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नज़रिया: बिहार में एकजुटता दिखाना क्या एनडीए की मजबूरी है

उपेन्द्र कुशवाहा ने शुक्रवार शाम को ये भी कहा कि एनडीए एकजुट है और आगे भी रहेगा. साथ ही पार्टी में मौजूद न होने के उन्होंने कुछ व्यक्तिगत कारण भी बताए. जबकि ये किसी से छिपा नहीं है कि जनता दल युनाइटेड (जेडीयू) के अध्यक्ष नीतीश कुमार और उपेन्द्र कुशवाहा के बीच का सियासी रिश्ता लंबे समय से बिगड़ा हुआ है. 

By BBC News हिन्दी
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बिहार में सत्तासीन राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) इन दिनों अंतर्कलह से गुज़र तो रहा है, लेकिन एकजुटता दिखाते रहना भी उसकी मजबूरी है.

गुरुवार रात पटना में एनडीए के सहभोज और भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की मेज़बानी का मक़सद ही था कि 'परदे में रहने दो...'.

लेकिन सियासत इतनी स्वार्थपरक हो चुकी है कि भेद खुल ही जाता है.

nda strategy in bihar, a need of situation ahead of loksabha elections 2019
Getty Images
nda strategy in bihar, a need of situation ahead of loksabha elections 2019

जैसा कि इस 'सहभोज' में एक घटक, यानी राष्ट्रीय लोक समता पार्टी (रालोसपा) के मुखिया उपेन्द्र कुशवाहा की ग़ैर-मौजूदगी से भेद खुला.

हालांकि उपेन्द्र कुशवाहा ने शुक्रवार शाम को ये भी कहा कि एनडीए एकजुट है और आगे भी रहेगा. साथ ही पार्टी में मौजूद न होने के उन्होंने कुछ व्यक्तिगत कारण भी बताए.

जबकि ये किसी से छिपा नहीं है कि जनता दल युनाइटेड (जेडीयू) के अध्यक्ष नीतीश कुमार और उपेन्द्र कुशवाहा के बीच का सियासी रिश्ता लंबे समय से बिगड़ा हुआ है. दोनों एक-दूसरे को बिलकुल नहीं सुहाते. जबकि पहले ये दोनों बेहद क़रीबी रह चुके हैं.

इस बार भोज से कुछ ही देर पहले रालोसपा के एक प्रमुख नेता का नीतीश कुमार के ख़िलाफ़ सख़्त बयान आ गया.

कहा गया कि भाजपा ने नीतीश को बिहार में एनडीए का 'चेहरा' कैसे घोषित कर दिया, जबकि एनडीए की किसी बैठक में ऐसा तय नहीं हुआ है!


कुछ तल्ख़ी भरे बयान

याद रहे कि उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी सहित कुछ अन्य भाजपा नेताओं ने राष्ट्रीय स्तर पर नरेंद्र मोदी को और बिहार में नीतीश कुमार को एनडीए का 'चेहरा' कहा है.

ज़ाहिर है कि भाजपा ने ऐसा तब कहा जब केंद्र सरकार के प्रति जेडीयू के कुछ तल्ख़ी भरे सवालिया बयान आने लगे.

जेडीयू चाहता है कि बिहार की सत्ता में और अगले चुनावों के लिए टिकट आवंटन में भाजपा उसका वर्चस्व माने.

'चेहरा' वाली बात मान कर भाजपा ने आगामी विधानसभा चुनाव (2020) में नीतीश को एनडीए की तरफ़ से मुख्यमंत्री पद का प्रत्याशी क़बूल कर लिया है.

यही बात उपेन्द्र कुशवाहा को भी चुभी है. बिहार में कुशवाहा यानी कोयरी समाज की जनसंख्या नीतीश के स्वजातीय कुर्मी समाज से बहुत ज़्यादा है.

इसलिए रालोसपा ख़ुद को जेडीयू से बड़ा जनाधार वाला मान कर नीतीश की दावेदारी पर सवाल उठा रहा है.

इसमें कुछ प्रेक्षक भाजपा की कूटनीति का भी अंदेशा ज़ाहिर करने लगे हैं.

उनको लगता है कहीं उपेन्द्र कुशवाहा को उकसा कर नीतीश कुमार को साधने या उन्हें औक़ात बताने जैसा कोई खेल तो नहीं हो रहा!

