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पनडुब्बियों में सवार होकर जर्मनी से जापान पहुँचे थे नेताजी सुभाष चंद्र बोस

वर्ष 1942 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस गुप्त रूप से पहले भारत से अफ़ग़ानिस्तान गए और फिर वहां से जर्मनी. जर्मनी से जापान तक का रास्ता उन्होंने दो पनडुब्बियों में तय किया.

By BBC News हिन्दी
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नेताजी सुभाष चंद्र बोस ज़िदगी में सिर्फ़ एक ही बार 29 मई, 1942 को जर्मनी के तानाशाह अडोल्फ़ हिटलर से मिले थे.

इस बैठक में जर्मनी के विदेश मंत्री जोआखिम वॉन रिबेनट्रॉप, विदेश राज्य मंत्री विलहेल्म केपलर और दुभाषिया पॉल शिमिट भी मौजूद थे.

हिटलर की भारत के बारे में राय अच्छी नहीं थी.

अपनी किताब 'मीन कैम्फ़' में उन्होंने यहाँ तक लिखा था, "ब्रिटिश साम्राज्य के हाथ से अगर भारत निकल जाता है तो पूरी दुनिया के लिए बहुत दुर्भाग्य की बात होगी जिसमें मैं भी शामिल हूँ. एक जर्मन के रूप में मैं भारत को किसी दूसरे देश की तुलना में ब्रिटेन के अधिपत्य में देखना पसंद करूँगा."

यही नहीं हिटलर का मानना था कि भारतीय आंदोलनकारी उपमहाद्वीप से अंग्रेज़ों को हटा पाने में कभी भी सफल नहीं होंगे.

चेक-अमेरिकी इतिहासकार मिलान हौनर अपनी किताब 'इंडिया इन एक्सिस स्ट्रेटेजी' में लिखते हैं, "दूसरे विश्व युद्ध के दौरान हिटलर ने यहाँ तक ख़ुशफ़हमी पाल रखी थी कि ब्रिटेन से अगर कभी समझौता करने की नौबत आई तो उसके बदले में वो भारत जैसे ग़ैर-यूरोपीय देश के लोगों का इस्तेमाल सोवियत संघ के ख़िलाफ़ अपनी युद्ध मशीन में करना चाहेंगें."

हौनर का मानना था कि हिटलर से मिलने के बाद सुभाष बोस की भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन को जर्मनी की सहायता की उम्मीद हमेशा के लिए ख़त्म हो गई थी. इस बातचीत से नेताजी सुभाषचंद्र बोस काफ़ी निराश हुए थे.

नेताजी की हिटलर से मुलाक़ात

बाद में इस मुलाक़ात का विवरण देते हुए बोस-हिटलर बैठक में दुभाषिए का काम करने वाले पॉल शिमिट ने बोस की भतीजी कृष्णा बोस को बताया था, "सुभाष बोस ने हिटलर से बहुत चतुराई से बात करते हुए सबसे पहले उनकी मेहमान नवाज़ी के लिए उन्हें धन्यवाद दिया था."

उनकी बातचीत मुख्य रूप से तीन विषयों पर हुई थी. पहला ये कि धुरी राष्ट्र भारत की आज़ादी को सार्वजनिक समर्थन दें. मई, 1942 में जापान और मुसोलिनी भारत की आज़ादी के समर्थन में एक संयुक्त घोषणा करने के पक्ष में थे.

रिबेनट्रॉप ने इसके लिए हिटलर को भी मनाने की कोशिश की थी लेकिन हिटलर ने ऐसा करने से इंकार कर दिया था.

हिटलर- बोस बातचीत का दूसरा विषय था हिटलर की किताब 'मीन कैम्फ़' में भारत विरोधी संदर्भ पर चर्चा. नेताजी का कहना था कि इन संदर्भों को ब्रिटेन में तोड़-मरोड़ कर पेश किया जा रहा है और अंग्रेज़ इसे जर्मनी के ख़िलाफ़ प्रचार में इस्तेमाल कर रहे हैं.

