10 साल के संघर्ष से नाज़िया ने बदला 100 साल का इतिहास
"मैं नक़ाब पहनती थी, पहनती रहूंगी. मुझे यक़ीन है कि लिहाज के साथ पर्दानशीं रहकर भी तब्दीली की लकीर खींची जा सकती है."
एक सांस में ये कहते हुए नाज़िया तबस्सुम पल भर के लिए खामोश हो जाती हैं.
"बस जज़्बात और जुनून हो. मुस्लिम महिलाएं-लड़कियों के हक-हुकूक की वकालत करना, सड़कों पर आवाज़ उठाना कोई गुनाह नहीं."
"मैं नक़ाब पहनती थी, पहनती रहूंगी. मुझे यक़ीन है कि लिहाज के साथ पर्दानशीं रहकर भी तब्दीली की लकीर खींची जा सकती है."
एक सांस में ये कहते हुए नाज़िया तबस्सुम पल भर के लिए खामोश हो जाती हैं.
"बस जज़्बात और जुनून हो. मुस्लिम महिलाएं-लड़कियों के हक-हुकूक की वकालत करना, सड़कों पर आवाज़ उठाना कोई गुनाह नहीं."
32 साल की नाज़िया इन दिनों झारखंड में सुर्खियों में है. दरअसल हाल ही में उन्होंने रांची में अंजुमन इस्लामिया के चुनाव में महिला सदस्य के तौर पर वोट दिया है.
अंजुमन के सौ सालों के इतिहास में यह पहली दफ़ा हुआ है. दरअसल अब तक किसी भी महिला को अंजुमन का सदस्य नहीं बनाया गया था.
पहली बार चुनाव जीतने का रिकॉर्ड
इस अधिकार को पाने के लिए नाज़िया ने पूरे दस सालों की लड़ाई लड़ी.
मुसलमानों के बीच सामाजिक, शैक्षणिक तरक्की, रोज़गार, स्वास्थ्य सुविधा मुहैया कराने के साथ गरीबों-मजलूमों की मदद के लिए अंजुमन काम करता रहा है.
झारखंड में सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड अंजुमन इस्लामिया के कामकाज पर नज़र रखता है. वैसे ये कोई पहली बार नहीं है जब नाज़िया ने जुझारूपन दिखाया है.
कॉलेज के दिनों में छात्र नेता के तौर पर रांची विश्वविद्यालय में किसी मुस्लिम छात्रा के पहली बार चुनाव जीतने का रिकॉर्ड भी उनके नाम है.
नाज़िया कहती हैं कि मुस्लिम महिलाओं में भी हुनर और प्रतिभाएं हैं. घर-परिवार और समाज का थोड़ा साथ मिल जाए, तो वे भी तेजी के साथ अगली कतार में शामिल होती दिखेंगी.
दस सालों की लड़ाई
अंजुमन की सदस्यता लेने तथा एक अदद वोट की ख़ातिर इतनी लंबी लड़ाई का मक़सद क्या था?
इस सवाल पर वो कहती हैं, "मक़सद इतना भर था कि मुस्लिम महिलाओं की भागीदारी के रास्ते खुलें, पुरुष प्रधान समाज के ख्यालात बदलें."
"आगे मेरी कोशिश होगी कि इसमें महिला सदस्यों की संख्या बढ़े और अंजुमन के कार्यों में महिला विषयों को तवज्जो मिले."
"जब उन्होंने वोट दिया, तो कई महिलाओं के साथी तरक्की पसंद मर्दों ने सराहा, मुबारकबाद दिया."
"साल 2008 में मैंने अंजुमन की सदस्यता के लिए आवेदन दिया था, जिसे ख़ारिज कर दिया गया. मुझे बताया गया कि अंजुमन में कोई महिला सदस्य नहीं बन सकती."
इसके बाद महिला आयोग में उन्होंने दरख्वास्त डाला. आयोग ने उनके पक्ष में फैसला दिया. इसके बाद भी बात नहीं बनी. तब वो राज्य अल्पसंख्यक आयोग पहुंचीं.
अंजुमन की सदस्यता
आयोग के तत्कालीन अध्यक्ष डॉक्टर शाहिद अख्तर ने वक्फ बोर्ड के कार्यपालक पदाधिकारी और अंजुमन के चुनाव संयोजक के बीच सुनवाई कराई.
सुनवाई के बाद नाज़िया को वोट देने का अधिकार देने को कहा गया. साल गुजरते रहे. इस बीच साल 2013 में उन्हें अंजुमन का सदस्य बना दिया गया.
लेकिन वोट देने के लिए पहचान पत्र जारी नहीं किया गया. बकौल नाज़िया, वोट नहीं देने से वो निराश हुई लेकिन हताश नहीं.
