नज़रिया: कहने को कुछ नहीं बचेगा, सिवाए कि हम सब देश प्रेमी हैं
राष्ट्रवाद के बढ़ते ज़ोर के बीच किस तरह का संकट बढ़ रहा है. इंडियन पोएट्री के प्रोफेसर रहे अरविंद कृष्ण मेहरोत्रा का आकलन.
एक मुल्क़ के तौर पर भारत इस वक्त एक अजीब दौर से गुज़र रहा है. अजीबपन को समझने के लिए समाज के कुछ मौजूदा बिंबों को देखना होगा.
एक ओर वह देश है जिसमें नरेंद्र मोदी और योगी आदित्यनाथ जैसे नेता हैं और उनके समर्थक हैं. सड़कों पर भगवा साफा पहने मोटरसाइकिल दौड़ाते युवा भी हैं. इन लोगों के दावों पर यक़ीन करें तो देश तेज़ रफ़्तार से आगे बढ़ रहा है.
लेकिन इसी देश में गाय की तस्वीर भी है. उसकी रक्षा करने वाले उन्मादी युवा भी हैं और गुजरात सरकार का वो क़ानून भी है जिसके बारे में कहा जा रहा है कि कोई गाय की हत्या करेगा तो जान से मार देंगे. हालांकि ये काफ़ी कुछ पाकिस्तान के ईश निंदा क़ानून जैसा ही है.
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भारतीय संस्कृति को मज़बूत किए जाने की बात भी हो रही है. राष्ट्रवाद के नाम पर दोस्त और दुश्मन बनाए जा रहे हैं. लोगों के बीच दीवारें खड़ी हो रही हैं. हर दिन नई चीजें हो रही हैं, तो ये लोग कल क्या सोचेंगे, क्या करेंगे, कोई भी अंदाजा नहीं लगा सकता.
कौन हैं जो डरे हुए हैं
ऐसे में एक तस्वीर डर की भी है, भय की. हमें भी लग रहा है, कुछ और लोगों को भी लग रहा होगा. क्योंकि एक लेखक के तौर पर हम कुछ कह नहीं सकते. किसी चीज़ की निंदा नहीं कर सकते. अब लगता है कि बस राष्ट्रवाद का झंडा लेकर, अपनी ज़िंदगी गुजारनी है.
ऐसा माहौल बनाया जा रहा है कि पूरा देश एक ही आवाज़ में बोले. आपने थोड़ी बहुत आलोचना की नहीं कि लोग आपके पीछे पड़ जाते हैं. ऐसे में जो भिन्नता है वो समाप्त हो जाएगी. लेकिन अहम सवाल ये है कि भिन्नता के सिवा इस देश में क्या है.
जैसे आज दुनिया भर के लोग आज अमरीका में बसते हैं, उसी तरह से बीते 2000 साल से दुनिया भर से लोग भारत में आए और बसते गए. अपनी अपनी संस्कृति के साथ भारत में समाहित होते गए.
14वीं शताब्दी में कोई अमरीका तो नहीं जा रहा था, 15वीं और 16वीं शताब्दी में भी पूरी दुनिया तो भारत की ओर ही आ रही थी. भारतीय संस्कृति की बात करने वाले, अगर दो हज़ार साल पहले खाकी पैंट और लाठी लेकर निकल गए होते तो भारत की संस्कृति यहां तक पहुंच ही नहीं पाती.
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लेकिन अब विविधता वाले इस देश का रंग बदलने की कोशिश हो रही है. विविधता, विचारों की होती है, अलग अलग दिशाओं में अलग अलग नज़रिए से सोचने को विविधता कहते हैं.
हज़ारों तरह की सोच
एकरूपता तो अपने अंदर की डर से पैदा होती है. जो लोग इसे बदलने की बात कर रहे हैं उन्हें तो समझ ही नहीं आएगा कि विविधता क्या होती है.
भारत की संस्कृति इतनी विविधता भरी और पुरानी है कि उसमें हज़ारों तरह की चीज़ें तो सोची जा चुकी हैं, कही जा चुकी हैं. प्राकृत का साहित्य है, 2000 साल पुराना गाथा सप्तशती. इसमें सात सौ गाथाएं हैं. उसमें एक गाथा है- मां अपनी बेटी को शादी होने के बाद कहती है, तुम जिस गांव में जा रही हो वहां कोई और आदमी नहीं मिलेगा तुम्हें अपने पति के साथ भी सोना पड़ेगा. ये दुख भी तुम्हें देखना है.
