अब 11 सीटों के बहाने मायावती की 2022 पर नजर
नई दिल्ली। अब न पूछो जात-वात, तुम डाल डाल तो हम पात पात। ये हमारा वोटर वो तुम्हारा वोटर, इसी तर्ज पर उत्तर प्रदेश के पिटे हुए मोहरों के बीच असली खेल तो अब शुरू हुआ है। केंद्र की सत्ता तो पांच साल के लिए गई, अब आस है 2022 में होने वाले विधान सभा चुनाव से। लोकसभा चुनाव में गठबंधन पिटा, कांग्रेस पिटी, सभी छिटके हुए छुटभैये दल भी पिटे। अब बसपा 11 विधान सभा सीटों पर होने वाले उपचुनाव को अकेले लड़ कर अपने दम ख़म को परखेगी। मायावती को लगता है कि पार्टी कैडर उनके साथ एकजुट है। उनको उम्मीद है कि लोकसभा चुनाव की तरह विधानसभा उपचुनाव में भी मुस्लिम वोटर सपा के बजाय बसपा का साथ देंगे। सपा भी विधानसभा उपचुनाव की सभी 11 सीटों पर अपने प्रत्याशी उतारने की बात कर चुकी है। उपचुनाव के नतीजों से इस बात के भी संकेत मिल जायेंगे कि मतदाता क्या चाहते हैं।
जीत मिले या हार, सौदा घाटे का न हो
मायावती कुछ भी कहें लेकिन असलियत यह है कि लोकसभा चुनाव में सपा के साथ से असली फायदा बसपा को ही हुआ है। उत्तर प्रदेश में चुनाव नतीजों पर नजर डालें तो पांच छह सीटे ऐसी हैं जहाँ सपा की वजह से बसपा ने जीत हासिल की। मायावती अगर चाहती तो उपचुनावों तक गठबंधन बनाये रख सकतीं थीं। उपचुनावों के नतीजों की समीक्षा के बाद वह गठबंधन पर जारी रखने पर विचार कर सकती थीं। लेकिन मायावती को 11 सीटों के छोटे लक्ष्य के बजाय प्रदेश की 403 विधान सभा सीटों का बड़ा लक्ष्य नजर आ रहा है। यहाँ तक कि मायावती ने सपा की मदद से राज्यसभा में अपना एक सदस्य पहुंचाने के मौंके की भी परवाह नहीं की। वर्तमान में उत्तर प्रदेश विधान सभा में सपा के 47 और बसपा के 19 सदस्य हैं। राज्यसभा में चुने जाने के लिए एक प्रत्याशी को 37 विधायकों के समर्थन की जरूरत है। अगर गठबंधन बना रहता तो सपा के सरप्लस वोट का लाभ मायावती को मिलता। बसपा के 19 और सपा के सरप्लस 10 मिला कर 29 वोट हो जाते। ऐसे में उपचुनाव में अगर 11 में से 8 सीटें मिल जातीं हैं तो बसपा के एक सदस्य का राज्यसभा पहुंचना सुनिश्चित हो जायेगा। लेकिन 2017 के विधान सभा चुनाव में सिर्फ जलालपुर सीट बसपा ने जीती थी।
ये भी पढ़ें: मुलायम की सलाह मान लेते अखिलेश तो नहीं होता 'ब्लास्ट'
मायावती तो दोनों हाथों में लड्डू चाहतीं हैं
अगर बसपा उपचुनावों में बेहतर प्रदर्शन नहीं करती तो सम्भव है मायावती राजनीतिक रिश्ता कायम करने के लिए फिर सपा की ओर दोस्ती का हाथ बढ़ाएं। लेकिन ऐसा करना सपा के लिए आत्मघाती हो सकता है। पहले ही समाजवादी पार्टी के बड़े बुजुर्ग बसपा से दोस्ती के पक्षधर नहीं थे। गठबंधन की शुरुआत से ही जिस तरह अखिलेश यादव मायावती के सामने दबे दबे से नजर आये उससे सपा का परम्परागत वोटर भी नाराज हो गया। कन्नौज, फिरोजाबाद और बदायूं की हार इसी का परिणाम है।
राजनितिक जानकारों की मानें तो प्रदेश में हर बड़ा चुनाव बसपा के लिए समृद्धि लाता है। पार्टी प्रत्यशियों के चंदे से पार्टी कोष मजबूत होता है। गठबंधन से चंदे में भारी कमी हो जाती है। अकेले चुनाव लड़ने से जीत सुनिश्चित हो न हो लेकिन चंदे से तय आमदनी सुनिश्चित हो जाती है। इस वजह से भी मायावती अब अकेले चुनाव लड़ने की बात कर रहीं हैं।
ग़लतफ़हमी में हैं मायावती
