आज़ाद भारत के गुलाम पीसीओ
[मयंक
दीक्षित]
आज
बेंगलोर
15
अगस्त
की
तारीख
को
खुश
करने
के
लिए
'आज़ाद'
चोले
में
रंगा
खड़ा
था।
स्कूलों
में
बच्चों
को
लड्डू
बांट
कर
'थ्योरिकल
शिक्षा'
से
आज़ाद
किया
जा
रहा
था।
सड़कों-
चौराहों
पर
लहराते
तिरंगे
गुजरने
वालों
को
गुजरी
हुई
यादों
की
झलक
महसूस
करने
का
इशारा
कर
रहे
थे।
मगर
अभी
पूर्व
मैकेनिकल
इंजीनियर
राजेंद्र
नाथ
की
दुकान
में
बोनी
नहीं
हुई
थी।
एक 'आधुनिक बुजुर्ग' आधुनिकता से टक्कर लेने जो निकल पड़ा है। उनकी सड़क के जस्ट किनारे एक दुकान है। बाहर लिखा है 'पीसीओ'। साफ-सुथरे स्त्री किए कपड़े पहनकर, अंग्रेजी कैप से अपने सफेद बालों को ढककर जब वे अपने पीसीओ में सुबह 7 बजे आ बैठते हैं तो तो उम्मीद करते हैं कि इमरजेंसी में किसी का मोबाइल बंद हो गया हो या इससे भी ज्यादा बड़े आपातकाल ने किसी को घेर लिया हो तो वो हमारा पीसीओ प्रयोग करने आ जाएगा।
मेरी
लच्छेदार
भाषा
में
बंधकर
आप
कंफ्यूज
ना
हों।
यह
कहानी
है
पीसीओ
फोन
बूथ
की।
यह
यादें
हैं
उस
पीसीओ
की,
जो
आज
से
दशक
भर
पहले
लगभग
हर
चौराहे
पर
बोर्ड
टांगे
डटा
होता
था।
यह
खुन्दक
है
उस
दुनिया
की
जिसने
हमें
स्मार्टफोंस-मोबाइल
फोन
टॉफी-चॉकलेट
की
तरह
उपलब्ध
करवा
दिए।
आज
हम
इतना
आगे
बढ़
आए
हैं
कि
पीसीओ
हमारी
जेब
में
है,
रिश्ते
हमारे
व्हाटसएप्प
एकाउंट
में
हैं,
भावनाएं
फेसबुक
पर
हैं
और
नाराजगी
हाइक-लाइन
मैसेंजर
में
बंध
गई
है।
गूगल करने पर आप PCO का फुल फॉर्म पब्लिक कॉल ऑफिस पांएगे। ज़रूरत के दौर में पूर्व टेलीकॉम अफसर आर. एल दुबे ने इस कंसेप्ट को सुझाया था। आज से 8 साल पहले भारत में पीसीओ की संख्या लगभग 41लाख 99 हजार 157 थी। इससे ज्यादा गूगल फिर कभी कर लूंगा आज पूरा का पूरा ध्यान पीसीओ की उस भावना पर लगा दिया है, जिसने एक दौर में लोगों को संवाद का प्लेटफॉर्म दिया, और आज वो खुद ही संवाद और अचल संपत्ति के दर्द से गुज़र रहा है।
आज की सुबह जब मैंने जेपीनगर में एकमात्र पीसीओ चला रहे राजेंद्र जी का दरवाजा खटखटाया तो वे मुझे अपना पहला ग्राहक समझ बैठे। मैंने अपना परिचय दिया-उनका परिचय लिया। बातचीत के बाद वे बोले '' बेंगलोर में गिनती के पीसीओ मिलेंगे। और बेंगलोर में ही क्यों इस जैसे हर बड़े शहरों में अब पीसीओ जरूरत नहीं, मजबूरी हैं। वह मजबूरी जो कभी-कभार रेलवे स्टेशन-बस स्टॉप के आसपास इंसानों को आकर घेर लेती है व वे इसे प्रयोग कर हमें कुछइतनी कमाई दे जाते हैं कि हम इससे 'चाय समोसे का नाश्ता' भर कर लें'।
आइए चर्चा करें पीसीओ के प्रकारों की-
लवर्स का पीसीओ- एक दौर की ओर लौटें तो जब इश्क-मुहब्बत भारत को इंडिया बना रही थी। आज से कुछ साल पहले तक जब गली-मोहल्लों का प्यार घर पर रखे लैंडलाइन से नहीं बतिया पाता था तो दौड़कर पीसीओ के दरवाजे में कैद हो लेता था। बातें चलती थीं। हंसी-ठिठोली होती थी। एक-दूसरे से मीलों दूर जन्मों-जन्मों के रिश्ते निभाने का इरादा तक बंध जाया करता था।
डेली इतनी बातें, इतना खर्चा लेकिन चेहरे पर प्यार इससे कहीं ज्यादा। कभी-कभी तो पीसीओ वाले भैया तक जान जाया करते थे व उन्हें पता होता था कि 'सोनू' का कॉल शाम को इतने बजे आएगा और वे उस वक्त बाकी ग्राहकों को रोकने की कोशिश किया करते थे। ऐसी ही बातों पर जब एक गुजरते हुए शख्स को मैंने रोका तो उसने अपना नाम निखिल बताया व बोला कि ''मेरे यहां जब लैंडलाइन था, तो वो पापा के कमरे में रखा रहता था, मेरी गर्लफ्रेंड, जो अब मेरी पत्नी है, से बात करने के लिए अगली गली वाला पीसीओ का इस्तेमाल करता था। हर दिन लगभग दस या बीस रुपए की बात कर ना सिर्फ हमारा रिश्ता मजबूत होता था बल्कि घर-परिवार की टेंशन से दूर हम सुरक्षित अपने रिश्ते की बुनियाद मजबूत किया करते थे'।
