1 जनवरी 1948, जब हुआ था आज़ाद भारत का 'जलियांवाला बाग़ कांड'
विजय सिंह बोदरा अभी शहीद स्थल के पुरोहित हैं. उनका परिवार ही यहाँ पीढ़ियों से पूजा कराता आ रहा है. विजय ने बताया, "एक जनवरी को शहीदों के नाम पर पूजा की जाती है. लोग शर्द्धांजलि देते हैं. फूल-माला के साथ चावल के बना रस्सी चढ़ा कर पूजा की जाती है. शहीद स्थल पर तेल भी चढ़ाया जाता है."
स्टील सिटी जमशेदपुर से करीब साठ किलोमीटर की दूरी पर आदिवासी बहुल कस्बा खरसावां है.
भारत की आज़ादी के करीब पांच महीने बाद जब देश एक जनवरी, 1948 को आज़ादी के साथ-साथ नए साल का जश्न मना रहा था तब खरसावां 'आज़ाद भारत के जलियांवाला बाग़ कांड' का गवाह बन रहा था.
उस दिन साप्ताहिक हाट का दिन था. उड़ीसा सरकार ने पूरे इलाक़े को पुलिस छावनी में बदल दिया था. खरसावां हाट में करीब पचास हज़ार आदिवासियों की भीड़ पर ओडिसा मिलिट्री पुलिस गोली चला रही थी.
आज़ाद भारत का यह पहला बड़ा गोलीकांड माना जाता है. इस घटना में कितने लोग मारे गए इस पर अलग-अलग दावे हैं और इन दावों में भारी अंतर है.
वरिष्ठ पत्रकार और प्रभात ख़बर झारखंड के कार्यकारी संपादक अनुज कुमार सिन्हा की किताब 'झारखंड आंदोलन के दस्तावेज़: शोषण, संघर्ष और शहादत' में इस गोलीकांड पर एक अलग से अध्याय है.
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इस अध्याय में वो लिखते हैं, "मारे गए लोगों की संख्या के बारे में बहुत कम दस्तावेज़ उपलब्ध हैं. पूर्व सांसद और महाराजा पीके देव की किताब 'मेमोयर ऑफ ए बायगॉन एरा' के मुताबिक इस घटना में दो हज़ार लोग मारे गए थे."
"देव की किताब और घटना के चश्मदीदों के विवरणों में बहुत समानता दिखती है. वहीं तब के कलकत्ता से प्रकाशित अंग्रेजी अख़बार द स्टेट्समैन ने घटना के तीसरे दिन अपने तीन जनवरी के अंक में इस घटना से संबंधित एक खबर छापी, जिसका शीर्षक था- 35 आदिवासी किल्ड इन खरसावां."
"अखबार ने अपनी रिपोर्ट में लिखा कि खरसावां का उड़ीसा में विलय का विरोध कर रहे तीस हजार आदिवासियों पर पुलिस ने फायरिंग की. इस गोलीकांड की जांच के लिए ट्रिब्यूनल का भी गठन किया गया था, पर उसकी रिपोर्ट का क्या हुआ, किसी को पता नहीं."
कुएं में लाशें भर दी गई
झारखंड आन्दोलनकारी और पूर्व विधायक बहादुर उरांव की उम्र घटना के वक़्त करीब आठ साल थी. खरसावां के बगल के इलाके झिलिगदा में उनका ननिहाल है. सबसे पहले उन्होंने बचपन में ननिहाल जाने पर खरसावां गोलीकांड के बारे में सुना और फिर आन्दोलन के क्रम में इसके इतिहास से रूबरू हुए.
उन्होंने बीबीसी को बताया, "गोलीकांड का दिन गुरुवार और बाजार-हाट का दिन था. सराइकेला और खरसावां स्टेट को उड़िया भाषी राज्य होने के नाम पर उड़ीसा अपने साथ मिलाना चाहता था और यहाँ के राजा भी इसे लेकर तैयार थे. मगर इलाके की आदिवासी जनता न तो उड़ीसा में मिलना चाहती थी और न बिहार में."
