किस फॉर्मूले के दम पर नीतीश कर रहे हैं 200 सीट जीतने का दावा?
पटना।
एनडीए
की
ताकत
से
मुतमइन
नीतीश
कुमार
ने
बिहार
चुनाव
में
200
सीटों
पर
जीत
का
दावा
किया
है।
राजद
और
प्रशांत
किशोर
ने
नीतीश
के
इस
दावे
पर
कटाक्ष
तो
किये
हैं
लेकिन
यह
नामुमकिन
नहीं
है।
2010
के
विधानसभा
चुनाव
में
नीतीश
ने
भाजपा
के
साथ
मिलकर
206
सीटें
जीती
थीं।
नीतीश
और
भाजपा
जब
मिल
कर
चुनाव
लड़ते
हैं
तो
एक
दूसरे
का
वोट
ट्रांसफर
करने
का
प्रतिशत
सर्वाधिक
होता
है।
भाजपा
और
जदयू
का
आधार
मत
भी
अन्य
गठबंधनों
से
अधिक
है।
पिछले
तीन
चुनावों
के
मतदान
आचरण
से
यह
साबित
हो
चुका
है।
नीतीश
को
अगर
200
सीट
जीतने
का
आत्मविश्वास
है
तो
इसकी
एक
और
वजह
है।
2019
के
लोकसभा
चुनाव
में
भाजपा,
जदयू
और
लोजपा
को
कुल
223
विधानसभा
क्षेत्रों
में
बढ़त
मिली
थी।
नीतीश
ने
अल्पसंख्यक
और
अतिपिछड़े
मतदाताओं
को
अपने
पाले
में
कर
बहुत
बड़ी
कामयाबी
पायी
थी।
नीतीश
कुमार
को
अपने
काम,
सामाजिक
समीकरण
और
भाजपा
से
मेल
पर
इतना
यकीन
है
कि
वे
विधानसभा
चुनाव
में
बड़ी
जीत
का
दावा
करने
लगे
हैं।
2019 में NDA को 223 असेम्बली सीटों पर बढ़त
2019 के लोकसभा चुनाव में एनडीए को 223 विधानसभा क्षेत्रों में बढ़त मिली थी। भाजपा को 96, जदयू को 92 और लोजपा को 35 असेम्बली सीटों पर बढ़त प्राप्त हुई थी। बिहार के चुनावी इतिहास में एनडीए का यह उच्चतम प्रदर्शन था। कोई दल या गठबंधन बिहार में आज तक ऐसा नहीं कर पाया है। 2019 में राजद को केवल 9 विधानसभा क्षेत्रों में ही बढ़त हासिल हुई थी। कांग्रेस को 5 तो रालोसपा और हम को एक-एक सीट पर बढ़त मिली थी। यह सही है कि विधानसभा चुनाव के मुद्दे और वोटिंग पैटर्न लोकसभा चुनाव से बिल्कुल अलग होते हैं। लेकिन इस भी सच है कि पिछले कुछ समय में भाजपा और जदयू ने कमिटेड वोटर तैयार किये हैं। नीतीश के विरोधी उनकी घनघोर आलोचना करते हैं लेकिन यह भी मानते हैं कि बिहार में वही सबसे बड़ा चुनावी चेहरा हैं। ऐसा क्यों ? जाहिर है नीतीश ने कुछ कर के ही जनता के बीच ये छवि बनायी है। राजद के माई समीकरण में बिखराव से नीतीश का काम आसान हो गया है। यादवों के गढ़ मधेपुरा में राजद की हार तो हुई ही मुस्लिम बहुल भागलपुर की जीती हुई सीट भी वह जदयू के हाथों गंवा बैठा। बिहार में मुद्दों से अधिक सामाजिक समीकरण का महत्व है। वोट प्रतिशत के हिसाब से एनडीए का पलड़ा भारी दिख रहा है।
उपचुनाव में हार कर भी जीतते हैं नीतीश