बुजुर्गों का पीसीओ-
बुजुर्गों की बात आते ही मैंने जयनगर के कॉयन पीसीओ पर बात कर रहे एक दादा को रोका। हालांकि वे कन्नड़ में संवाद करने लगे। मेरे उत्तर भारतीय रवैए को समझकर एक जवाब में बोले कि ''हमारे यहां लगभग तब फोन लग गया था जब कॉलोनी मे किसी के यहां नहीं था' तो उससे पहले मैं पीसीओ का प्रयोग किया करता था। मैं 'अमेरिका' में रह रहे अपने भाई से पंद्रह दिन में एक बात करता, जिसका कॉल रेट 15 रुपया प्रतिमिनट कटता था।''
इसी तरह के बाकी बुजुर्गों के लिए भी पीसीओ रिश्ते को ना सिर्फ स्नेह देता था बल्कि वे दूर-मीलों से अपने सगे-संबंधियों को बधाई-आशीर्वाद दिया करते थे। अपने परिवार के सदस्यों को दिशा-निर्देश से लेकर व्यापारिक बातचीत के लिए भी पीसीओ जिंदगी का सहारा होते थे। आज ज्यादातर बुजुर्गों के पास अपनी कमाई का या बच्चों का गिफ्ट किया हुआ स्मार्टफोन होता है। अब तो वे ना सिर्फ फोन मिलाकर हाल-चाल-आशीर्वाद दिया करते हैं बल्कि मैसेंजर व अन्य एप्स के जरिए वीडियो चैट की दुनिया में भी अपनी मौजूदगी दर्ज करा लेते हैं।
महिलाओं का पीसीओ-
पड़ोस में रह रहीं कमला चावला वैसे तो मेरी मकानमालकिन की सहेली हैं पर आज जब वे बाहर खड़ी दिखीं तो उनसे पीसीओ के महत्व पर थोड़ी चर्चा हुई। वे बोलीं '' आज स्वतंत्रता दिवस पर पीसीओ कैद सा नज़र आता है। एक दौर था जब मैं अपनी ससुराल-मायका-सहेलियों से जुड़ने के लिए घर के पास बने पीसीओ पर जाया करती थीं। बाकी खर्चों से बचत कर पीसीओ का खर्चा जोड़ा करती थी''।
कहा भी जाता है कि महिलाएं बिना बोले-संवाद किए नहीं रह सकतीं। एक दौर में पीसीओ उन्हें उनके सगे-संबंधियों से सीधे जोड़ता था। छात्राओं से लेकर कामकाजी महिलाएं पीसीओ के सहारे अपनी जिंदगी के कई बड़े-छोटे कामों को अंजाम दिया करतीं थीं। कभी जो महिलाएं पीसीओ के दरवाजे बंद कर बिना किसी को पता लगे खुसफुसातीं थीं, आज मोबाइल फोन व स्मार्टफोन की क्रांति ने उनके हाथ में टैब-इंटरनेट की 'ग्लोबल-दुनिया' थमा दी है। आज वे सोशल मीडिया से लेकर अन्य प्लेटफॉर्म पर खुलकर संवाद करती हैं व अपने विचार बेबाकी से रखती हैं।
मजबूरियों का पीसीओ-
इन सभी दौर से गुजरता हुआ पीसीओ अब लगभग मजबूरी बन चुका है। रेलवे स्टेशन-बस स्टॉप के करीब खड़े पीसीओ के खोंपचे अब मजबूरी से पीडि़त ग्राहकों की प्यास बुझाते हैं। फोन खोने पर, बैटरी खत्म हो जाने पर, फोन ना लगने पर इनका इस्तेमाल कर लिया जाता है। आज पीसीओ और उनके मालिक दोनों ही इस 'आज़ाद' युग से नाराज हैं। बदलाव प्रकृति का नियम भले ही हो पर इस तरह बर्वादी का दस्तूर भी लिख सकता है, इसका अंदाजा किसी ने नहीं लगाया था।
चलते-चलते मैंने उन हर पीसीओ वालों से पूछा कि क्या मैं अपना भविष्य बनाने के लिए पीसीओ खोल लूं, तो सभी ने एक स्वर में इंकार कर दिया। यह उस दौर का इंकार है, जिसने आधुनिकता को अपनी मुट्ठी में दबोच लिया है। आज हम इतना आगे बढ़ जाना चाहते हैं कि यादें समेटना भी अब आलस सा लगता है। आज के स्वतंत्रता दिवस पर मैं क्यों ना कहूं कि ''आज़ाद हुआ देश, गुलाम हुए पीसीओ'। आप इसे भावनात्मक होकर ना लीजिएगा। यह मेरी आधुनिकता से चिढ़न नहीं, अभिव्यक्ति की प्यास है। उन पीसीओ वालों से क्षमा चाहता हूं, जिनके पास आज सुबह जाकर बिना ग्राहक की भूमिका निभाए वापस लौट आया।