इसके बाद नाज़िया कल्याण मंत्रालय के प्रधान सचिव को पत्र लिखा साथ ही वक्फ बोर्ड ट्राइब्यूनल में मामला लेकर गईं. इस संघर्ष में उनके पति शमीम अली ने साथ दिया.
हाल ही में हुए चुनाव में वक्फ बोर्ड के कार्यपालक अधिकारी जो चुनाव के संयोजक भी थे, उन्होंने वोट के लिए पहचान पत्र जारी किया.
पैदल चलकर परवान चढ़ी
अंजुमन इस्लामिया के महासचिव हाजी मुख्तार कहते हैं कि महिलाओं को वोट का अधिकार मिले इसके हिमायती वे भी हैं.
नाज़िया नियाहत साधारण परिवार से आती हैं.
जहां से निकलकर पढ़ाई करना, सड़कों से लेकर कॉलेज-यूनिवर्सिटी में आंदोलन, जगह-जगह बैठक-सभा बहुत आसान नहीं था.
कई दफा 10 किलोमीटर पैदल चलकर वो महिला आयोग पहुंचती थीं.
घर-समाज में रोके-टोके जाने के सवाल पर नाज़िया बताती हैं, "अब्बा-अम्मी, भाई-बहन ने हमेशा उत्साह बढ़ाया, वरना हम आग नहीं बढ़ पाते."
"समाज में कुछ लोगों की तीखी टिप्पणी और प्रतिक्रियाओं का सामना ज़रूर करते रहे, लेकिन ज़मीर हर वक्त यही कहता कि दायरे में रहकर ही तो मैं ये सब कर रही हूं."
"अक्सर मन में टीस भी होती कि मुस्लिम लड़कियां कब तक सिर झुका कर चलती रहेंगी."
वो एक नज़ीर हैं...
स्नातक की पढ़ाई करने के बाद प्रतियोगिता परीक्षा की तैयारी में जुटी स्थानीय युवा शमां परवीन कहती हैं, "यकीनन पैदल चलने और मुद्दों को उछालते रहने की वजह से नाज़िया की छात्र राजनीति परवान चढ़ी. हक-अधिकार के प्रति तथा जागरूकता के लिहाज से मुस्लिम महिलाओं और छात्राओं के बीच वो एक नज़ीर हैं."
साल 2007 में नाज़िया ने मौलाना आज़ाद कॉलेज में सचिव फिर रांची विश्वविद्यालय में संयुक्त सचिव पद पर चुनाव जीतने वाली पहली मुस्लिम छात्रा थीं.
एक अन्य युवती नाज़नीन मेराज कहती हैं, "मुस्लिम लड़कियों, छात्रों तथा युवाओं के हितों में मुद्दे उछालने में नाज़िया ने कभी कोई कसर नहीं छोड़ी और ना ही समझौता किया."
मुस्लिम महिला सशक्तिकरण तथा छात्र हितों के अभियान-आंदोलन को बड़ा शक्ल देने के लिए नाज़िया झारखंड छात्र संघ और ऑल मुस्लिम यूथ एसोसिएशन से जुड़ गईं.
इस बीच नाज़िया ने बीएड, एमए की पढ़ाई पूरी की. मास्टर ऑफ़ सोशल वर्क का कोर्स भी पूरा किया.
जब छात्र नेता बने हमसफ़र
नाज़िया के पति एवं झारखंड छात्र संघ के अध्यक्ष शमीम अली अली बताते हैं, "वो दौर नहीं भूल सकते जब नाज़िया बीए पार्ट टू की छात्रा थीं और झारखंड लोकसेवा आयोग की नियुक्तियों में हुए घोटाले का पर्दाफाश के लिए उन्होंने घंटी बजाना शुरू किया. राज्य से लेकर केंद्र तक को उसने ताबड़तोड़ पत्र लिखे. इसका असर भी हुआ."
अली बताते हैं, "साल 2014 में उन्होंने नाज़िया के समक्ष शादी का प्रस्ताव इन ख्यालों के साथ रखा कि महिलाओं-युवाओं के सवाल पर सड़कों पर लड़ती-भिड़ती ये लड़की जीवन साथी बन जाए, तो हम दोनों के मक़सद साकार होते नज़र आएंगे."
नाज़िया बताती हैं कि निकाह के इस प्रस्ताव को वो भी ठुकरा नहीं सकीं. उन क्षणों को याद करते हुए वो हंसती हैं जब निकाह के बाद बहुतों ने अली से पूछा था तेरी दुल्हन नाज़िया ही है ना.
पांच महीने पहले ही नाज़िया जुड़वा बेटों की मां बनी हैं. फिलहाल वो सरकारी नौकरी की खातिर वो तैयारी कर रही हैं. उनका कहना है कि बच्चे कुछ बड़े हो जाएं, तो महिलाओं के रोजगार-सुरक्षा के सवाल के काम में जुट जाऊंगी.