नज़रिया: 2019 का चुनाव क्या मोदी बनाम मायावती होगा
देश की राजनीति की अगली दिशा मायावती तय कर सकती हैं. लेकिन यह कांग्रेस की सहमति और उसके सक्रिय सहयोग के बिना संभव नहीं है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं को उनकी मां के विदेशी मूल से जोड़ने वाले बीएसपी उपाध्यक्ष की पद से छुट्टी करके मायावती ने स्पष्ट कर दिया है कि गठबंधन उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण है
बीजेपी और एनडीए में इस बात को लेकर कोई उलझन नहीं है कि अगले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उनका दावेदार कौन होगा. वहां नरेंद्र मोदी के नाम पर आम राय है और यह बात इतनी तय है कि इसे लेकर कोई चर्चा भी नहीं है.
नरेंद्र मोदी इस समय न सिर्फ़ बीजेपी से, बल्कि इस विचार की पितृ संस्था आरएसएस से भी बड़े ब्रांड माने जा रहे हैं.
यह मामला बीजेपी-एनडीए खेमे में जितना सेटल्ड यानी तय है उतनी ही अनिश्चितता विपक्षी खेमे में है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी एक सवाल के जवाब में कह चुके हैं कि वे प्रधानमंत्री पद के दावेदार हैं.
इसके अलावा भी कई दलों के नेताओं के मन में यह महत्वाकांक्षा है कि वे प्रधानमंत्री बनें. देश का नेता कैसा हो, हमारे नेता जैसा हो का उद्घोष पार्टियों के आयोजनों में होता रहता है. जब कोई पार्टी नेता कहता है कि प्रधानमंत्री का फैसला चुनाव नतीजों के बाद होगा तो इस बात में एक अनकही बात यह भी होती है कि हो सकता है कि मेरी बारी आ जाए.
आखिर यह कहां लिखा है कि सबसे बड़े गठबंधन दल का नेता ही प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री बनेगा. यहां तो एक विधायक मधु कोड़ा के मुख्यमंत्री बनने तक की नजीर है और देश ने इंद्र कुमार गुजराल जैसा प्रधानमंत्री भी देखा है, जिनके खेमे में एक भी सासंद नहीं था.
बल्कि जिनका कोई खेमा ही नहीं था. एचडी देवेगौड़ा से लेकर चरण सिंह और चंद्रशेखर भी प्रधानमंत्री बन चुके हैं. इसलिए सैद्धांतिक रूप से देखें तो प्रधानमंत्री कोई भी बन सकता है.
कुल मिलाकर, विपक्ष के खेमे में नेतृत्व का मामला अनिर्णीत नजर आ रहा है.
रेस में तीन तरह के चेहरे
इस रेस में विपक्ष की ओर से अभी तीन तरह के चेहरे दिख रहे हैं. राहुल गांधी विपक्ष के सबसे बड़े दल के अध्यक्ष के तौर पर, स्वाभाविक रूप से, एक दावेदार हैं. दूसरी दावेदारी शरद पवार और ममता बनर्जी जैसे क्षेत्रीय दलों के नेताओं की है, जो यह प्रयास करेंगी/करेंगे कि फेडरल फ्रंट जैसी कोई चीज बनाकर महागठबंधन के अंदर अपनी सौदेबाजी मजबूत करें. लेकिन इस बीच एक तीसरा नाम उभरकर आ रहा है बहनजी यानी मायावती का.
2014 के लोकसभा चुनाव में वोट पाने के लिहाज से बीजेपी और कांग्रेस के बाद, बहुजन समाज पार्टी देश की तीसरी सबसे बड़ी पार्टी है. उसे कुल वोट का 4.1 फीसदी हासिल हुआ. यानी देश के 2 करोड़ 29 लाख लोगों ने बीएसपी को वोट डाला.
लेकिन देश के कई राज्यों में बिखरे इस वोट से पार्टी को लोकसभा की एक भी सीट नहीं मिली. जबकि बीएसपी से कम वोट पाकर तृणमूल कांग्रेस और अन्नाद्रमुक को क्रमश: 34 और 37 लोकसभा सीटें मिल गईं.
बीएसपी के साथ त्रासदी यह हुई कि उत्तर प्रदेश के तितरफा मुक़ाबले में उसके 20 फ़ीसदी के ज्यादा वोट से कोई विनिंग फॉर्मूला नहीं बन पाया. यही कहानी 2017 के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी दोहराई गई, जहां उसके सिर्फ़ 19 विधायक बने.
लेकिन बीएसपी और मायावती की कहानी वोट प्रतिशत से कहीं बड़ी है.
माया की ताक़त
मायावती की ताक़त है उनके और बीएसपी के नाम से आंदोलित और उत्साहित होना वाला एक विशाल जनसमुदाय, जो अन्यथा खामोश रहता है. भारत का हर छठा वोटर दलित यानी अनुसूचित जाति का है.