वैसे मायावती को अब भी लगता है कि पार्टी का कोर कैडर अक्षुण्ण है तो यह उनकी गलतफहमी है। बसपा के कोर कैडर को धीरे धीरे समझ आने लगा है कि दबे कुचले बहुजन समाज को सम्मान दिलाने के नाम पर पार्टी जरूर समृद्ध हुई है लेकिन आम लोगों के जीवन में कोई बदलाव नहीं आया है। यह नाराजगी समय समय पर सोशल मिडिया पर प्रगट हो रही है। यही कारण है कि अखिलेश यादव भी अब जनता के बीच जमीनी स्तर पर काम करने पर जोर दे रहे हैं। दूसरी तरफ बीजेपी लगातार समाज के सबसे निचले स्तर पर जनता की जरूरतों और समस्याओं को समझ कर काम कर रही है। खास बात है कि सरकारी योजनाओं का लाभ केवल कागजों पर न रह जाये इसकी कड़ी निगरानी भी की जा रही है। इसका सीधा असर लोकसभा चुनाव में देखने को मिला।
रही 11 विधानसभा सीटों पर उपचुनाव की बात तो बसपा और सपा को यह नही भूलना चाहिए कि इनमे से अधिकांश पर 2017 के विधानसभा चुनाव में बीजेपी काफी मजबूत स्थिति में थी।
एक नजर उपचुनाव वाली सीटों पर
-गोविंदनगर (कानपुर) से भाजपा के सत्य देव पचौरी ने 2017 विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के अम्बुज शुक्ल को 71,509 मतों के अन्तर से हराया था। बसपा यहाँ तीसरे नंबर पर थी। पचौरी अब कानपुर से सांसद चुने गए हैं।
-टूंडला (फिरोजाबाद ) से बीजेपी के डॉ. सत्यपाल सिंह बघेल ने 2017 विधान सभा चुनाव में बसपा के राकेश बाबू को 56 हजार से अधिक मतों से हराया था। डॉ. सत्यपाल सिंह बघेल अब आगरा से सांसद हैं।
-लखनऊ कैंट से रीता बहुगुणा जोशी ने 2017 विधान सभा चुनाव में सपा की अपर्णा यादव को 33 हजार से अधिक वोटों से हराया। बसपा के योगेश दीक्षित तीसरे स्थान पर रहे थे।
-जैदपुर (बाराबंकी ) से बीजेपी के उपेंद्र सिंह रावत ने 2017 विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के तनुज पुनिया को 29 हजार से अधिक मतों से हराया। बसपा की कुमारी मीता गौतम यहाँ तीसरे स्थान पर थीं। उपेन्द्र रावत अब बाराबंकी से सांसद हैं।
-मानिकपुर (चित्रकूट ) से बीजेपी के आरके सिंह पटेल ने 2017 विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के संतपाल को 44 हजार से अधिक वोटों से हराया था। बसपा के चन्द्रभान सिंह पटेल तीसरे स्थान पर रहे थे। आरके सिंह पटेल अब बांदा से विधायक हैं।
-बलहा (बहराइच) से बीजेपी के अक्षयवर लाल गौड़ ने 2017 विधान सभा चुनाव में बसपा के किरण भारती को 46 ह्जार से अधिक मतों से हराया था। अक्षयवर लाल गौड़ अब बलहा से सांसद हैं।
-गंगोह (सहारनपुर) से बीजेपी के प्रदीप चौधरी ने 2017 विधान सभा चुनाव में कांग्रेस के नोमान मसूद को 38 से अधिक मतों से हराया था। सपा के यहाँ इन्दर सेन तीसरे और बसपा के महिपाल सिंह माजरा चौथे नंबर पर थे। प्रदीप चौधरी अब कैराना से सांसद हैं।
-इगलास (अलीगढ ) से बीजेपी के राजवीर ने 2017 विधान सभा चुनाव में बसपा के राजेंद्र कुमार को 74 हजार से अधिक मतों से हराया था।
राजवीर अब हाथरस से सांसद हैं।
-प्रतापगढ़ विधान सभा सीट से अपना दल के संगम लाल गुप्त ने 2017 विधान सभा चुनाव सपा को 34 हजार से अधिक मतों से हराया। बसपा के अशोक त्रिपाठी तीसरे नंबर पर थे। संगम लाल गुप्त अब प्रतापगढ़ से सांसद हैं।
-रामपुर से सपा के आजम खान ने 2017 विधान सभा चुनाव में बीजेपी के शिवबहादुर सक्सेना को 46 से अधिक वोटों से हराया था। बसपा यहाँ तीसरे नंबर पर थी। अजम खान अब रामपुर से ही सांसद हैं।
-जलालपुर (अम्बेडकरनगर) से बसपा के रितेश पाण्डेय ने 2017 विधान सभा चुनाव में बीजेपी के राजेश सिंह को 13 हजार से अधिक वोटों से हराया था। रितेश पाण्डेय अब अम्बेडकरनगर से सांसद हैं।
बसपा इन 11 विधानसभा सीटों पर सिर्फ जलालपुर में ही मजबूत रही है। अब बाकी विधान सभा सीट मायावती किस फार्मूले से जीतेंगी यह तो वही बता सकती हैं।