इस्तीफा देकर जल्दीबाजी तो नहीं कर गए नवजोत सिंह सिद्धू, पॉलिटिक्स में सीमित हैं विकल्प
नई दिल्ली- 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले नवजोत सिंह सिद्धू ने जिस अंदाज में बीजेपी छोड़ी थी तो उनका सीधा लक्ष्य पंजाब के मुख्यमंत्री का पद लग रहा था। लेकिन, कैप्टन अमरिंदर सिंह जैसे भारी-भरकम नेता के सामने उनके मंसूबों पर शुरुआती दिनों में ही पानी फिरता चला गया। लेकिन, उन्होंने कभी उम्मीद नहीं छोड़ी। उन्हें लगा कि राहुल और प्रियंका गांधी का गुणगान करके वे एक न एक दिन कैप्टन को पॉलिटिक्स के बैटलफिल्ड में जरूर पटखनी दे देंगे। लेकिन, हर बार वे मुंह की ही खाते रहे। अबकी बार उन्होंने इस्तीफे का मास्टरस्ट्रोक लगाने की कोशिश की है। लेकिन इसके चलते उन्होंने अपने लिए ऐसे हालात बना लिए हैं कि उनके पास ज्यादा विकल्प नहीं बच गए हैं। आइए इस बात का विश्लेषण करने की कोशिश करते हैं कि सिद्धू ने अपने ही सियासी राह में कांटे तो नहीं बिछा लिए हैं?
हर बार कैप्टन से खाए मात!
2017 में कांग्रेस में शामिल होने के साथ ही उन्होंने खुद को अमरिंदर सिंह के मुकाबले में पेश करने की कोशिश की, लेकिन हकीकत में कैप्टन ने कभी उनको खुद पर हावी नहीं होने दिया। कैप्टन को कंट्रोल करने के लिए उन्होंने खुद को गांधी परिवार का बेहद करीबी साबित करने की कोशिश शरू की। उन्होंने यहां तक कहा कि उनके कैप्टन तो राहुल गांधी हैं, लेकिन फिर भी वे अमरिंदर का पोजिशन हिला नहीं पाए। इसके लिए तो उन्हें उनसे माफी मांगने और पिता तुल्य बताने को मजबूर होना पड़ा। लोकसभा चुनाव में भी पार्टी का स्टार प्रचारक होने के बावजूद वे पंजाब से ज्यादातर दूर ही रहे। उन्होंने अमरिंदर पर बादलों के साथ मिलीभगत तक का आरोप लगा दिया। लेकिन, फिर भी पंजाब में कैप्टन की अगुवाई में कांग्रेस का प्रदर्शन और राज्यों की तुलना में काफी बेहतर रहा और अमरिंदर सही मायने में पंजाब में पार्टी के कैप्टन बनकर सामने आए।
खुद ही अलग-थलग पड़ते चले गए
सिद्धू पर अपने मुख्यमंत्री से अनुशासनहीनता के भी आरोप लगे। वे सीएम के मना करने के बावजूद दो बार पाकिस्तान चले गए। इतना ही नहीं उन्होंने पाकिस्तान के सेना चीफ जनरल बाजवा को गले भी लगा लिया, जिससे विपक्ष ही नहीं मुख्यमंत्री भी भड़क गए। सिद्धू को लगा कि ये सब करके वो कांग्रेस की मदद कर रहे हैं और गांधी परिवार के पास अपना नंबर बढ़ा रहे हैं। लेकिन सच्चाई ये है कि उन्होंने पंजाब ही नहीं देश के दूसरे हिस्सों में भी पार्टी की ही फजीहत कराई। नवजोत सिंह सिद्धू और उनकी पत्नी नवजोत कौर ने लोकसभा चुनाव में मनचाहा टिकट नहीं मिलने को लेकर भी खूब हंगामा मचाया। लेकिन, कैप्टन माहिर राजनीतिक खिलाड़ी की तरह सिद्धू को उपहास का पात्र बनते देखते रहे। सिद्धू की तमाम हरकतें उनके खिलाफ गईं और उनके सहयोगियों ने भी धीरे-धीरे उनसे कन्नी काटना शुरू कर दिया। लोकसभा चुनाव के बाद फिर एक बार अमरिंदर सिंह निर्विवाद रूप से पंजाब कांग्रेस का सबसे बड़ा चेहरा बनकर सामने आए और कैप्टन खेमा शहरी इलाकों में पार्टी के खराब परफॉर्मेंस के लिए सिद्धू को जिम्मेदार ठहराने लगा।
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ऐसे घटता गया पंजाब कांग्रेस में सिद्धू का कद
