लोकसभा चुनाव 2014: तीसरा मोर्चा क्यों नहीं बन पाया उम्मीदों का विकल्प?
बैंगलोर। शुक्रवार को आये चुनावी नतीजों में साबित हो गयी कि मोदी लहर ने जहां कांग्रेस का सफाया किया है वहीं तीसरे मोर्चे की सारी उम्मीदों पर भी पानी फेर दिया। इन चुनावी नतीजों ने मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड),समाजवादी पार्टी , अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल, जनता दल (सेक्युलर), झारखंड विकास मोर्चा, फ़ॉरवर्ड ब्लॉक, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी और असम गण को हाशिये पर लाकर खड़ा कर दिया है और सपा प्रमुख मुलायम सिंह के उस सपने को चकनाचूर कर दिया है जिसमें वो खुद को पीएम बनते हुए देखते थे।
5 कारण जिनकी वजह से मनमोहन सिंह नहीं हुए मन-मोहन
आखिर क्या रहे वो कारण जिनकी वजह से देश की जनता ने तीसरे मोर्च को ही सिरे से खारिज कर दिया। पत्रिका के संपादकीय अंक में राजनैतिक विश्लेषक और लखनऊ विश्वविद्यालय के पत्रकारिता विभाग के अस्सिटेंट प्रोफेसर डॉ. मुकुल श्रीवास्तव ने विस्तृत रूप से तीसरे मोर्चे की विफलता के कारणों का आंकलन किया है।
डॉ. मुकल श्रीवास्तव ने लिखा है कि तीसरी मोर्चे की हार साबित करती है कि तीसरा मोर्चा यानी मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी, जनता दल (यूनाइटेड),समाजवादी पार्टी , अन्नाद्रमुक, बीजू जनता दल, जनता दल (सेक्युलर), झारखंड विकास मोर्चा, फ़ॉरवर्ड ब्लॉक, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी और असम गण परिषद जैसी पार्टियों को मिलाकर बना ये भानुमती का कुनबा देश को उम्मीद और भरोसे को जीत नहीं पाया।
आगे की खबर स्लाइडों में...
तीसरे मोर्चे को नहीं मिली तवज्जो..
डॉ. मुकुल श्रीवास्तव ने लिखा है कि माना जाता है की दिल्ली का रास्ता लखनऊ से होकर गुजरता है और उत्तर भारत में तीसरे मोर्चे के घटक दलों ने दयनीय प्रदर्शन किया है.उत्तरप्रदेश में समाजवादी पार्टी वहीं बिहार में जनता दल यूनाइटेड अपने प्रदेश में लोगों की उम्मीद पर खरे नहीं उतरे,जबकि ओडीशा में बीजू जनता दल और तमिलनाडु में अन्नाद्रमुक ने अच्छा प्रदर्शन किया है.साफ़ है कि तीसरे मोर्चे की अवधारणा को लोगों ने गंभीरता से नहीं लिया.
मोर्चे के पीछे कोई वैचारिक प्रतिबधता नहीं
तीसरा मोर्चा इतनी बार बना और बिगड़ा है कि जनता ने ये मान लिया कि इस मोर्चे के पीछे कोई वैचारिक प्रतिबधता नहीं बल्कि कुछ दलों की निजी राजनैतिक महत्वाकांक्षा मात्र है,तीसरे मोर्चे के विचार को आगे बढ़ाने में हमेशा आगे रहने वाले वाम दल लगातार अपनी राजनैतिक ज़मीन खोते जा रहे हैं,पश्चिम बंगाल में इनका सूपड़ा साफ़ होना इस बात का संकेत है कि इनके वोट बैंक में एक नयी राजनैतिक चेतना का सूत्रपात हो रहा है जिसकी ओर इन दलों ने ध्यान नहीं दिया,
तीसरे मोर्चे का कोई चेहरा नहीं
उत्तरप्रदेश और बिहार में समाजवादी आन्दोलन सिर्फ यादव और मुस्लिम केन्द्रित होकर रह गया जिसका खामियाजा उन्हें इस चुनाव में भुगतना पड़ा.तथ्य यह भी है कि तीसरे मोर्चे का कोई चेहरा नहीं था.बी जे पी जहाँ मोदी के नाम पर मैदान में थी वहीं कांग्रेस में नेतृत्व की कमान राहुल गांधी के हाथ में थी जबकि तीसरा मोर्चा इस परिकल्पना पर आगे बढ़ रहा था की जिस पार्टी को ज्यादा सीट मिलेगी उस दल का नेता प्रधानमंत्री बनेगा।
विकास के आगे हार गयी सेक्युलर सोच
इस परिकल्पना ने मतदाताओं को यह सोचने पर मजबूर किया कि इस बार के तीसरे मोर्चे का भविष्य भी अतीत में बने तीसरे मोर्चे जैसा ही होगा,जबकि देश स्थिर और मजबूत सरकार की उम्मीद में था.जाहिर है कि बीजेपी के विकास के मुद्दे के आगे तीसरे मोर्चे की सेक्युलर सोच को प्राथमिकता में नहीं रखा.
सोशल मीडिया से दूर तीसरा मोर्चा
इंटरनेट ऐंड मोबाइल एसोसिएशन ऑफ इंडिया के मुताबिक, देश के 24 राज्यों में इंटरनेट उपयोगकर्ता मतदान में तीन से चार प्रतिशत तक का बदलाव लाएंगे.बीजेपी ने जिस तरह साइबर वर्ल्ड में सोशल मीडिया की सहायता से अपना प्रचार अभियान छेड़ा तीसरे मोर्चे के घटक दल उसमें भी बहुत पीछे छूट गए.
तीसरा मोर्चा उम्मीद का विकल्प नहीं
उत्तर प्रदेश में समाजवादी पार्टी ने भले ही पंद्रह लाख लैपटॉप बांटे पर सोशल मीडिया में समाजवादी पार्टी की उपस्थिति नगण्य रही और यही हाल तीसरे मोर्चे के अन्य घटक दलों का भी रहा.जाहिर है तीसरे मोर्चे के घटक दल हवा का रुख भांप कर रणनीति बनाने में असफल रहे सूचना तकनीक के इस युग में जब वक्त के हर लम्हे का दस्तावेजीकरण हो रहा है और जनता भी बदल रही है ऐसे में तीसरा मोर्चा उम्मीद का विकल्प नहीं बन पाया.