नवीन पटनायकः एक और 'पप्पू' जो 18 वर्षों से कर रहा है ओडिशा पर राज
एक ज़माने में कम से कम ओडिशा की राजनीति में नवीन पटनायक का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था. लेकिन अब केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को उनके एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश किया जा रहा है. कितने कारगर साबित होंगे वो?
रूबेन बैनर्जी बताते हैं, "नवीन पटनायक की विश्वसनीयता की बराबरी करना मुश्किल है. लेकिन धर्मेंद्र प्रधान के पक्ष में ये बात जाती है कि वो बीजू पटनायक के बाद केंद्र में दूसरे सबसे सफल उड़िया नेता हैं. तेल और पेट्रोलियम जैसा महत्वपूर्ण विभाग पहले किसी उड़िया नेता को नहीं दिया गया है."
भारतीय राजनीति में सिर्फ़ सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन कुमार चामलिंग अकेले राजनेता हैं जो नवीन पटनायक से अधिक समय तक इस पद पर बने रहे हैं.
नवीन के बारे में मशहूर है कि वो शायद भारत के सबसे चुप रहने वाले राजनेता हैं जिन्हें शायद ही किसी ने आवाज़ ऊंची कर बात करते सुना है.
हाल ही में नवीन पटनायक की जीवनी लिखने वाले अंग्रेज़ी पत्रिका आउटलुक के संपादक रूबेन बैनर्जी बताते हैं, "आप उनसे मिलेंगे तो पाएंगे कि उनसे बड़ा सॉफ़्ट स्पोकेन, शिष्ट, सभ्रांत और कम बोलने वाला शख़्स है ही नहीं. कभी कभी तो लगता है कि वो राजनेता हैं ही नहीं. लेकिन सच ये है कि उनसे बड़े राजनीतिज्ञ बहुत कम लोग हैं."
"वो न सिर्फ़ राजनीतिज्ञ हैं बल्कि निर्मम राजनीतिज्ञ हैं. इस हद तक कि पहुंचे हुए राजनीतिज्ञ भी उनका मुकाबला नहीं कर सकते. कुछ लोग कहते हैं कि राजनीति उनकी रगों में है. लेकिन ये भी सच है कि अपने जीवन के शुरुआती 50 सालों में उन्हेंने राजनीति की तरफ़ रुख़ नहीं किया. लेकिन एक बात पर किसी का मतभेद नहीं हो सकता कि नवीन बहुत चालाक हैं. ओडिशा में उनकी टक्कर का राजनेता दिखाई नहीं देता."
नवीन पटनायक को राजनीति विरासत में मिली थी. उनके पिता बीजू पटनायक न सिर्फ़ ओडिशा के मुख्यमंत्री थे बल्कि जाने माने स्वतंत्रता सेनानी और पायलट थे.
दूसरे विश्व युद्ध, इंडोनेशिया के स्वतंत्रता संग्राम और 1947 में कश्मीर पर पाकिस्तान के हमले के दौरान उनकी भूमिका को अभी तक याद किया जाता है.
बीजू पटनायक का योगदान
बीजू पटनायक के जीवनीकार सुंदर गणेशन अपनी किताब 'द टॉल मैन' में लिखते हैं, "बीजू पटनायक ने दिल्ली की सफ़दरजंग हवाई पट्टी से श्रीनगर के लिए अपने डकोटा डी सी-3 विमान से कई उड़ाने भरी थीं. 17 अक्टूबर 1947 को वो लेफ़्टिनेंट कर्नल देवान रंजीत राय के नेतृत्व में 1-सिख रेजिमेंट के 17 जवानों को ले कर श्रीनगर पहुंचे थे."
"उन्होंने ये देखने के लिए कि हवाई पट्टी पर पाकिस्तानी सैनिकों का कब्ज़ा तो नहीं हो गया था, दो बार बहुत नीचे उड़ान भरी. प्रधानमंत्री पंडित नेहरू की तरफ़ से उन्हें साफ़ निर्देश थे कि अगर उन्हें ये लगे कि हवाई पट्टी पर पाकिस्तान का नियंत्रण हो गया है तो वो वहाँ पर अपना विमान न उतारें."
