क्या इन सवालों के जवाब हासिल कर नीति आयोग के लेटरल एंट्री प्रस्ताव को मानेगी सरकार?
क्या नीति आयोग के लेटरल एंट्री प्रस्ताव को मानेगी सरकार?
एक वक्त था जब मैं भारतीय प्रशासनिक सेवा के तहत अधिकारी बनने की सोचता था। ग्रेजुएशन के दौर में जो क्रेज होता है वही मेरे सिर चढ़ कर साल 2014 के मध्य तक बोला। साल 2014 में ही मैं दिल्ली आया और फिर पत्रकारिता की पढ़ाई शुरू करने के बाद ये क्रेज खत्म हो गया। हालांकि अब भी लाखों युवा हैं, जिनका सपना है कि वो आईएएस अधिकारी बन कर देश की सेवा करें। तमाम लोग कर भी रहे हैं। मैंने उन दो शहरों में पढ़ाई की है, जहां सबसे ज्यादा UPSC अस्पाइरन्ट मौजूद हैं। पहला इलाहाबाद, दूसरा दिल्ली। CSAT लागू होने से पहले UPSC के रिजल्ट में हिन्दी पट्टी, खास तौर से इलाहाबाद का दबदबा रहता था। ऐसे में वहां रह कर इस क्रेज का सिर चढ़ना लाजिम था। दिल्ली आया तो था पत्रकारिता की पढ़ाई करने के लिए, लेकिन UPSC का क्रेज कहीं ना कहीं बरकार था। लेकिन वक्त रहते वो भी खत्म हो गया। अच्छा हुआ जो क्रेज खत्म हो गया। जब दिल्ली आया था तो उस वक्त यहां के मुखर्जी नगर के प्रतियोगी छात्र सिविल परीक्षा में हिन्दी के मुद्दे पर पुलिस और सरकार से दो-दो हाथ कर रहे थे। वो भी उस समय जब खुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, हिन्दी को देश के माथे की बिन्दी बनाने को बहुत ही उत्सुक थे। अब क्या हाल है वही जानें।
खैर, अब जो लोग UPSC अस्पाइरन्ट हैं, उन्हें अपने अस्पाइरन्ट होने पर रश्क हो सकता है। रश्क इसलिए क्योंकि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार को नीति आयोग ने सलाह दी है कि निजी क्षेत्र से 'लेटरल एंट्री' के जरिए सभी स्तरों पर सिविल सेवाओं में उप सचिव को लाया जाए। इतना ही नहीं खबर यह भी है कि प्रधानमंत्री कार्यालय इस पर 'गंभीरता' से विचार भी कर रहा है। शायद ही इसी के तहत बीते दिनों नौकरशाही में बड़ा बदलाव करते हुए केंद्र सरकार ने कई पदों पर 'विशेषज्ञों' को बिठाया गया। संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की बीती सरकार में या कांग्रेस के करीब 58-60 साल की सरकार में भी कई ऐसे लोग 'बैक डोर' से अफसरों के ऊपर लाए गए। सैम पित्रोदा, नंदन नीलकेणी समेत कई नाम हैं, जो तमाम बदलावों के नाम पर सरकार में नौकरशाही के ऊपर लाए गए और जिनकी करीबी सत्ता, उससे संबंधित दल से बखूबी नजर आती रही और अभी भी आ रही है। यह बात दीगर है कि पहले UPSC साल में करीब हजार से 1100 लोगों का चयन होता है उसमें से कम से कम 150 लोग IAS काडर में चुने जाते हैं। उनकी ट्रेनिंग होती है। तमाम देशों की कार्यविधि समझाने के लिए उन्हें कई देशों का टूर कराए जाते हैं और फिर वही ढांक के तीन पात। जब एक UPSC क्वालिफाइड अफसर के ऊपर नॉन UPSC क्वालिफाइड को बिठा ही दिया जाएगा तो फिर जैसे सरकार ने योजना आयोग खत्म कर दिया। UGC NET की परीक्षा को साल में 1 बार कराने का निर्णय लिया, UGC और AICTE को खत्म कर 'हीरा (HEERA)' लाया जाएगा, तो बेहतर है कि UPSC को भी भंग कर दिया जाए।