अक्टूबर 2019 में बिहार विधानसभा की पांच सीटों पर उपचुनाव हुए थे। इस चुनाव में भाजपा और जदयू का प्रदर्शन अच्छा नहीं रहा था। राजद को दो और जदयू को एक सीट मिली थी। एक सीट ओवैसी की पार्टी को और एक सीट निर्दलीय को मिली थी। राजद ने बेलहर और सिमरी बख्तियारपुर की सीट जदयू से छीन ली थी। जदयू ने चार सीटों पर उम्मीदवार उतारे थे जिसमें से तीन पर उसकी हार हुई थी। तब यह कहा जाने लगा कि अब नीतीश अपनी चमक खो रहे हैं। उपचुनाव में हार को नीतीश की हार बताया जाने लगा। लेकिन इन नतीजों से बेपरवाह नीतीश ने कहा था कि उपचुनाव हार से डरने की जरूरत नहीं। जब उपचुनावों में हार होती है तब जनता विधानसभा चुनाव में मुझे भरपूर समर्थन करती है। 2009 के लोकसभा चुनाव के चार महीने के अंदर बिहार विधानसभा की 18 सीटों पर उपचुनाव हुए थे। उस समय भी नीतीश के नेतृत्व में भाजपा और जदयू की सरकार थी। इन उपचुनावों में जदयू और भाजपा की करारी हार हुई थी। 18 में जदयू को 4 और भाजपा को केवल 2 सीट ही मिल पायी थी। जब कि राजद-लोजपा गठबंधन ने सबसे अधिक 8 सीटें जीती थीं। कांग्रेस को 2 तो बसपा और निर्दलीय को एक-एक सीट मिली थी। विरोधी खेमे में 12 सीटें जाने के बाद उस समय भी नीतीश पर सवाल उठाया गया था। लेकिन एक साल बाद जब 2010 में विधानसभा के चुनाव हुए तो नीतीश और भाजपा ने मिल कर 206 सीटें जीतने का रिकॉर्ड बना दिया। राजद 22 पर सिमट गया था जो कि उसका सबसे शर्मनाक प्रदर्शन था। इसलिए उपचुनावों में हार के आधार पर नीतीश को चुका हुआ चौहान नहीं कहा जा सकता। 2019 के उपचुनावों के बाद नीतीश ने इसी बिना पर कहा था कि इन नतीजों से डरने की जरूरत नहीं है।
चुनाव से पहले शंका निवारण
पिछले डेढ़ साल के दौरान नीतीश की भाजपा से कई बार खटपट हुई। कई बार तनातनी ऐसी हुई कि मामला आर-पार का लगने लगा। इससे भाजपा और जदयू के कार्यकर्ता असमंजस में पड़ गये थे। उनका एक दूसरे के प्रति भरोसा कम हो रहा था। इस बीच तेजस्वी-नीतीश की मुलाकात ने अटकलों का बाजार गर्म कर दिया था जिससे जदयू के कार्यकर्ता बिल्कुल भ्रमित हो गये थे। वे तय नहीं कर पा रहे थे कि उनकी लड़ाई किससे है। भाजपा से कि राजद से। बात बिगड़ती कि इससे पहले ही नीतीश ने सभी शंकाओं का निवारण कर दिया। उन्होंने कार्यकर्ताओं के सामने ताल ठोक कर ऐलान कर दिया कि कहीं कोई समीकरण (राजद) नहीं बन रहा। हम भाजपा के साथ हैं और एक बार फिर बड़ी जीत हासिल करेंगे। नीतीश की इस पहल से भाजपा और जदयू में वह भरोसा पैदा हुआ है जैसा कि 2010 के समय था। इस भरोसे ने ही जीत के लिए आत्मविश्वास पैदा किया है।
2003 में बिहार को विशेष दर्जा ना मिल पाने के लिए नीतीश हैं जिम्मेदार?