बोस ने हिटलर से अनुरोध किया कि वो उचित मौक़े पर इस बारे में सफ़ाई दे दें.

हिटलर ने इसका कोई सीधा जवाब नहीं दिया था और गोलमोल तरीक़े से इसे टालने की कोशिश की थी. लेकिन इससे ये अंदाज़ा ज़रूर हो गया कि बोस में दुनिया के सबसे बड़े तानाशाह के सामने ये मामला उठाने का दम था.

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बोस
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बोस

हिटलर ने बोस के जापान जाने के लिए पनडुब्बी की व्यवस्था करवाई

उनकी बातचीत का तीसरा विषय था कि नेताजी को किस तरह जर्मनी से पूर्वी एशिया पहुंचाया जाए.

यहाँ हिटलर पूरी तरह से सहमत थे कि जितनी जल्दी हो सके सुभाष बोस को तुरंत वहां पहुंच कर जापान की मदद लेनी चाहिए. लेकिन हिटलर नेताजी के वहां हवाई जहाज़ से जाने के ख़िलाफ़ थे क्योंकि रास्ते में मित्र देशों की वायुसेना से उसकी भिड़ंत हो सकती थी और उनके विमान को ज़बरदस्ती उनके क्षेत्र में उतारा जा सकता था.

उन्होंने सलाह दी कि उन्हें पनडुब्बी से जापान जाना चाहिए. उन्होंने इसके लिए तुरंत एक जर्मन पनडुब्बी की व्यवस्था भी कर दी.

हिटलर ने अपने हाथ से एक नक़्शे पर सुभाष बोस की यात्रा का रास्ता तय किया. हिटलर की राय में ये यात्रा छह हफ़्ते में पूरी कर ली जानी थी लेकिन नेताजी के जापान पहुंचने में पूरे तीन महीने लगे.

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यू 180 पनडुब्बी - इसी से नेताजी जर्मनी से पूर्वी एशिया के लिए रवाना हुए
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यू 180 पनडुब्बी - इसी से नेताजी जर्मनी से पूर्वी एशिया के लिए रवाना हुए

पनडुब्बी में दमघोटू माहौल और डीज़ल की महक

9 फ़रवरी, 1943 को नेताजी सुभाष बोस आबिद हसन के साथ जर्मनी के बंदरगाह कील से एक जर्मन पनडुब्बी से रवाना हुए. पनडुब्बी के अंदर दमघोटू माहौल था. नेतीजी को पनडुब्बी के बीच में बंक दिया गया था. बाकी बंक किनारे पर थे. पूरी पनडुब्बी में चलने फिरने के लिए कोई जगह नहीं थी.

आबिद हसन अपनी किताब 'सोलजर रिमेंबर्स' में लिखते हैं, "मुझे घुसते ही अंदाज़ा हो गया कि पूरे सफ़र के दौरान या तो मुझे बंक में लेटे रहना होगा या छोटे रास्ते में खड़े रहना होगा. पूरी पनडुब्बी में बैठने की सिर्फ़ एक जगह थी जहाँ एक छोटी मेज़ के चारों तरफ़ छह लोग सट सट कर बैठ सकते थे. खाना हमेशा मेज़ पर परोसा जाता था लेकिन कभी-कभी लोग अपने बंक पर लेटे लेटे ही खाना खाते थे."

'जैसे ही मैं पनडुब्बी में घुसा डीज़ल की महक मेरे नथुनों से टकराई और मुझे उलटी सी आने लगी. पूरी पनडुब्बी में डीज़ल की महक बसी हुई थी, यहाँ तक कि कंबलों तक से डीज़ल की महक आ रही थी. ये देख कर मेरा सारा उत्साह जाता रहा कि अगले तीन महीने हमें इसी माहौल में बिताने होंगें.'

नेताजी की पनडुब्बी यू-180 को मई, 1942 में जर्मन नौसेना में शामिल किया गया था. नेताजी की यात्रा के दौरान इसके कमांडर वर्नर मुसेनबर्ग थे. क़रीब एक साल बाद अगस्त, 1944 में प्रशांत महासागर में मित्र देश की सोनाओं ने इसे डुबो दिया था और इसमें सवार सभी 56 नौसैनिक मारे गए थे.