"बीजू पटनायक ने विमान को ज़मीन से कुछ ही मीटर ऊपर उड़ाते हुए देखा कि विमान पट्टी पर एक भी शख़्स मौजूद नहीं था. उन्होंने अपने विमान को नीचे उताता और वहाँ पहुंचे 17 भारतीय सैनिकों ने पाकिस्तानी हमलावरों को खदेड़ने में बहुत बड़ी भूमिका निभाई."
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उड़िया नहीं आती थी नवीन पटनायक को
जब बीजू पटनायक का देहांत हुआ तो उनके ताबूत पर तीन देशों के झंडे लिपटे हुए थे -भारत, रूस और इंडोनेशिया. अपने पिता की मौत के बाद नवीन पटनायक ने जब ओडिशा में अपना पहला भाषण दिया तो वो हिंदी में था, क्योंकि नवीन को उड़िया आती ही नहीं थी.
रूबेन बैनर्जी बताते हैं, "जब नवीन साल 2000 में ओडिशा विधानसभा का चुनाव लड़ने आए तो उन्हें उड़िया बोलनी आती नहीं थी, क्योंकि उन्होंने अपनी पूरी उम्र ओडिशा के बाहर बिताई थी. मुझे याद है वो अपने भाषण के शुरू में रोमन में लिखी एक लाइन बोलते थे, मोते भॉलो उड़िया कॉहबा पाईं टिके समय लगिबॉ."
"लेकिन इसका उन्हें फ़ायदा हुआ. उस समय ओडिशा में राजनीतिक वर्ग इतना बदनाम हो चुका था कि लोगों को नवीन का उड़िया न बोल पाना अच्छा लग गया. लोगों ने सोचा कि इसमें और दूसरे राजनेताओं में फ़र्क है. ये हमें बचाएंगे. इसलिए उन्होंने नवीन को मौका देने का फ़ैसला किया."
"नवीन अभी भी ढंग से उड़िया नहीं बोल सकते, लेकिन उस समय उन्होंने लोगों से बिना उनकी ज़ुबान बोले जो संवाद स्थापित किया, वो अब भी बरकरार है. क्या आप कल्पना कर सकते हैं कि ममता बैनर्जी बांग्ला में बात किए बिना बंगाल के लोगों से वोट मांग सकती हैं? अब तो हालत ये है कि नवीन लोगों से उनकी भाषा में बात करें या न करें या अंग्रेज़ी में बात करें या फ़्रेंच भी बोलें तो भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता."
दिल्ली के पार्टी सर्किट में पैठ
बीजू पटनायक के रहते रहते नवीन पटनायक का राजनीति से कोई वास्ता नहीं था. वो दिल्ली में रहते थे और यहाँ की पार्टी सर्किट में उनकी अच्छी पहुंच रहती थी.
रूबेन बैनर्जी बताते हैं, "वो सोशलाइट थे. दून स्कूल में पढ़ा करते थे, जहाँ संजय गांधी उनके क्लास मेट हुआ करते थे. कला और संस्कृति में उनकी बहुत दिलचस्पी हुआ करती थी. वो यूरोपीय एक्सेंट में अंग्रेज़ी बोलते थे. उन्हें डनहिल सिगरेट से बहुत प्यार था और वो फ़ेमस ग्राउस विह्सकी के भी शौकीन थे."
"दिल्ली के मशहूर ओबेरॉय होटल में उनका एक बुटीक होता था 'साइकेल्ही'. उन्होंने मर्चेंट आइवरी की 1988 में आई फ़िल्म 'द डिसीवर्स' में एक छोटा रोल भी किया था. जॉन एफ़ केनेडी की पत्नी जैकलीन केनेडी उनकी दोस्त थीं. 1983 में जब वो भारत यात्रा पर आई थीं तो नवीन उनके साथ जयपुर, जोधपुर, लखनऊ और हैदराबाद गए थे."
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नवीन की सोनिया से मुलाकात
मशहूर पत्रकार तवलीन सिंह ने अपनी बहुचर्चित किताब 'दरबार' में साल 1975 की दिल्ली की राजनीतिक गतिविधियों का बहुत सजीव चित्रण खींचा है.