नीति आयोग के इस प्रस्ताव के समर्थक तमाम लोगों को इस बात से आपत्ति हो सकती है कि ऐसी योजना का विरोध क्यों किया जा रहा है जिससे देश का 'भला' हो सकता है। लोग कहते हैं कि अगर किसी विषय का विशेषज्ञ या उसी स्तर का ज्ञानी शख्स कुर्सी पर बैठेगा तो वो चीजों को समझेगा और अच्छी तरह से काम कर सकेगा। अगर थोड़ी देर के लिए इस प्रस्ताव के समर्थक लोगों की बात मान ली जाए फिर तो कृषि मंत्री को हल/ ट्रैक्टर या खेती में उपयोग किए जाने वाले हर प्रक्रिया का अनुभव होना चाहिए। गृह मंत्री को या तो कम से कम 3-5 साल तक सीमा पर बिताना होगा या वो कभी तीनों में से किसी भी सेना का हिस्सा रहा हो। अगर प्रधानमंत्री कार्यालय 'लेटरल एंट्री' के इस प्रस्ताव पर 'गंभीरता' से विचार कर इसे लागू कर देता है तो देश में निश्चित रूप से एक प्राइवेट फर्म बन जाएगा। प्रधानमंत्री कार्यालय को इस विषय पर 'गंभीरता' से विचार करने के दौरान यह भी पता लगाना चाहिए कि जितने भी लोग बैक डोर से नौकरशाही के ऊपर लाए गए, उनका कार्यकाल कैसा रहा? उन्हें जिस विषय में 'विशेषज्ञ' होने के नाते से पद पर बिठाया गया, कैबिनेट स्तर की रैंक दी गई, क्या वो अपने विषय की 'विशेषज्ञता' को साबित करने में सफल हो पाए।
एक ओर जहां सरकार और खुद भारतीय जनता पार्टी वंशवाद के साथ-साथ उसकी दिक्कतों पर बात करती है, ऐसे में इस बात की क्या गारंटी है कि जो कथित 'विशेषज्ञ' चुनकर नौकरशाही के ऊपर बिठाए जाएंगे क्या वो इन सब रास्तों से चुनकर नहीं आएंगे? साल 1950 से लेकर अब तक शायद ही कोई ऐसा विश्वविद्यालय या डिग्री कॉलेज हो जहां सत्ता ने अपनी विचारधारा के लोगों को 'इंजेक्ट' ना किया हो। आज भी यही जारी है। जहां तक मुझे याद है वस्तु एवं सेवा कर को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा काम हो जहां 'मीडीओकर' से उपर उठकर काम किया गया हो जो सार्वजनिक हित में हो। ऐसे समय में जब सरकार बदल जाने पर मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री अपने पसंद के ब्यूरोक्रेट्स की नियुक्ति करते हैं। अब तो यह आरोप भी लगने लगे हैं कि मुख्यमंत्री का जिस जाति/ धर्म से संबंध होता है वो उसी जाति/ धर्म के लोगों को जिलाधिकारी या किसी भी अन्य वरिष्ठ पद के लिए नियुक्ति में प्राथमिकता देते हैं। ऐसे में यह कैसे मान लिया जाए कि सरकार जिस 'गंभीरता' से विशेषज्ञों को लाने की 'विशेष' कवायद करने की ओर कदम बढ़ा रही है वो सफल होगा ही?
अगर लेटरल एंट्री का यह सिस्टम एक नियम बन गया तो फिर UPSC क्वालिफाइड लोगों पर ही सवाल खड़ा हो जाएगा? ऐसा तो है नहीं कि सिर्फ इतिहास, भूगोल, समाजशास्त्र पढ़ने वाले ही अब आईएएस बन रहे हैं। अब तो खबरें यह भी आती हैं कि फलाना आदमी IIT या IIM से पढ़ाई करने के बाद करोड़ों के पैकेज को ठुकरा कर 'देश सेवा' करने के लिए UPSC क्वालिफाई कर IAS बन गया। क्या ऐसे लोगों का उपयोग सरकार नहीं कर सकती? क्या ऐसे लोग जो IIT,IIM में पढ़ाई कर फिर UPSC क्वालिफाई करते हैं क्या उनकी योग्यता खत्म हो गई? क्या ऐसे लोग जो 'देश सेवा' के नाम पर करोड़ों का पैकेज 'ठुकरा' कर IAS अफसर बने हैं उन्हें सरकार ने सिर्फ विधायकों, सांसदों और पार्षदों को सलामी दिलाने के लिए ही तैनात किया है?