नेताजी के लिए खिचड़ी की व्यवस्था

पहले ही दिन खाने की मेज़ पर आबिद हसन ने नोट किया कि नेताजी कुछ भी नहीं खा रहे हैं.

पनडुब्बी पर सवार नौसैनिकों के लिए सैनिक राशन था, मोटी ब्रेड, कड़ा मांस, टीन के डिब्बे में बंद सब्ज़ियां जो देखने और स्वाद में रबड़ जैसी थीं.

सुभाष चंद्र बोस की भतीजी कृष्णा बोस हाल ही में प्रकाशित अपनी पुस्तक 'नेताजी, सुभाष चंद्र बोसेस लाइफ़, पॉलिटिक्स एंड स्ट्रगल' में लिखती हैं, "आबिद ने मुझे बताया था कि नेताजी ने पनडुब्बी से अपने सफ़र की बात मुझसे छिपा कर रखी थी. अगर मुझे थोड़ा पहले पता चल जाता तो मैंने अपने साथ खाने की चीज़ें और मसाले रख लेता. आबिद पनडुब्बी के गोदाम में पहुंच गए. वहाँ उन्हें चावल और दाल से भरा एक थैला मिला. इसके अलावा वहाँ अंडे के पाउडर का एक बड़ा टिन भी था."

"अगले कुछ हफ़्तों तक आबिद ने अंडे के पाउडर से नाश्ते के लिए नेताजी के लिए ऑमलेट बनाया. उन्होंने चावल और दाल से नेताजी के लिए खिचड़ी बनाई जो उन्हें बहुत पसंद आई. लेकिन नेताजी जर्मन अफ़सरों को बुलाकर वो खिचड़ी खिलाने लगे.

वो आगे लिखती हैं, "आबिद को डर लगा कि अगर जर्मन सैनिकों ने खिचड़ी खानी शुरू कर दी तो जल्द ही उनका चावल दाल का भंडार समाप्त हो जाएगा. लेकिन वो नेताजी से ये कहने की हिम्मत नहीं जुटा सके. उन्होंने जर्मन सैनिकों से कहा कि वो ख़ुद खिचड़ी खाने से मना कर दें ताकि अगले कुछ दिनों तक नेताजी खिचड़ी का मज़ा ले सकें."

सुभाष चंद्र बोस की हत्या हुई या मृत्यु-

दिन में समुद्र के नीचे, रात में समुद्र की सतह के ऊपर

कील से पनडुब्बियों का एक क़ाफ़िला रवाना हुआ था जिसकी बोस की पनडुब्बी एक हिस्सा थी. कील से कुछ दूरी तक तो जर्मन नौसेना का समुद्र पर पूरा नियंत्रण था.

इसकी वजह से जर्मन यू-बोट क़ाफ़िले को पानी की सतह के ऊपर चलने में कोई दिक़्क़त नहीं हुई. वो डेनमार्क के समुद्री तट के साथ चलते हुए स्वीडन पहुंच गए. क्योंकि स्वीडन इस लड़ाई में तटस्थ था इसलिए वहाँ कुछ सावधानी बरतने की ज़रूरत थी.

नॉर्वे के दक्षिणी किनारे के पास यू-बोट्स का क़ाफ़िला दो हिस्सों में बंट गया.

यहाँ से सुभाष बोस की पनडुब्बी की अकेली यात्रा शुरू हुई. कृष्णा बोस लिखती हैं, "दिन में पनडुब्बी समुद्र के पानी के नीचे चलती. रात में वो समुद्र के पानी के ऊपर आ जाती. ये पनडुब्बी बैटरी से चल रही थी, इसलिए उसे बैटरी चार्ज करने के लिए रात को पानी के ऊपर आना होता था. जैसे ही भोर होने वाली होती पनडुब्बी दोबारा पानी के अंदर चली जाती."

