एक लालू के लाल, एक नीतीश के लाल- कितने वंशवादी रहे बिहार के अब तक के मुख्यमंत्री?
नई दिल्ली। नीतीश कुमार और लालू यादव बिहार में राजनीति के दो मजबूत स्तंभ हैं। दोनों मुख्यमंत्री बने। दोनों केन्द्र में रेल मंत्री बने। दोनों अपनी-अपनी पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं। लेकिन इन समानताओं के बावजूद दोनों की राजीनितक शैली अलग-अलग है। नीतीश कुमार मूल्यपरक राजनीति के हिमायती हैं। उनके पुत्र निशांत कुमार भी इंजीनियर हैं। वे राजनीति से दूर रहते हैं। कभी किसी विवाद में नहीं रहते। दूसरी तरफ लालू प्रसाद की राजनीति वंशवाद का प्रतीक है। उन्होंने अपनी पत्नी को मुख्यमंत्री बनवाया था। दो पुत्रों को विधायक बनाया। बड़ी पुत्री राज्यसभा सांसद हैं। दो साले सांसद रह चुके हैं। यानी लालू यादव ने अपने पद के प्रभाव से परिजनों को थोक भाव में फायदा पहुंचाया। लालू प्रसाद के पुत्र तेज प्रताप और तेजस्वी यादव अक्सर विवादों में रहते हैं। यानी नीतीश और लालू बिहार में दो अलग किस्म की राजनीति का प्रतिनिधित्व करते हैं। बिहार में अब जो मुख्यमंत्री हुए, वंशवाद पर उनका नजरिया अलग- अलग रहा।
वैसे मुख्यमंत्री जो वंशवाद से दूर रहे
बिहार में अब के मुख्यमंत्रियों तब और अब की राजनीति में बहुत फर्क आ गया है। पहले के अधिकतर नेता मूल्यपरक राजनीति करते थे। अपनी संतान को राजनीति में लाना ठीक नहीं समझते थे। बिहार के प्रथम मुख्यमंत्री श्रीकृष्ण सिंह जब तक जिंदा रहे अपने पुत्रों को राजनीति में नहीं आने दिया। श्रीकृष्ण सिंह के निधन के बहुत बाद कांग्रेस पार्टी ने उनके पुत्र शिवशंकर को जिताऊ उम्मीदवार समझ कर टिकट दिया था। वे विधायक बने। उनके छोटे पु्त्र बंदीशंकर सिंह बहुत बाद में विधायक हुए और मंत्री भी बने। इसी तरह कर्पूरी ठाकुर जब तक जिंदा रहे अपने पुत्रों को राजनीति से दूर रखा। उनके निधन के बाद ही पुत्र रामनाथ ठाकुर राजनीति में आ सके। वे विधायक और बिहार सरकार में मंत्री रहे। राज्यसभा सांसद भी चुने गये। बिहार के एक मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री के परिजन तो आज भी गरीबी में जीवन जी रहे हैं। वे तीन बार बिहार के मुख्यमंत्री रहे थे। उन्होंने न तो खुद पैसा कमाया और न ही परिजनों को किसी तरह का फायदा पहुंचाया। दीपनारायण सिंह भी बिहार के कार्यवाहक मुख्यमंत्री बने थे लेकिन उन्होंने वंशवाद को बढ़ावा नहीं दिया।
कांग्रेस में वंशवादी मुख्यमंत्रियों की लंबी फेहरिस्त
विनोदानंद झा बिहार के दूसरे मुख्यमंत्री थे। उनके पुत्र कृष्णानंद झा बिहार सरकार में मंत्री रहे थे। कांग्रेस के नेता दारोगा प्रसाद राय 1970 में बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। उनके पुत्र चंद्रिका प्रसाद राय 1985 में पहली बार कांग्रेस से विधायक बन गये थे। चंद्रिका राय अभी भी विधायक हैं और लालू यादव के समधी हैं। कांग्रेस के चार मुख्यमंत्रियों केदार पांडेय, जगन्नाथ मिश्र, भागवत झा आजाद और सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के पुत्र राजनीति में आये और सांसद- विधायक बने। केदार पांडेय के पु्त्र मनोज पांडेय लोकसभा का सदस्य चुने गये थे। सत्येन्द्र नारायण सिन्हा के पु्त्र निखिल कुमार जब पुलिस सेवा से रिटायर हो गये तो राजनीति में आ गये। उनकी पत्नी भी सांसद रहीं। वे भी औरंगाबाद से सांसद चुने गये थे। राज्यपाल भी रहे। जगन्नाथ मिश्र के पुत्र नीतीश मिश्रा भी विधायक और मंत्री रहे। भागवत झा आजाद के पु्त्र कीर्ति आजाद अभी सांसद हैं। कांग्रेस के नेता अब्दुल गफूर जब बिहार में मुख्यमंत्री थे उसी समय जेपी आंदेलन शुरू हुआ था। उनके पुत्र विधायक रहे थे।
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गैरकांग्रेसी मुख्यमंत्री भी वंशवाद का शिकार
सोशलिस्ट पार्टी के नेता सतीश प्रसाद सिंह 1968 में तीन दिनों के लिए मुख्यमंत्री बने थे। बाद में उनकी पुत्री सुचित्रा सिन्हा विधायक और मंत्री बनीं। उनके पति नागमणि भी पूर्व केन्द्रीय मंत्री रहे हैं। वी पी मंडल भी कुछ दिनों के लिए बिहार के मुख्यमंत्री बने थे। बाद में उनके ही नेतृत्व में आरक्षण के लिए मंडल कमिशन बना था। उनके पुत्र मणीन्द्र कुमार मंडल कुछ समय तक राजनीति में रहे थे। वे पांच साल तक जदयू के विधायक रहे। 1990 में जब लालू यादव बिहार के मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने अपने परिजनों के जम कर सियासी रेवड़ियां बांटीं। अब तो राजनीति उत्तराधिकार के लिए उनके परिवार में लड़ाई छिड़ गयी है। जब नीतीश कुमार ने जीतन राम मांझी को 2014 में मुख्यमंत्री बनाया था तो उनमें भी राजनीतिक महत्वाकांक्षा जग गयी थी। अपने पुत्र को राजनीति में लाने की हर मुमकिन कोशिश की। जब एनडीए में बात नहीं बनी तो वे महागठबंधन में आ गये। जब राजद ने जीतन राम मांझी पुत्र संतोष मांझी के बिहार विधान परिषद का सदस्य बना दिया तब जा कर वे चैन से बैठे।