एक आंकड़े पर गौर करें तो साल 2017 के UPSC के टॉप 20 में 19 चुने गए लोग इंजीनियर हैं और 1 डॉक्टर। UPSC की ओर से जारी किए गए साल 2017 के परिणाम में करीब 264 लोग बतौर IAS रैंक चुने गए। उनमें से 118 लोग इंजनीयरिंग, डॉक्टर, समेत कई अन्य प्रोफेशनल कोर्स कर चुके लोग हैं जिन्होंने परीक्षा को क्वालिफाई किया। क्या सरकार ऐसे चुने गए IAS लोगों को नॉन UPSC क्वालिफाइड से कमतर समझना शुरू कर देगी? साल 1947 से लेकर अब तक की ऐसी कोई भी सरकार वो चाहे राज्य में रही हो या केंद्र में, उस पर यह आरोप हमेशा से लगते रहे हैं कि वो उद्योगपतियों का ही भला चाहती है। ऐसे में इस बात की क्या गारंटी है कि जो लोग प्राइवेट संस्थानों से बतौर 'विशेषज्ञ' लाए जाएंगे वो ऐसा कोई काम नहीं करेंगे जिससे सरकार पर यह आरोप ना लगे कि वो बाजारवादी नहीं है?
हमें बीकॉम में पढ़ाया गया था कि Right Person at the Right Place at the Right Time (सही समय और सही जगह पर सही व्यक्ति)। संभावना है कि नीति आयोग अपने इस प्रस्ताव के समर्थन में ये वाक्य कभी ना कभी दोहराए। उस दौरान नीति आयोग के समक्ष यह सवाल जरूर किया जाना चाहिए कि जो लोग UPSC में चुन कर आए हैं या जो पहले चुने गए थे, उनमें से कोई ऐसा नहीं मिला जो Right Person at the Right Place at the Right Time की थ्योरी को प्रैक्टिकल में तब्दील कर सके? साल 1991 बैच के आईएएस टीके रामचंद्रन ने एक अंग्रेजी अखबार के लिए लिखे अपने लेख में लिखा है कि 'लाल बहादुर शास्त्री आईएएस अकादमी मसूरी में 106 IAS अधिकारी ट्रेनिंग के लिए आए थे। जिसमें 50 इंजीनियर और 36 IIT के IAS क्वालिफाई करने वाले लोग थे, जिसमें एक IIT का टॉपर भी शामिल था।' यहां सवाल यह कि एक बार जनता के टैक्स के पैसे से सब्सिडी पाकर पहले IIT या AIIMS सरीखे संस्थानों में पढ़ाई करने वाले लोग UPSC क्वालिफाई कर रहे हैं क्या उनका उपयोग Right Person at the Right Place at the Right Time की थ्योरी को सही साबित करने में नहीं किया जा सकता?
बेहतर हो कि सरकार, नीति आयोग के इस प्रस्ताव पर 'गंभीरता' से विचार करने के साथ-साथ इस पर विचार करे कि किस तरह से UPSC क्वालिफाइड अफसरों का उपयोग बतौर किसी विषय के विशेषज्ञ किया जा सकता है। अन्यथा वो दिन दूर नहीं होगा जब देश एक प्राइवेट फर्म बन जाएगा। देश की ब्यूरोक्रेसी, मीडियोक्रेटी का शिकार हो जाएगी। राजनीति की तरह देश की कार्यपालिका भी वंशवाद का शिकार होने से नहीं बच सकेगी। सरकार को कोई ऐसा रास्ता ढूंढ़ना होगा जिससे कि UPSC क्वालिफाइड IAS अफसरों को वाकई में 'देश सेवा' करने का मौका मिले। वो सिर्फ विधायक, सांसद और पार्षद को सलामी देने के लिए तो नहीं ही चुना गया होगा।
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