जब रात में पनडुब्बी ऊपर आती तो उसके कैप्टेन वर्नर मुसेनबर्ग नेताजी और आबिद हसन से कहते कि वो पनडुब्बी की छत पर आकर अपने पैर फैला लें.

जब पनडुब्बी ग्रीनलैंड के पास से गुज़री तो नेताजी और आबिद को लगा कि वो उत्तरी ध्रुव के अभियान पर जा रहे हैं. उस तरफ़ से लंबा चक्कर लगा कर जाना ज़रूरी था ताकि मित्र देशों के विमानों की नज़र उनपर न पड़े और वो उनपर हमला न कर सकें.

'नेताजी की हत्या का आदेश दिया था'

देश से दूर रहना बोस की ज़िदगी का सबसे कटु अनुभव

फ़्रांस के तट के पास एक यू टैंकर ने आकर पनडुब्बी में आगे की यात्रा के लिए डीज़ल भरा.

नेताजी ने यू टैंकर के चालकों को बर्लिन में फ़्री इंडिया सेंटर तक पहुंचाने के लिए कुछ ज़रूरी दस्तावेज़ सौंपे. इस पनडुब्बी यात्रा के दूसरे दिन से ही आबिद हसन अपने आप को कोस रहे थे कि अपने साथ समय काटने के लिए कुछ किताबें क्यों नहीं लाए. अचानक नेताजी ने उनसे पूछा, "हसन तुम अपना टाइपराइटर तो लाए हो न?"

जब हसन ने उन्हें बताया कि उनके पास टाइपराइटर है तो काम का जो सिलसिला शुरू हुआ वो तीन महीने बाद यात्रा की समाप्ति पर ही समाप्त हुआ.

इस दौरान उन्होंने अपनी किताब 'द इंडियन स्ट्रगल' के नए संस्करण के लिए उसकी पाँडुलिपि में कुछ फेरबदल किए. पनडुब्बी में चलने फिरने या कसरत करने की कोई गुंजाइश नहीं थी. दिन की रोशनी का सवाल ही नहीं उठता था. ऐसा लगता था कि पनडुब्बी पर सिर्फ़ रात है क्योंकि हर समय लाइट्स ऑन रहती थीं.

कृष्णा बोस लिखती हैं, "यात्रा के दौरान ही नेताजी ने योजना बनानी शुरू कर दी थी कि वो जापान की सरकार और अधिकारियों से किस तरह बात करेंगे.

उन्होंने आबिद हसन से कहा कि वो जापान के प्रधानमंत्री हिदेकी तोजो की भूमिका निभाएं और उनसे उनकी योजना और इरादों के बारे में तीखे सवाल पूछें."

वो आगे लिखती हैं, "काम से छुट्टी रात के समय मिलती थी जब नेताजी की पनडुब्बी पानी के ऊपर आ जाती थी. तब नेताजी बात करने के मूड में आ जाते थे और आबिद हसन से लंबी बातें किया करते थे. इसी बातचीत के दौरान आबिद ने उनसे पूछा था आपके जीवन का सबसे कटु अनुभव क्या है? नेताजी का जवाब था, अपने देश से दूर रहना."

नेताजी की पनडुब्बी ने ब्रिटिश तेलवाहक जहाज़ डुबोया

इस यात्रा के दौरान पनडुब्बी के ब्रिज पर आबिद हसन से बात करते हुए सुभाष बोस की कई तस्वीरें उपलब्ध हैं जिसमें वो सिगरेट पीते देखे जा सकते हैं. जब तक वो यूरोप में रहे वो इक्का-दुक्का सिगरेट पिया करते थे. लेकिन दक्षिण एशिया आने पर उनकी सिगरेट पीने की आदत बढ़ गई थी.

नेताजी को शराब पीने से परहेज़ नहीं था. यूरोप में रहते हुए उन्हें वहाँ की संस्कृति की आदत पड़ गई थी जहाँ खाने के साथ वाइन परोसने का चलन था.

जर्मन पनडुब्बी पर सवार रहने के दौरान 18 अप्रैल, 1943 को उनकी पनडुब्बी ने एक 8000 टन के ब्रिटिश तेलवाहक जहाज़ कॉरबिस को टॉरपीडो कर उसे डुबो दिया था.