बेशक वह अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग पार्टियों को वोट डालता है और यूपी में भी उसका एक हिस्सा गैर-बीएसपी दलों का वोटर होगा, लेकिन मायावती इस समय देश की सबसे बड़ी दलित नेता हैं और दलितों का अगर अपना प्रधानमंत्री बनाने का कोई सपना है, तो उस सपने को हक़ीक़त में बदलने की संभावना मायावती के जरिए ही साकार हो सकती है.
देश के दलित इस समय आंदोलित हैं और 2 अप्रैल के भारत बंद में उनकी नाराज़गी सड़कों पर दिखी थी. हाल के वर्षों में किसी भी पार्टी या सामाजिक समूह ने इस स्तर का राष्ट्रीय आंदोलन खड़ा नहीं किया है. हालांकि 2 अप्रैल के बंद का आह्वान बीएसपी ने नहीं किया था, लेकिन उसके लोग हर जगह सड़कों पर थे.
इस दलित आक्रोश को चुनावी डिविडेंड में बदलने की सबसे बड़ी क्षमता बीएसपी में है. जहां उसकी उपस्थित कमजोर है, वहां सबसे महत्वपूर्ण विपक्षी दल को दलित वोट मिल सकता है. वह दल कांग्रेस, आरजेडी, तृणमूल या द्रमुक या इंडियन नेशनल लोकदल या ऐसी ही कोई और पार्टी हो सकती है. बीएसपी के साथ आने से कई राज्यों में दलित वोट कांग्रेस की तरफ लौट सकता है.
हालांकि बीजेपी अभी भी इस कोशिश में है कि दलितों के कम से कम एक हिस्से को विपक्षी खेमे में जाने से रोके. उसके हाथ इसलिए बंधे हैं क्योंकि एससी-एसटी एक्ट या आरक्षण के सवाल पर दलितों के पक्षधर होने या दिखने से उसका कोर हिंदू सवर्ण वोट नाराज हो सकता है. इसलिए उसे बहुत संकरी गली से गुजरना पड़ रहा है. दलितों और सवर्णों को एक साथ साधने की पुरानी कांग्रेसी कला उसके पास नहीं है.
प्रतीकवाद की राजनीति के मौजूदा दौर में जहां नरेंद्र मोदी उग्र सवर्ण हिंदुत्व के सिंबल हैं, वहीं विपक्ष बहुसंख्य वंचित जातियों के सिंबल के तौर पर मायावती को आगे करके उसके सामने एक बड़ी चुनौती पेश कर सकता है.
दलित पीएम का सपना
भारत में इससे पहले बाबू जगजीवन राम प्रधानमंत्री की कुर्सी के सबसे करीब पहुंचे थे. लेकिन जनता पार्टी के समीकरणों में यह मुमकिन नहीं हो पाया और प्रधानमंत्री की कुर्सी मोरारजी देसाई के पास से जगजीवन राम के पास आने की जगह, चौधरी चरण चिंह के पास चली गई. अपना प्रधानमंत्री देखने का दलितों का सपना अब भी अधूरा है.
लेकिन मायावती या बीएसपी इस सपने को खुद पूरा नहीं कर सकतीं.
पूरे विपक्ष को इस दिशा में ले जाने की क्षमता सिर्फ और सिर्फ कांग्रेस में है. कांग्रेस ही एक ऐसी चुनावी हलचल को शुरू कर सकती है, जिसके केंद्र में मायावती हों. मायावती इस बात को समझती हैं कि उनके लिए कांग्रेस कितनी महत्वपूर्ण है.
इसलिए मायावती ने अपने उपाध्यक्ष के राहुल विरोधी बयान को निजी बयान बताने या चेतावनी देने जैसे चलताऊ तरीके से निपटाने की जगह, उसे पद से हटा दिया और इसकी घोषणा भी खुद की और पार्टी के बाकी नेताओं के लिए लिखित चेतावनी भी जारी कर दी.
देश की राजनीति की अगली दिशा मायावती तय कर सकती हैं. लेकिन यह कांग्रेस की सहमति और उसके सक्रिय सहयोग के बिना संभव नहीं है. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के प्रधानमंत्री बनने की संभावनाओं को उनकी मां के विदेशी मूल से जोड़ने वाले बीएसपी उपाध्यक्ष की पद से छुट्टी करके मायावती ने स्पष्ट कर दिया है कि गठबंधन उनके लिए बहुत महत्वपूर्ण है और इसके रास्ते की बाधाओं को वे निर्ममता से निपटेंगी.
इस एक कदम से मायावती प्रधानमंत्री पद की दावेदारी की ओर थोड़ा और आगे बढ़ी हैं. कर्नाटक में एचडी कुमारस्वामी के शपथ ग्रहण समारोह में उनके और सोनिया गांधी के बीच जो 'बहनापा' दिखा था, उसे मायावती ने और पुष्ट किया है.
नजर रखिए बहन मायावती और उनके आसपास हो रही राजनीतिक हलचल पर.
(ये लेखक के निजी विचार हैं)
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