वो लिखती हैं, "आपातकाल की घोषणा के कुछ दिनों बाद मार्तंड सिंह ने मुझे और नवीन पटनायक को खाने पर बुलाया. हम दोनों अपने ड्रिंक्स ले कर उनकी बैठक के कोने में बैठे हुए थे. अचानक हमने देखा कि सामने के दरवाज़े से राजीव गांधी और सोनिया गांधी अंदर आ रहे हैं."
"राजीव ने सफ़ेद रंग का कलफ़ लगा कुर्ता पायजामा पहन रखा था, जबकि सोनिया ने एक सफ़ेद ड्रेस पहन रखी थी जो उनके टख़नों तक आ रही थी. नवीन ने कहा कि वो उनके पास नहीं जाएंगे, क्योंकि शायद उन्हें मुझसे मिलना अटपटा लगे, क्योंकि कुछ दिन पहले ही राजीव की माँ इंदिरा गांधी ने मेरे पिता बीजू पटनायक को जेल में डाला था."
"तभी मार्तंड की भाभी नीना हमारे पास आ कर बोलीं कि सोनिया गांधी पूछ रही हैं कि कोने में नवीन पटनायक तो नहीं खड़े हैं? हम दोनों ने सोचा कि अब चूंकि हमें पहचान ही लिया गया है, तो क्यों न उनके पास चल कर उन्हें हेलो कर ही दिया जाए."
"जब हम उनके पास पहुंचे तो नवीन ने सोनिया की सफ़ेद फ़्रॉक की तारीफ़ करते हुए कहा, 'क्या इसे आपने वेलेन्टिनो से ख़रीदा है?' सोनिया ने कहा, 'नहीं, इसे ख़ान मार्केट में मेरे दर्ज़ी ने सिला है.'"
पाँच सितारा होटल में रिहाइश
रूबेन बैनर्जी बताते हैं कि इंडिया टुडे ने उन्हें 1998 में अस्का संसदीय क्षेत्र से नवीन पटनायक का चुनाव कवर करने के लिए भेजा था. जब वो अपने फ़ोटोग्राफ़र के साथ अस्का पहुंचे तो उन्हें नवीन पटनायक कहीं नहीं दिखाई दिए. बहुत मुश्किल से उनका उनके एक सहयोगी से संपर्क हो पाया.
नवीन पटनायक ने उन्हें अगले दिन गोपालपुर बीच पर मरमेड होटल पर आने के लिए कहा. रूबेन वहाँ पहुंचे लेकिन नवीन का तब भी कोई अतापता नहीं था. तभी वहाँ पर एक कोल्ड ड्रिंक बेचने वाले ने उनसे वहाँ उनके आने का कारण पूछा.
जब उन्होंने बताया कि वो नवीन पटनायक से मिलने आए हैं, तो वो हंसने लगा और बोला, आपको नवीन यहाँ नहीं बल्कि ओबेरॉय गोपालपुर में मिलेंगे. अब इस होटल का नाम मेफ़ेयर पाम बीच रिसॉर्ट हो गया है. जब रूबेन वहाँ पहुंचे तो उन्होंने देखा कि पूरी दुनिया से बेख़बर नवीन पूल के बगल में बैठे सिगरेट पी रहे है.
नवीन इस बात पर राज़ी हो गए कि रूबेन उनके साथ चुनाव प्रचार पर चलेंगे. लेकिन इसके लिए उन्होंने दो शर्तें रखीं. पहली ये कि वो अपनी रिपोर्ट में ये नहीं बताएंगे कि वो प्रचार के दौरान ओबेरॉय होटल में रह रहे हैं और दूसरा ये कि वो सिगरेट पीते हैं.
शायद वो अपने मतदाताओं को ये नहीं बताना चाहते थे कि भारत के सबसे पिछड़े इलाके के मतदाताओं से वोट मांगने वाला शख़्स एक पाँच सितारा होटल में रह रहा है. वो अपनी अच्छे लड़के की छवि को बरकरार रखना चाहते ते और इसके लिए झूठ बोलने के लिए भी तैयार थे.
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बिजॉय महापात्रा को राजनीतिक पटखनी
मुख्यमंत्री बनने के बाद नवीन पटनायक की राजनीतिक परिपक्वता का नज़ारा तब मिला जब उन्होंने पार्टी के नंबर दो नेता बिजॉय महापात्रा का टिकट काट दिया.