वो कौन सा समाज था जिसमें मांएं अपनी बेटी को इस तरह से उनका मन बहलाती थी. मां अपनी बेटी से कहती है- जहां तुम्हारा ब्याह होगा वहां भी तुम्हें दुति मिलेगी, वहां भी गोदावरी का तट होगा और वहां भी गन्ने का खेत होगा. तो शादी से बहुत नुकसान नहीं होगा. ऐसी गाथाएं सैकड़ों की संख्या में दो हज़ार साल पहले हमारे समाज में गाए गुनगुनाए जाते थे.
ये लोग संस्कृत पढ़ाने की बात करते हैं. पढ़ा पाएंगे ये लोग संस्कृत- प्राकृत. जिस देश में इस तरह की कविताएं-गाथाएं हैं, जिन्हें लोग सोच चुके हैं, सुन चुके हैं और तो और अभी तक कोई भूला भी नहीं है.
500 साल पहले आए कबीर को ही देखिए, वे तो हर समुदाय को गाली बकते थे. जब आप फ्री स्पीच की बात करते हैं, तो आप देखिए कबीर के जमाने में कैसी स्थिति थी.
विविधता के रंग
कबीर कह सकते थे- पंडित वाद, वैद्य सौ झूठा, राम कहे दुनिया गति पावे, खांड कहे मुख मीठा. खांड कहने से मुंह मीठा नहीं होता, राम का नाम लेने से आप तर नहीं जाएंगे. कबीर कह रहे हैं सब झूठा है और पांच सौ साल से लोग इसे गा रहे थे.
हमारी संस्कृति में किस तरह की स्वतंत्रता थी, इसका अंदाजा लगाना भी मुश्किल है.
कबीर का एक और पद्य देखिए- वो जो करता वरन विचारे, तो जनते तीन ही दांडकिन सारे, जो तू बांभन बांभनी आया, सो आन बाट हुई, काहे ना आया. जो तू तुर्क तुर्किनी आया, भीतरी ख़तना क्यों ना कराया.
इसका मतलब ये था कि अगर तुम ब्राह्मण हो तो तुम दुनिया में दूसरे रास्ते से क्यों ना आए, जिसने सृष्टि ने बनाई अगर उसे जाति को लेकर इतनी तकलीफ़ थी तो वो तुम्हारे माथे पर तीन दंडियां क्यों नहीं बनाईं. वो ये भी कह रहें कि अगर तुम तुर्क हो या मुसलमान हो तो तुम्हारा ख़तना पेट में ही क्यों ना हो गया.
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आप ऐसा नहीं कह सकते. भय इसी बात का है. कहने की सीमा सिमटती जा रही है. अब कहने को कुछ नहीं बचा रहेगा, सिवाए इसके कि हम सब देशप्रेमी हैं.
फ्री स्पीच का तो यही मतलब है कि आप को दूसरों की आलोचना करने, उसका विरोध करने का हक हो. आप किन्हीं की आलोचना कर सकें, आप किसी से असहमति जता सकें और ज़रूरी पड़ने पर किसी को ठेस पहुंचा सकें. लेकिन अब लेखकों से ये सब हक छीना जा रहा है. तब तो वो राष्ट्रीय गीत ही लिखेगा ना.
आशा का दौर नहीं
ऐसे ये सवाल तो बना ही रहेगा कि भारत की संस्कृति और साहित्य में जो रचा बसा है, उसका क्या होगा. क्या इन सब पर ताला डालकर ये लोग नए तरह की संस्कृति की बात कर रहे हैं जो ना तो संस्कृति हैं और ना ही भारतीय है.
इसलिए ये कोई आशा का दौर नहीं है. चीज़ें समाप्त हो रही हैं, ये चीज़ खटकती है.
लेखकों के साथ साथ पठन पाठन के केंद्र यूनिवर्सिटी पर बढ़ते संकट की बात हो रही है. लेकिन मैं इसको लेकर बहुत चिंतित नहीं हूं. क्योंकि अगर आप जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी की बात छोड़ दें, तो पहले से ही देश के तमाम यूनिवर्सिटी बदतर हालत में हैं.
