नेहरू-लियाक़त समझौता जिसका ज़िक्र शाह ने किया नागरिता बिल पर बहस में
लोकसभा में नागरिकता संशोधन अधिनियम (कैब) - 2019 पर बहस के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने बयान दिया कि 'नेहरू-लियाक़त समझौता धरा का धरा रह गया' और पाकिस्तान (जब समझौता हुआ था तब बांग्लादेश नहीं था) अल्पसंख्यकों की हिफ़ाज़त का अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम रहा इसलिए कैब की ज़रूरत है. बिल पर चर्चा के दौरान अमित शाह ने दोनों
लोकसभा में नागरिकता संशोधन अधिनियम (कैब) - 2019 पर बहस के दौरान गृह मंत्री अमित शाह ने बयान दिया कि 'नेहरू-लियाक़त समझौता धरा का धरा रह गया' और पाकिस्तान (जब समझौता हुआ था तब बांग्लादेश नहीं था) अल्पसंख्यकों की हिफ़ाज़त का अपना कर्तव्य निभाने में नाकाम रहा इसलिए कैब की ज़रूरत है.
बिल पर चर्चा के दौरान अमित शाह ने दोनों नए मुल्कों-भारत और पाकिस्तान में शरणार्थियों द्वारा झेली गई दिक्क़तों के बारे में बात करते हुए कहा कि इसी समय '1950 में दिल्ली में नेहरू-लियाक़त समझौता हुआ.'
क्या है ये समझौता?
8 अप्रैल को भारत और पाकिस्तान के बीच हुए इस द्विपक्षीय समझौते को दिल्ली समझौते के नाम से भी जाना जाता है.
ये समझौता दोनों देशों के बीच छह दिनों तक चली लंबी बातचीत का नतीजा था और इसका लक्ष्य था अपनी सीमाओं के भीतर मौजूद अल्पसंख्यकों को पूरी सुरक्षा और उनके अधिकार देना.
इस समझौते के लिए पाकिस्तान के प्रधानमंत्री लियाक़त अली ख़ान दिल्ली आए थे. उस समय जवाहर लाल नेहरू भारत के प्रधानमंत्री थे.
क्यों ज़रूरत पड़ी इस समझौते की?
साल 1947 में हुए विभाजन के बाद लाखों शरणार्थियों का एक ओर से दूसरी ओर आना-जाना जारी था.
पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश), पंजाब, सिंध और कई इलाक़ों से हिंदू और सिख बड़ी तादाद में भारत आ रहे थे.
पश्चिम बंगाल, बिहार, पंजाब का वो हिस्सा जो भारत के हिस्से में आया था, वहां और भारत के दूसरे हिस्सों से मुसलमान पाकिस्तान जा रहे थे.
कई इतिहासकार इसे विश्व इतिहास में सबसे बड़ा विस्थापन भी बताते है.
विभाजन के बाद कई इलाक़ों में बड़े पैमाने पर दंगे हो रहे थे और भारी तादाद में हिंदू-मुसलमान मारे जा रहे थे.
इस दौरान ऐसे भी बहुत सारे मामले सामने आ रहे थे, जिसमें अपना देश छोड़ चुके इन शरणार्थियों की ज़मीन-जायदाद पर क़ब्ज़ा हो गया था या फिर उसे लूट लिया गया था, बच्चियों-महिलाओं को अग़वा कर लिया गया था, लोगों का जबरन धर्म-परिवर्तन करवाया गया था.
इस तरह की घटनाएं उन अल्पसंख्यकों के साथ भी हो रहीं थीं, जो विस्थापन के लिए तैयार नहीं थे यानी पाकिस्तान के वो हिंदू जो भारत जाने को तैयार नहीं हुए या फिर वो मुस्लिम जो भारत में ही रह गए थे.
दोनों मुल्कों में मौजूद अल्पसंख्यक ख़ौफ़ के माहौल में जी रहे थे.
साथ ही 1948 में पाकिस्तान की तरफ़ से कश्मीर पर हुए हमले और उसके बाद भारत की तरफ़ से हुए हस्तक्षेप के बाद भारत और पाकिस्तान के रिश्ते बहुत ख़राब हो चुके थे, दिसंबर 1949 में दोनों के बीच व्यापार भी बंद हो गया.
दोनों मुल्कों के बीच जंग के हालात बनते दिखाई दे रहे थे.
नेहरू लियाक़त समझौते के लक्ष्य
- दोनों देश अपने अल्पसंख्यकों के साथ हुए व्यवहार के लिए ज़िम्मेदार होंगे.
- शरणार्थियों के पास अपनी ज़मीन-जायदाद को बेचने या निपटाने के लिए वापस जाने का अधिकार होगा.
- जबरन करवाए गए धर्म-परिवर्तन मान्य नहीं होंगे.
- अग़वा महिलाओं को वापस उनके नाते-रिश्तेदारों के हवाले किया जाएगा.
- दोनों देश अल्पसंख्यक आयोग का गठन करेंगे.
भारतीय गृह मंत्री अमित शाह का बयान
लोकसभा में अमित शाह ने कहा कि हालांकि कहा कि पाकिस्तान में, और बाद में जब बांग्लादेश बना तो अल्पसंख्यकों के अधिकारों की सुरक्षा नहीं हो सकी और इसलिए इस विधेयक की ज़रूरत आन पड़ी है.
उन्होंने इस संदर्भ में पाकिस्तान और बांग्लादेश में अल्पसंख्यकों की लगातार घटती आबादी की भी बात की.
उनका कहना था कि चूंकि इस्लामी देशों- पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफ़ग़ानिस्तान में मुसलमानों पर किसी तरह की ज्यादती नहीं हो सकती है इसलिए मुसलमानों का ज़िक्र नागरिकता संशोधन अधिनियम में नहीं है.
हालांकि बिल के विरोधी कहते हैं कि ये ठीक है कि इन तीनों देशों में अल्पसंख्यकों की स्थिति अच्छी नहीं है, लेकिन भारत भी इस मामले में ख़ुद को बहुत बेहतर नहीं बता सकता.
आलोचक आज़ादी के बाद से लगातार होते रहे मुस्लिम-विरोधी दंगे, मेरठ, मलियाना, मुंबई-गुजरात और 1984 के सिख-विरोधी दंगों का हवाला देते हैं, और कहते हैं कि इनसे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता है.