रूबेन बैनर्जी बताते हैं, "मेरी नज़र में बिजॉय महापात्रा बहुत बड़े क्षेत्रीय नेता थे. वो बीजू बाबू के मंत्रिमंडल के सदस्य भी रह चुके थे. पर्चा भरने के आखिरी दिन नवीन पटनायक ने पाटकुरा विधानसभा क्षेत्र से उनका पर्चा रद्द कर अतानु सब्यसाची को टिकट दे दिया."
"समय सीमा समाप्त होने से कुछ मिनट पहले ही सब्यसाची ने अपना पर्चा दाखिल किया. महापात्रा को इतना समय भी नहीं मिला कि वो किसी दूसरे क्षेत्र से अपना पर्चा दाख़िल कर पाते. महापात्रा ने मजबूर हो कर एक निर्दलीय उम्मीदवार तिर्लोचन बहेरा को समर्थन देने का फ़ैसला किया. बहेरा जीत भी गए."
"महापात्रा उम्मीद लगाए बैठे थे कि वो उनके लिए अपनी सीट खाली कर देंगे. लेकिन नवीन ने उनको भी अपनी तरफ़ फोड़ लिया. बहेरा ने वो सीट महापात्रा के लिए नहीं खाली की और उन्हें उपचुनाव लड़ कर विधानसभा पहुंचने का कोई मौका नहीं मिला. मेरी नज़र में अपने राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी को इस तरह दरकिनार करने का ये तरीका बहुत अनैतिक था."
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प्यारीमोहन महापात्रा से भी पिंड छुड़ाया
बिजॉय महापात्रा ही नहीं, उन्होंने अपने बहुत नज़दीकी आईएएस अफ़सर प्यारी मोहन महापात्रा से जिस तरह किनारा किया, उससे भी लोग हतप्रभ रह गए.
रूबेन बैनर्जी बताते हैं, "प्यारी बाबू बहुत योग्य आईएएस अफ़सर थे. उनको हमेशा पता रहता था कि पार्टी में क्या हो रहा है. शुरू के दिनों मे लोगों को आभास मिला कि नवीन तो सिर्फ़ मुखौटा हैं. असली सत्ता तो प्यारी बाबू के हाथ में है."
"ये छवि बनाने की कोशिश की गई कि प्यारी नवीन का इस्तेमाल कर रहे हैं, जबकि असलियत ये थी कि नवीन प्यारी का इस्तेमाल कर रहे थे. लेकिन उन दोनें के बीच 2008 से दूरी आनी शुरू हो गई, क्योंकि प्यारी बाबू भी बहुत महत्वाकांक्षी थे."
रूबेन बताते हैं कि प्यारी बाबू के निधन से पहले मेरी उनसे मुलाकात हुई थी. उन्होंने मुझे बताया था, "समस्या तब से शुरू हुई जब 2009 में नवीन दिल्ली आए थे. उनकी बहन गीता मेहता भी दिल्ली आई हुई थीं. उन्होंने प्यारी बाबू को खाने पर बुलाया. नवीन की तबियत ठीक नहीं थी."
"भोज के दौरान गीता ने कहा कि नवीन पर इतना दबाव रहता है, जिसकी वजह से उनकी तबियत भी खराब रहती है. आप क्यों नहीं उप मुख्यमंत्री बन जाते? नवीन को ये बात पसंद नहीं आई. उन्होंने सोचा कि उनकी सगी बहन इस तरह सोच सकती है, तो साढ़े चार करोड़ उड़िया लोग भी इसी तरह सोचते होंगे."
"उसी दिन से प्यारी बाबू की उल्टी गिनती शुरू हो गई. बाद में प्यारी बाबू ने विधायकों की एक बैठक बुलाई थी. नवीन ने उन पर आरोप लगाया कि वो उनके ख़िलाफ़ बग़ावत करवा रहे हैं. धीरे-धीरे उनके पास नवीन के फ़ोन आने बंद हो गए और वो उनकी अनदेखी करने लगे. इससे पता चलता है कि नवीन राजनीतिक रूप से कितने चतुर हो चुके थे."
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एयू सिंहदेव और जय पंडा थे सबसे करीबी दोस्त
जब नवीन पटनायक पहली बार ओडिशा आए तो वहाँ उनके सिर्फ़ दो करीबी दोस्त थे. एयू सिंहदेव और जय पंडा. लेकिन इन दोनों के साथ भी उनकी दोस्ती अधिक दिनों तक नहीं चली और उन्हें भी पार्टी से बाहर जाना पड़ा.
