सरकार को इसके लिए 2 लाख 20 हज़ार करोड़ रुपये का इंतज़ाम करना होगा.
ये आंकड़ा सिर्फ़ सरकारी कमर्शियल बैंकों के लिए है. देश में खेती के सभी लोन का 17 फ़ीसदी सहकारी बैंकों की तरफ से दिया जाता है. उनके लोन को शामिल कर देने से ये आंकड़ा थोड़ा और ऊपर जा सकता है.
देश भर में दिए गए खेती के लिए लोन करीब 4.5 लाख करोड़ रुपये का है, जिसमें करीब 2.19 लाख करोड़ छोटे और मंझले किसानों के लिए है.
कई राज्यों के लिए अब ये आंकड़ा इतना बड़ा हो गया है कि आर या पार की स्थिति बन गई है.
बढ़ते कर्ज़ का सरकार पर बोझ
आंध्र प्रदेश: 46,254 करोड़
बिहार: 22,092 करोड़
कर्नाटक: 34,637 करोड़
केरल: 29,914 करोड़
मध्य प्रदेश: 20,837 करोड़
महाराष्ट्र: 35,026 करोड़
राजस्थान: 26,702 करोड़
तेलंगाना: 21,902 करोड़
उत्तर प्रदेश: 57,129 करोड़
तमिलनाडु: 66,878 करोड़
(स्रोत: भारतीय रिज़र्व बैंक, मार्च 2016 तक)
नॉन परफार्मिंग एसेट
लोन मेला के नाम से जाना जाने वाला ये मुद्दा पहली बार नहीं उठा है. किसानों के क़र्ज़ का ये मुद्दा, इस बार ऐसे समय में आया है जब उद्योगों को दिए गए लोन में से 10 लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा नॉन परफार्मिंग एसेट में शामिल किये जा चुके हैं.
बैंकों को ये डर है कि इस रक़म में से बड़ा हिस्सा वापस नहीं होगा. नोटबंदी की मार झेल रही सैकड़ों छोटी और मंझली कंपनियां भी इसमें शामिल हैं.
बड़े उद्योग घरानों को दिए गए पूरे क़र्ज़ के वापस न आने की स्थिति फिलहाल नहीं है. लेकिन रिज़र्व बैंक की पैनी नज़र ऐसे घरानों पर लगातार बनी हुई है.
क़र्ज़ की रेवड़ियां
ऐसे लोन बहुत ज़्यादा संख्या में देने के कारण करीब दर्जन भर सरकारी बैंकों की स्थिति सुधारने के लिए रिज़र्व बैंक ने उन पर नकेल कसी हुई है. प्रॉम्प्ट करेक्टिव एक्शन (Prompt Corrective Action) यानी स्थिति सुधारने के लिए रोज़ाना के कामकाज में उन्हें कई बदलाव करने पड़ रहे हैं.
नए क़र्ज़ देने पर भी कई रोकटोक को मानना पड़ रहा है. ऐसे में कई राज्य सरकारें अपनी मनमानी नहीं कर पा रही हैं. इसलिए पिछले कुछ महीनों में रिज़र्व बैंक और सरकार में नोकझोंक बढ़ गई है.
पिछले दशक के शुरुआती सालों में रिज़र्व बैंक ने जिस ढंग से आसान शर्तों पर क़र्ज़ न देने की नीति बनाई थी, इससे उद्योगों में थोड़ी चिंता बनती है पर लंबे दौर में देश को फ़ायदा होता है.
इसलिए पिछले दशक के आर्थिक विकास को कई अर्थशास्त्री अब भी बहुत बढ़िया मानते हैं.
सभी सरकारें रेवड़ियां बांट कर वाहवाही लूटना चाहती हैं. वहीं सभी देशों के केंद्रीय बैंक कोशिश करते हैं कि क़र्ज़ मिलना आसान न हो और बैंक उसमें सावधानी बरतें. इन्हीं दोनों की कश्मकश अगले चंद साल में अर्थव्यवस्था की दिशा तय करेगी.