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"उसकी मांग अलग झारखंड राज्य की थी. झगड़ा इसी बात को लेकर था. ऐसे में पूरे कोल्हान इलाके से बूढ़े-बुढ़िया, जवान, बच्चे, सभी एक जनवरी को हाट-बाज़ार करने और जयपाल सिंह मुंडा को सुनने-देखने भी गए थे. जयपाल सिंह अलग झारखणंड राज्य का नारा लगा रहे थे. जयपाल सिंह मुंडा के आने के पहले ही भारी भीड़ जमा हो गई थी और पुलिस ने एक लकीर खींच कर उसे पार नहीं करने को कहा था."
"नारेबाजी के बीच लोग समझ नहीं पाए और अचानक गोली की आवाज़ आई. बड़ी संख्या में लोग मारे गए. अभी जो शहीद स्थल है वहां एक बहुत बड़ा कुआं था. यह कुआं वहां के राजा रामचंद्र सिंहदेव का बनाया हुआ था. इस कुएं को न केवल लाश बल्कि अधमरे लोगों से भर दिया गया और फिर उसे ढंक दिया गया."
मशीनगन गाड़ कर लकीर खींची गई
लकीर खींचने की बात की तस्कीद खरसावां में रहने वाले रजब अली भी करते हैं, जिनकी उम्र गोलीकांड के वक़्त करीब पंद्रह साल थी. गोलीकांड के दिन उन्होंने सभा के लिए लोगों को इकट्ठा होते देखा था. अभी एक समाजसेवी के बतौर जाने जाने वाले रजब अली से मेरी मुलाकात खरसावां चौक पर हुई.
गोलीबारी के दौरान वो घटना स्थल से कुछ ही दूरी पर कब्रिस्तान के पीछे थे.
एक जनवरी, 1948 की घटना को उन्होंने कुछ इस तरह याद किया, "आज जहाँ शहीद स्थल है उसके पास-पास तब डाक बंगला था जो आज भी है. पास ही ब्लॉक ऑफिस था. वहां पर एक मशीनगन गाड़ कर एक लकीर खींच दी गई थी और लोगों से कहा गया था कि वे लकीर पार कर राजा से मिलने की कोशिश न करें. ऐसा सुनने में आता है कि आदिवासियों ने पहले तीर से हमला किया इसके बाद गोली चलाई गई. हमने भी गोली की आवाज़ सुनी फिर धीरे-धीरे घर लौट गए."
उन्होंने आगे बताया, "घटना के बाद इलाके में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया. शायद आज़ाद भारत में पहला मार्शल लॉ यहीं लगा था. कुछ दिनों बाद उड़ीसा सरकार ने देहात में बाँटने के लिए कपड़े भेजे, जिसे आदिवासियों ने लेने से इंकार कर दिया. लोगों के दिल में था कि ये सरकार हम लोगों पर गोली चलाई तो हम इसका दिया कपड़ा क्यों लें."
उड़ीसा राज्य में विलय का विरोध
इस गोलीकांड का प्रमुख कारण था खरसावां के उड़ीसा राज्य में विलय का विरोध. अनुज सिन्हा बताते हैं, "आदिवासी और झारखंड (तब बिहार) में रहने वाले समूह भी इस विलय के विरोध में थे. मगर केंद्र के दवाब में सरायकेला के साथ ही खरसावां रियासत का भी उड़ीसा में विलय का समझौता हो चुका था.
1 जनवरी, 1948 को यह समझौता लागू होना था. तब मरांग गोमके के नाम से जाने जाने वाले आदिवासियों के सबसे बड़े नेताओं में से एक और ओलंपिक हॉकी टीम के पूर्व कप्तान जयपाल सिंह मुंडा ने इसका विरोध करते हुए आदिवासियों से खरसावां पहुंचकर विलय का विरोध करने का आह्वान किया था. इसी आह्वान पर वहां दूरदराज इलाकों से लेकर आस-पास के इलाकों के हजारों आदिवासियों की भीड़ अपने पारंपरिक हथियारों के साथ इकठ्ठा हुई थी."
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गिरिधारी राम गौन्झू रांची यूनिवर्सिटी के जनजातीय और क्षेत्रीय भाषा विभाग के पूर्व अध्यक्ष रहे हैं. उनके मुताबिक आदिवासी दरअसल खरसावां गोलीकांड के दिन दशकों पुराने झारखण्ड आंदोलन की मांग को आगे बढ़ने के लिए ही जुटे थे.