जय पंडा बताते हैं, "नवीन शुरू से ही अंतर्मुखी थे. ज्यादा बोलते नहीं थे. लेकिन जब कभी खाने पर साथ बैठते थे तो वो हमसे खुल कर बातें करते थे. साठ के दशक में वो देश के बाहर न्यूयॉर्क, मिलान और लंदन में रह चुके थे, इसलिए उनकी सोच संकुचित नहीं थी. पश्चिमी जगत के रॉक स्टार्स से उनकी दोस्ती थी."
"जब वो 1997 में राजनीति में आए तो उन्होंने 2013-14 तक एक किस्म की राजनीति की और उसके बाद दूसरे किस्म की. वर्ष 2014 तक मुझे उनकी राजनीति पर गर्व था. वो सिद्धांतों की राजनीति थी. उन्होंने भ्रष्टाचार के खिलाफ़ सख़्त कदम उठाए थे."
"लेकिन जब उनका तीसरा कार्यकाल शुरू हुआ तो उनके विचारों में परिवर्तन आना शुरू हो गया. कुछ नए लोगों ने आ कर उन्हें घेरना शुरू कर दिया, जिसकी वजह से ओडिशा पिछड़ना शुरू हो गया."
मैंने जय पंडा से पूछा कि ऐसी क्या वजह थी कि नवीन पटनायक के इतने नज़दीक होने के बावजूद आप उनसे दूर चले गए, तो उनका कहना था, "शुरू से लोग कोशिश कर रहे थे उनके और मेरे बीच ग़लतफ़हमी पैदा करने की. हम लोग इसके बारे में बातें भी करते थे और हंसा करते थे. एक हफ़्ते में हम तीन चार बार खाने पर मिला करते थे."
"लेकिन 2014 के बाद उनकी एक नई कोटरी बन गई जो मेरे ख़िलाफ़ उनके कान भरने लगे. मैंने नोट किया कि पहले जिन बातों को हम हंस कर उड़ा देते थे, उन्हें नवीन गंभीरता से लेने लगे."
"मैंने तीन चार बार उनसे बैठ कर उन्हें बताने की कोशिश की कि मेरे खिलाफ़ ग़लत प्रचार किया जा रहा है कि मैं महत्वाकांक्षी हूँ और सत्ता हथियाने की कोशिश कर रहा हूँ. लेकिन इसका उन पर कोई असर नहीं हुआ और मुझे पार्टी से बाहर कर दिया गया."
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उड़िया के अध्यापक की छुट्टी
नवीन पटनायक ने बहुत पहले ही जींस और टी शर्ट पहनना छोड़ कर कुर्ता पायजामा पहनना शुरू कर दिया था लेकिन बाद में खोर्दा की मशहूर लुंगी पहनने लगे. मुख्यमंत्री के रूप में उनके शुरू के दिनों में उड़िया के एक रिटायर्ड अध्यापक राजकिशोर दास उन्हें उड़िया पढ़ाने आते थे.
लेकिन वो एक कोने में चुपचाप बैठे कॉफ़ी पीते रहते थे, क्योंकि नवीन के पास उनके लिए समय नहीं होता था. कुछ दिनों बाद उन्होंने आना ही बंद कर दिया. नवीन का दिन सुबह संतरे के जूस के एक गिलास से शुरू होता था. उसके बाद वो तरबूज़ और पपीते की कुछ फांकें खाते थे.
11 बजे दफ़्तर जाने से पहले वो नारियल पानी का एक गिलास लेते थे. दोपहर में वो बहुत हल्का खाने के लिए घर लौटते थे. आमतौर से वो खिचड़ी और दही या सूप के साथ एक ब्रेड लिया करते थे.
रात को वो देर से घर लौटते थे और फ़ेमस ग्राउस विहस्की के कुछ पेग लगाने के बाद खाना खाते थे. रेड थाई करी उनका पसंदीदा व्यंजन हुआ करता था.