आबिद हसन लिखते हैं, "ये कभी न भुलाए जाने वाला दृश्य था. ऐसा लगता था जैसे पूरे समुद्र में आग लग गई है. हम देख सकते थे कि जलते हुए जहाज़ में कुछ भारतीय और मलेशियाई दिखने वाले लोग मौजूद थे. एक बड़ी लाइफ़ बोट में सिर्फ़ गोरे लोगों को बैठाया गया और भूरी चमड़ी वाले लोगों को जलते हुए जहाज़ में उनके भाग्य के सहारे छोड़ दिया गया."

एक बार नेताजी की पनडुब्बी के कमांडर मुसेनबर्ग ने अपने पेरिस्कोप से ब्रिटिश युद्धक पोत को देखा और अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वो इसे टॉरपीडो कर दें.

जब पनडुब्बी को टॉरपीडो करने के लिए तैयार किया जा रहा था तभी एक नौसैनिक से ग़लती हो गई और टॉरपीडो फ़ायर करने के बजाए पनडुब्बी अचानक पानी की सतह पर आ गई.

उसको देखते ही ब्रिटिश जहाज़ ने उसपर हमला कर दिया. मुसेनबर्ग ने हड़बड़ी में नीचे टाइव करने का आदेश दिया.

पनडुब्बी बमुश्किल नीचे पहुंच पाई लेकिन पानी में जाने से पहले पोत की रेलिंग पनडुब्बी के ब्रिज से टकरा गई और उसे थोड़ा नुक़सान पहुंचा.

आबिद हसन लिखते हैं, "इस पूरे तनाव के दौरान मेरा तो डर के मारे पसीना निकल आया लेकिन नेताजी शांत बैठे अपना भाषण डिक्टेट कराते रहे. जब ख़तरा टल गया तो मुसेनबर्ग ने चालक दल को इकट्ठा कर बताया कि उनके भारतीय मेहमान ने उदाहरण पेश किया है कि ख़तरे के समय किस तरह शांत रहा जाता है."

क्या सुभाष चंद्र बोस 'उग्रवादी' हैं-

नेताजी जापानी पनडुब्बी पर चढ़े

अप्रैल के आख़िरी हफ़्ते में सुभाष बोस की पनडुब्बी केप ऑफ़ गुड होप का चक्कर लगाते हुए हिंद महासागर में दाख़िल हुई. इस बीच 20 अप्रैल, 1943 को एक जापानी पनडुब्बी आई-29 पेनांग से रवाना हुई जिसका नेतृत्व कैप्टेन मसाओ तराओका कर रहे थे.

स्थानीय भारतीय लोगों को इस बात पर हैरानी थी कि रवाना होने से पहले पनडुब्बी के चालक दल ने भारतीय खाने के लिए रसद ख़रीदी.

मेडगास्कर का समुद्र में दूसरे विश्व युद्ध का असर कुछ कम था. इसलिए तय किया गया कि यहाँ पर नेताजी को जर्मन पनडुब्बी से जापानी पनडुब्बी में स्थानांतरित किया जाएगा. यहां दोनों पनडुब्बियाँ कुछ समय तक एक दूसरे के साथ-साथ चलीं.

सौगत बोस अपनी किताब 'हिज़ मेजेस्टीज़ ओपोनेंट' में लिखते हैं, "27 अप्रैल की दोपहर एक जर्मन अफ़सर और एक सिग्नलमैन तैर कर जापानी पनडुब्बी पर पहुंचे. 28 अप्रैल की सुबह नेताजी और आबिद हसन को यू-180 से नीचे उतार कर एक रबड़ की नाव में बैठाया गया. वो नाव उन्हें तेज़ समुद्री लहरों के बीच पास खड़ी जापानी पनडुब्बी आई-29 तक ले गई. दूसरे विश्व युद्ध के दौरान ये पहली बार हुआ जब यात्रियों को एक पनडुब्बी से दूसरी पनडुब्बी तक पहुंचाया गया. समुद्र इतना अशांत था कि नाव पर चढ़ने के दौरान नेताजी और आबिद पूरी तरह से भीग गए."