भाजपा की मनमानी चलेगी?

हालांकि इस तरह के क़यास को इस तर्क से काटा जा सकता है कि तब कुशवाहा की पार्टी राष्ट्रीय जनता दल (आरजेडी) से सटने की कोशिश में भी क्यों दिख रही है.

जो भी हो, इतना तो स्पष्ट है कि अब न तो जेडीयू के बिना भाजपा की, और न ही भाजपा के बिना जेडीयू की चुनावी नैया पार लगेगी.

आरजेडी, कांग्रेस और अन्य विपक्षियों के संभावित गठबंधन की प्रबल चुनौती सामने दिखने लगी है.

ऐसे में, जेडीयू और रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) को किसी ज़िद में खो देने की ग़लती भाजपा क्यों करेगी?

यही वजह है कि घटक दलों के बीच सीटों के बँटवारे में भाजपा की मनमानी नहीं चलने देने का दबाव जेडीयू और एलजेपी ने अभी से बनाना शुरू कर दिया है.

इन्हें लगता है कि चोट करने का यही उपयुक्त समय है क्योंकि लोहा अभी गरम है.

गोटी लाल करने वाली चालें

पिछले कई उपचुनावों के नतीजे और केंद्र सरकार के प्रति बढ़ते जनाक्रोश जैसे झटकों ने भाजपा को नरम कर दिया है.

मोदी सरकार के प्रति आकर्षण का गिरता हुआ ग्राफ़ उसके सहयोगी दलों का भी मनोबल बढ़ा चुका है.

अब गठबंधनी राजनीति के ही अच्छे दिन आने की झलक मिलने लगी है.

इसलिए भाजपा और कांग्रेस ही नहीं, क्षेत्रीय दल भी गँठजोड़ के बूते अपनी गोटी लाल करने वाली चालें चलेंगे.

ऐसी सूरत में लगता नहीं है कि नीतीश कुमार फिर से भाजपा को ठुकराने जैसी राजनीतिक हाराकिरी करेंगे.

लेकिन हाँ, अगर राष्ट्रीय स्तर के किसी सर्वमान्य विपक्षी मोर्चे का गठन हो जाये और नीतीश को उस मोर्चे का लाभकारी आमंत्रण मिल जाये, तब उसे लपकने से चूकेंगे भी नहीं.

'माया मिली न राम'

वैसे, इस तरह की संभावना वाली दिल्ली इतनी दूर है कि इस बीच हड़बड़ी करेंगे तो 'माया मिली न राम' जैसी स्थिति हो जाएगी.

कहीं ऐसा न हो कि बिहार की चालीस लोकसभा-सीटों में से पच्चीस पर दावेदारी का आसमानी जुमला ज़मीन पर गिर कर इतने छोटे टुकड़ों में बँट जाये कि उसे उठाने में भी शरम लगे.

केंद्र सरकार में जेडीयू को हिस्सेदारी न देना और राष्ट्रीय स्तर पर किसी नीति निर्धारण में इस सहयोगी पार्टी को अलग-थलग रखना उचित नहीं माना जाएगा.

इसकी वजह भी लोग जानते ही हैं. भाजपा और नरेंद्र मोदी को नीतीश ने पिन चुभो-चुभो कर जितनी पीड़ा दी थी, उतनी पीड़ा लौटाने का मौक़ा भी तो भाजपा को नीतीश ने ही दिया.

प्रथम गठबंधन वाला रौब-दाब अगर समर्पण वाले दूसरे गठबंधन के समय चलाना चाहेंगे, तो निराशा ही हाथ लगेगी.

जेडीयू शुक्र मनाए कि सियासत के मौजूदा बाहुबलियों की बढ़ती जा रही बुलंदी वाला ग्राफ़ अब नीचे उतरता जा रहा है.

इसलिए विपक्षियों के ही नहीं, सहयोगियों के भी मंद पड़े हुए हौसलों में थोड़ी गति आ गयी है.

एनडीए की सबसे बड़ी हिस्सेदार भाजपा के सामने मुँह खोल कर हक़ माँगने का यह मौक़ा सहयोगी दलों को मुश्किल से मिला है.

(ये लेखक के निजी विचार हैं)

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English summary
nda strategy in bihar, a need of situation ahead of lok sabha elections 2019
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