घर का नाम पप्पू था नवीन का
उनके करीबी दोस्तों में मशहूर पत्रकार वीर साँघवी भी थे. एक बार उन्होंने हिंदुस्तान टाइम्स में उनके दिल्ली के दिनों के बारे में लिखा था, "पप्पू को सांसारिक चीज़ों का कोई मोह नहीं था. वो सही पते पर रहते थे. उनके दो नौकर, कार और एक ड्राइवर हुआ करता था, क्योंकि उन्हें कार चलानी नहीं आती थी."
"वो कभी भी नामी रेस्तराँ में खाना नहीं खाते थे. उनके घर आने वाले लोग, चाहे वो कितने ही बड़े क्यों न हों, उनके रसोइए मनोज का बना खाना खाते थे. एक बार जब वो थोड़े नशे में थे, मैंने उनसे पूछा कि आपकी सादगी की वजह क्या है?"
"उनका जवाब था, 'मैंने दूसरों के घरों में दुनिया की सबसे ख़ूबसूरत चीज़ें देखी हैं. सुंदरता को पसंद करने के लिए ये ज़रूरी नहीं कि आप उसके मालिक हों. आपको उन्हें सराहना आना चाहिए.'"
क्या 2019 में भी चलेगा नवीन का जादू?
इतने साल सत्ता में रहने के वावजूद क्या 2019 के चुनाव में भी सत्ता पर नवीन की दावेदारी उतनी ही मज़बूत रहेगी?
रूबेन बैनर्जी कहते हैं, "नवीन साल 2000 में जीते थे 'एस्टैब्लिशमेंट' यानी सत्ता प्रतिष्ठान का विरोध करते हुए. 19 साल बाद 2019 में वो खुद 'एस्टैब्लिशमेंट' बन गए हैं. ये सभी मानते हैं कि ओडिशा में औद्योगिकीकरण नहीं हुआ. ये भी आप नहीं कह सकते कि ओडिशा एक अमीर राज्य बन गया है."
"थोड़ा बहुत काम हुआ है ग़रीबी उन्मूलन की दिशा में. 75 लाख लोगों को ग़रीबी रेखा से ऊपर उठाया गया है. नवीन पटनायक के पक्ष में एक बात जाती है कि उनकी अपनी छवि बहुत अच्छी है और वो शायद निजी तौर पर भ्रष्ट नहीं हैं."
"उनकी इस बात के लिए आलोचना की जा सकती है कि उन्होंने सार्वजनिक धन को बर्बाद किया है, लेकिन उन्होंने लोगों को खुश करने के लिए बहुत सी योजनाएं चलाई हैं... एक रुपए में चावल, मुफ़्त साइकिल... आप जो भी सामान मांगेंगे, आपको मुफ़्त में मिल जाएगा."
"उन्होंने 'आहार मील' भी शुरू किया है, जहाँ पांच रुपये में आपको चावल और दाल मिलता है पर इससे न तो राज्य का विकास हो रहा है और न ही संसाधन बढ़ रहे है. लेकिन इससे गरीब लोग तो खुश हैं."
धर्मेंद्र प्रधान मज़बूत प्रतिद्वंद्वी
एक ज़माने में कम से कम ओडिशा की राजनीति में नवीन पटनायक का कोई प्रतिद्वंद्वी नहीं था. लेकिन अब केंद्रीय पेट्रोलियम मंत्री धर्मेंद्र प्रधान को उनके एक प्रतिद्वंद्वी के रूप में पेश किया जा रहा है. कितने कारगर साबित होंगे वो?
रूबेन बैनर्जी बताते हैं, "नवीन पटनायक की विश्वसनीयता की बराबरी करना मुश्किल है. लेकिन धर्मेंद्र प्रधान के पक्ष में ये बात जाती है कि वो बीजू पटनायक के बाद केंद्र में दूसरे सबसे सफल उड़िया नेता हैं. तेल और पेट्रोलियम जैसा महत्वपूर्ण विभाग पहले किसी उड़िया नेता को नहीं दिया गया है."
"नवीन को सत्ता में रहने का नुक़सान भी हो रहा है. जैसे जैसे दिन बीत रहे हैं, वो बूढ़े भी होते जा रहे हैं. उनमें थोड़ा सा अहंकार भी आ गया है. उनके बड़े से बड़े समर्थक भी मानेंगे कि ओडिशा की राजनीति में भी उनकी वो ठसक नहीं है, जो पहले हुआ करती थी."