जापानी कमांडर ने नेताजी के लिए अपना केबिन ख़ाली किया

जर्मन नौसैनिकों ने पूरी यात्रा के दौरान नेताजी और उनके साथियों का बहुत ध्यान रखा था. लेकिन जापानी पनडुब्बी पर चढ़ने के बाद बोस और आबिद को लगा जैसे वो अपने घर पहुंच गए हों.

सौगत बोस लिखते हैं, "जापानी पनडुब्बी जर्मन पनडुब्बी से बड़ी थी और उसके कमांडर मसाओ तरोओका ने नेताजी के लिए अपना केबिन ख़ाली कर दिया था."

जापानी रसोइयों द्वारा पेनाँग में ख़रीदे गए भारतीय मसालों से बनाया गया खाना नेताजी को बहुत पसंद आया.

आबिद हसन लिखते हैं, "हमें दिन में चार बार खाना दिया जाता था. एक बार तो नेताजी को जापानी कमांडर से कहना पड़ा, क्या हमें फिर खाना पड़ेगा?"

जर्मन पनडुब्बी पर यात्रा के दौरान दो बार हमारा दुश्मन के पोतों से सामना हुआ था.

ऐसा इसलिए हुआ था क्योंकि पनडुब्बी के कमांडर को निर्देश थे कि अगर रास्ते में उन्हें कोई भी दुश्मन का पोत दिखाई दे वो उसपर हमला करें.

इसके ठीक विपरीत जापानी पनडुब्बी के कमांडर को आदेश थे कि वो किसी भी हालत में विरोधी पोतों से न उलझें और सुभाष चंद्र बोस को सुरक्षित सुमात्रा ले आएं.

आबिद हसन लिखते हैं, "पूरी यात्रा के दौरान हमें कोई परेशानी नहीं आई. सिर्फ़ एक भाषा की दिक़्क़त थी. नेताजी और मैं दोनों जर्मन समझ लेते थे लेकिन जापानी भाषा हमारे सिर के ऊपर से गुज़र जाती थी और पनडुब्बी पर कोई भी दुभाषिया मौजूद नहीं था."

सुभाष बोस ने भारतवासियों को रेडियो से संबोधित किया

13 मई, 1943 को जापानी पनडुब्बी आई-29 सुमात्रा के उत्तरी तट के पास सबाँग पहुंची. सुभाष चंद्र बोस ने पनडुब्बी से उतरने से पहले चालक दल के सभी सदस्यों के साथ तस्वीर खिंचवाई.

तस्वीर पर अपने ऑटोग्राफ़ देते हुए उन्होंने संदेश लिखा, "इस पनडुब्बी पर यात्रा करना एक सुखद अनुभव था. मेरा मानना है कि हमारी जीत और शांति की लड़ाई में ये यात्रा एक मील का पत्थर साबित होगी."

सबांग में नेताजी के पुराने दोस्त और जर्मनी में जापान के सैनिक अटैचे रहे कर्नल यामामोटो ने उनकी अगवानी की.

दो दिनों के आराम के बाद नेताजी एक जापानी युद्धक विमान में बैठ कर टोकियो पहुंचे.

वहाँ उनको राजमहल के सामने वहाँ के सबसे मशहूर इम्पीरियल होटल में ठहराया गया. उस होटल में उन्होंने जापानी नाम मातसुदा के साथ चेक इन किया. लेकिन कुछ ही दिनों में उनके सारे छद्म नाम ज़ियाउद्दीन, मज़ोटा और मातसुदा पीछे छूट गए.

एक दिन भारत के लोगों को रेडियो पर उनकी आवाज़ सुनाई दी, "पूर्वी एशिया से मैं सुभाष चंद्र बोस अपने देशवासियों को संबोधित कर रहा हूँ."

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English summary
Netaji Subhash Chandra Bose reached Japan from Germany in submarines
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