उन्होंने बीबीसी को बताया, "आदिवासियों की अपने राज्य और स्वशासन की मांग काफी पुरानी है. 1911 से तो इसके लिए सीधी लड़ाई लड़ी गई. इसके पहले बिरसा मुंडा के समय 'दिसुम आबुआ राज' यानी की 'हमारा देश, हमारा राज' का आन्दोलन चला. इसके पहले 1855 के करीब सिद्धू-कानू भी 'हमारी माटी, हमारा शासन' के नारे के जरिये वही बात कह रहे थे."
"इसी आन्दोलन को आगे बढ़ते हुए आज़ादी के बाद सराइकेला-खरसावां इलाके के आदिवासी मांग कर रहे रहे थे कि अलग झारखण्ड की हमारी मांग को ज्यों का त्यों रहने दीजिए और हमें किसी राज्य यानी की बिहार या उड़ीसा में मत मिलाइए."
54 साल बाद निकाली गई गोली
अनुज कुमार सिन्हा की किताब 'झारखंड आंदोलन के दस्तावेज : शोषण, संघर्ष और शहादत' में इस गोलीकांड में घायल हुए कुछ लोगों की आप बीती भी दर्ज है.
ऐसे ही एक शख्स दशरथ मांझी की आपबीती किताब में कुछ इस तरह से है, "गोलीकांड के दिन भारी भीड़ थी. लोग आगे बढ़ रहे थे और साथ में मैं भी आगे जा रहा था. अचानक उड़ीसा पुलिस ने फायरिंग शुरू कर दी. मैंने सात जवानों को मशीनगन से फायरिंग करते देखा."
"पुलिस की एक गोली मुझे भी लगी. मैं एक पेड़ के नीचे लाश की तरह पड़ा रहा और पुलिस को लाशों को उठाकर ले जाते हुए देखता रहा. बाद में मुझे घसीटते हुए खरसावां थाना लाया गया और फिर इलाज़ के लिए पहले जमशेदपुर और फिर कटक भेजा गया."
किताब में घटना में घायल एक अन्य शख्स साधु चरण बिरुआ की आपबीती भी है. अनुज लिखते हैं, "साधु चरण को कई गोलियां लगी थीं. इस दर्द में उन्हें पता ही नहीं चला कि एक गोली उनके बांह में लगी है. गोली लगने के 54 साल बाद उनकी बांह के दर्द हुआ, गोली धीरे-धीरे बाहर आने लगी, तब उस गोली को निकाला गया."
झारखण्ड का राजनीतिक 'तीर्थ'
घटना के बाद पूरे देश में प्रतिक्रिया हुई. उन दिनों देश की राजनीति में बिहार के नेताओं का अहम स्थान था और वे भी यह विलय नहीं चाहते थे. ऐसे में इस घटना का असर ये हुआ कि इलाके का उड़ीसा में विलय रोक दिया गया.
घटना के बाद समय के साथ यह जगह खरसावां शहीद स्थल में रूप में जाना गया जिसका आदिवासी समाज और राजनीति में बहुत जज्बाती और अहम स्थान है. खरसावां हाट के एक हिस्से में आज शहीद स्मारक है और इसे अब पार्क में भी तब्दील कर दिया गया है.
पहले यह पार्क आम लोगों के लिए भी खुलता था मगर साल 2017 में यहां 'शहीद दिवस' से जुड़े एक कार्यक्रम के दौरान ही झारखंड के मुख्यमंत्री रघुवर दास का विरोध हुआ और जूते उछाले गए. इसके बाद से यह पार्क आम लोगों के लिए बंद कर दिया गया है.
एक ओर जहाँ एक जनवरी को शहीद स्थल पर आदिवासी रीति-रिवाज से पूजा की जाती है तो दूसरी ओर हर साल यहां झारखंड के सभी बड़े राजनीतिक दल और आदिवासी संगठन कार्यक्रम करते हैं. इस बार भी खरसांवा चौक कई दलों के होर्डिंग्स से पट चुका है.
विजय सिंह बोदरा अभी शहीद स्थल के पुरोहित हैं. उनका परिवार ही यहाँ पीढ़ियों से पूजा कराता आ रहा है. विजय ने बताया, "एक जनवरी को शहीदों के नाम पर पूजा की जाती है. लोग शर्द्धांजलि देते हैं. फूल-माला के साथ चावल के बना रस्सी चढ़ा कर पूजा की जाती है. शहीद स्थल पर तेल भी चढ़ाया जाता है."
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