40 साल तक तो मैंने ही इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में पढ़ाया है. 100 सालों से एक जैसी किताबें, एक ही ढर्रे पर पढ़ाई जाती रही हैं. प्रांतीय विश्वविद्यालयों का हाल तो सरकारी दफ़्तरों से गया गुजरा है. यूनिवर्सिटी को ये लोग ख़राब नहीं कर सकते हैं, क्योंकि वो उससे ज़्यादा ख़राब क्या किया जा सकता?
बावजूद इसके राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ ने अपनी कोशिशें शुरू कर दी हैं, उसका प्रभाव जवाहर लाल नेहरू यूनिवर्सिटी जैसी संस्थाओं पर दिखेगा. पिछले दिनों संघ ने देश भर के अकादमिक जगत के लोगों की बैठक बुलाई जिसमें 51 विश्वविद्यालयों के कुलपति भी शामिल हुए थे.
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बैठक का उद्देश्य एजुकेशन सिस्टम में राष्ट्रीयता के बोध को मज़बूती देना है. यानी अब संघ के निर्देश पर पाठ्यक्रम को ढालने की, तैयार करने की कोशिश होगी. लेकिन इससे बहुत नुकसान नहीं होगा क्योंकि आज कल विश्वविद्यालय अध्ययन के केंद्र नहीं रह गए हैं.
उम्मीद की वजह कहां है
जिस तरह से पिछले कुछ सालों में धारा के विरुद्ध युवा सामने आते रहे हैं, उस तरह की उम्मीद तो हमेशा ही रहेगी. क्योंकि उनकी चेतना विश्वविद्यालयों में तैयार नहीं होती.
उम्मीद की वजह इसलिए भी है क्योंकि भारत में लोकतंत्र है. पांच साल बाद आप सरकारों को बदल सकते हैं. लेकिन इसके लिए विकल्प का होना बहुत ज़रूरी है. क्योंकि एक परिवार के भरोसे कांग्रेस तो विकल्प नहीं बन सकता.
मुगलों के जमाने में भी एक वंश की पांच छह पीढ़ियां शासन करती थीं, वो भी तब जब एक राजा की कई पत्नियां हुआ करती थीं और कई बच्चे. लेकिन तब भी पांच छह पीढ़ी में वंश का शासन ख़त्म हो जाता था. एक परिवार की पांचवीं पीढ़ी आ गई है, लेकिन कांग्रेस परिवार के साए से बाहर नहीं निकल पा रही है.
अगले तीन चार साल में विकल्प नहीं उभर कर सामने आता है तो हालात बदलने की उम्मीद नहीं बनेगी. फिलहाल राजनीतिक तौर पर अभी तो कोई विकल्प दिख नहीं रहा है.
संकट को ना पहचान पाने का दौर
हालांकि ऐसे संकट के दौर में भारत के आम लोग एकजुट हो कर सड़कों पर उतरते रहे हैं. लेकिन ख़ास बात ये है कि आम लोगों को संकट महसूस नहीं हो रहा है.
नोटबंदी से बड़ा क्या संकट होगा, आम लोगों के लिए. लेकिन लोग चुपचाप क़तार में लग कर झेलते गए. जबकि किसी अमीर को कोई नुकसान नहीं हुआ है. गरीब इस बात में भी ख़ुश रहे कि अमीरों को नुकसान होगा.
जिस एक क़दम से आर्थिक विकास का पहिया थम गया, लोगों की रोजमर्रा की मुश्किलें बढ़ गईं लेकिन इससे नरेंद्र मोदी की लोकप्रियता भी बढ़ी.
क्योंकि ये देश अपने आप में इतना मंत्र मुग्ध है कि इसमें क्या उम्मीद की जा सकती है?
लोग अपनी तस्वीर लेने के लिए पागल हुए जा रहे हैं, सेल्फ़ी ले रहे हैं. अधिकांश लोग अपने आप से प्रसन्न हैं. खोखला दिमाग और अपना चेहरा लेकर घूम रहे हैं.
ऐसे लोगों को ना तो संकट नज़र आ रहा है और ना ही आसपास गहराते संकट का उन्हें अंदाजा भी है. लेकिन ये पूरा हिंदुस्तान तो नहीं है, हो भी नहीं सकता.
( ये लेखक के निजी विचार हैं.)