सिद्धू ने कांग्रेस में एंट्री मुख्यमंत्री बनने की ख्वाहिश के साथ की थी। लेकिन, बाद में वे प्रदेश अध्यक्ष से लेकर डिप्टी सीएम तक की मांग तक घटते चले गए। यह तथ्य है कि इनमें से उनकी कोई भी मांग पूरी नहीं हो सकी। पार्टी में धीरे-धीरे उनके ऐसे दिन आ गए कि उन्होंने ये कहना शुरू कर दिया कि "उन्हें हल्के में नहीं लिया जा सकता।" लेकिन, सिद्धू की अपनी हरकतों के चलते पार्टी में उनका दबदबा घटता ही चला गया। चुनाव नतीजों के बाद से ही कैप्टन ने उनके परफॉर्मेंस पर फिर से विचार करने की बात कहनी शुरू कर दी थी। आखिरकार सीएम ने सिद्धू को सबक सिखाने के लिए उनका विभाग बदल दिया। अपना पुराना विभाग वापस पाने के लिए सिद्धू दिल्ली दरबार में दौड़ लगाते रह गए, लेकिन उनकी सुनने के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। लेकिन, फिर भी सिद्धू जमीनी हालात को समझने के लिए तैयार नहीं हुए। वे चाहते तो जिस मुख्यमंत्री को पिता तुल्य बताया था, उनसे मिलकर अपने विभाग को लेकर खुद बात कर सकते थे। कम से कम कांग्रेस के मौजूदा हालात को तो वह समझने की कोशिश कर ही सकते थे। लेकिन, हालात ऐसे बने कि उन्होंने आलाकमान पर प्रेशर डालने के लिए जो चिट्ठी महीने भर पहले लिखी थी, उसे ही जल्दबाजी में सार्वजनिक करना पड़ गया। उन्होंने फिर भी एक बार मुख्यमंत्री से बात करने की नहीं सोची और मीडिया के सवालों से बचने के लिए सीधे इस्तीफा ही भेज दिया।
सियासत के चौराहे पर खड़े हैं सिद्धू!
सिद्धू इस वक्त सियासत के जिस चौराहे पर खड़े हो गए हैं, उनके लिए सही रास्ता पकड़ना आसान नहीं दिख रहा है। जिस गांधी परिवार के भरोसे उन्होंने भाजपा का साथ छोड़ा, उसे आज खुद अपने राजनीतिक भविष्य का कुछ पता नहीं है। गांधी परिवार के चहेते बनने के लिए वे जिस तरह से नरेंद्र मोदी पर फब्तियां कस चुके हैं, अब उन्हें वहां आसानी से कोई आसरा मिलेगा, इसकी संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं देती। हालांकि, बीजेपी में उनकी सबसे ज्यादा खुन्नस अरुण जेटली से थी, जो स्वास्थ्य कारणों से सक्रिय राजनीति से दूर हो चुके हैं। ऐसे में अगर सिद्धू की जुबान कंट्रोल में रही होती तो उनकी घर वापसी ज्यादा मुश्किल भी नहीं थी। वैसे राजनीति में किसी बात की गारंटी देना बहुत ही मुश्किल है। जहां तक बात अकालियों का है, तो उनके साथ तो सिद्धू दंपति का हमेशा से छत्तीस का आंकड़ा रहा है। यही वजह है कि आज सिद्धू के सामने हालात ऐसे हो चुके हैं कि उन्हें पंजाब की लोक इंसाफ पार्टी और पंजाबी एकता पार्टी जैसे दलों से 2022 के लिए मुख्यमंत्री उम्मीदवार बनाने का ऑफर मिल रहा है। ऐसी स्थिति में उनके सामने हालात बहुत ही विकट हो चुके हैं। वह आसानी से कांग्रेस छोड़ भी नहीं सकते और पार्टी में बने रहते हैं, तो अमरिंदर के सामने वो अपनी बोलती कब तक बंद रख पाएंगे, ये उनके लिए बड़ी चुनौती होगी।
पंजाब के एक मंत्री ने सिद्धू की मौजूदा राजनीतिक स्थिति को ज्यादा अच्छे तरीके से परिभाषित करने की कोशिश की है। इंडिया टुडे से पंजाब के पशुपालन मंत्री तृप्त राजिंदर सिंह बाजवा ने कहा है,"बड़े सपने देखने में कोई बुराई नहीं है। सिद्धू इंटेलिजेंट हैं और बदलाव ला सकते हैं, लेकिन उन्हें पहले अनुशासन में रहना चाहिए और मुख्यमंत्री का आदर करना चाहिए।"