"पति से ज़्यादा मेड ज़रूरी...फिर इज़्ज़त देने में कंजूसी क्यों?"
आपने लोगों को ऐसी बहुत-सी बातें कहते सुना होगा. सिर्फ़ औरतें नहीं मर्द भी ऐसा कहते हैं. सगी बहन को दीदी बोलने से कतराने वाले भी मेड के आते ही दीदी-दीदी करने लगते हैं. जो मां के खाने में स्वाद नहीं खोज पाते वो भी मेड के तेल तैरते, बासी आटे की रोटी खाकर कहते हैं... "अरे दो वक़्त खाना बना रही है, कम है क्या."
"मेड को भी न उसी दिन छुट्टी करनी होती है जिस दिन मेरी छुट्टी होती है. अब मेरी छुट्टी तो गई."
"अच्छी मेड मिलने के लिए अच्छी क़िस्मत चाहिए."
आपने लोगों को ऐसी बहुत-सी बातें कहते सुना होगा. सिर्फ़ औरतें नहीं मर्द भी ऐसा कहते हैं. सगी बहन को दीदी बोलने से कतराने वाले भी मेड के आते ही दीदी-दीदी करने लगते हैं. जो मां के खाने में स्वाद नहीं खोज पाते वो भी मेड के तेल तैरते, बासी आटे की रोटी खाकर कहते हैं... "अरे दो वक़्त खाना बना रही है, कम है क्या."
तो मोटी बात ये है कि डोमेस्टिक हेल्पर्स यानी मेड आज के समय में कई घरों का अटूट हिस्सा बन चुके हैं. ख़ासतौर पर शहरों में बसने वाले परिवारों का.
लेकिन वो अब भी परिवार का सदस्य नहीं बन पाए हैं. उनका काम ज़रूरी तो है लेकिन उन्हें इज़्जत अब भी नहीं मिलती.
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क्यों न मनाएं बाई डे?
अपने ज़माने की मशहूर बॉलीवुड अभिनेत्री दीप्ति नवल ने 15 मई को फ़ेसबुक पर एक पोस्ट डाली और लिखा कि "क्यों न 15 अक्टूबर को बाई डे मनाया जाए?"
एक तस्वीर भी है. उनकी मां और उनकी 'बाई' की. 'बाई' के हाथ में एक नऊवारी साड़ी है जो अमरीका जाने से पहले उनकी मां ने अपनी 'बाई' को उपहार के तौर पर दी.
दीप्ति ने लोगों से अपील की है कि वो 15 अक्टूबर के दिन को अपनी 'बाइयों' को ख़ास महसूस कराएं.
15 अक्टूबर का दिन चुनने के पीछे दीप्ति नवल की दलील है कि इस दिन इंटरनेशनल रूरल विमेन्स डे यानी अंतरराष्ट्रीय ग्रामीण महिला दिवस मनाया जाता है, और इस कारण इसी दिन बाई डे मनाया जाना चाहिए.
पर सवाल ये है कि अगर बात डोमेस्टिक हेल्पर्स की है तो 'बाई डे' क्यों? कई घरों में काम करने वाले तो पुरुष भी होते हैं?
इस पर दीप्ति कहती हैं, "होते हैं, लेकिन ज़्यादातर तो महिलाएं ही होती हैं और जो तस्वीर मैंने शेयर की है उसी को देखकर ये ख़्याल आया."
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लेकिन सवाल ये उठता है कि बाई दिवस मनाने की ज़रूरत क्यों?
तृप्ति लाहिरी ने डोमेस्टिक हेल्पर्स पर एक किताब लिखी है, 'मेड इन इंडिया'. किताब के अनुसार, 1931 में जनगणना के अनुसार देश में 27 लाख लोगों को 'सर्वेंट' माना गया. साल 1991 और 2001 के बीच ये आंकड़ा तेज़ी से बदला और इसमें 120 फ़ीसदी बढ़ोत्तरी हुई.
ये डोमेस्टिक हेल्पर्स मुख्य रूप से भारत के उन हिस्सों से आते हैं जहां ग़रीबी ज़्यादा है. मुख्य रूप से झारखंड, पश्चिम बंगाल और असम से.
लाहिरी अपनी किताब में लिखती हैं कि "हम पहले खाते हैं वो बाद में, हम कुर्सियों पर बैठते हैं वो ज़मीन पर, हम उन्हें उनके नाम से बुलाते हैं और वो हमें मैडम या सर कह कर पुकारते हैं."
दिल्ली से सटे नोएडा में कुछ घरों में बतौर डोमेस्टिक हेल्पर काम करने वाली बसंती कहती हैं कि हम लोगों की ज़िदगी बहुत मुश्किल है लेकिन पति की कमाई पूरी नहीं पड़ती इसलिए काम करना छोड़ भी नहीं सकते.
"मैं सुबह चार बजे उठती हूं. तीन साल का बेटा है. सास-ससुर हैं, पति है. दोपहर तक के लिए सबके खाने-पीने का इंतज़ाम करती हूं. घर साफ़ करती हूं फिर काम पर निकल जाती हूं. पहले घर का समय 6 बजे है."
बसंती दो शिफ़्ट में काम करती हैं. सुबह 6 से दोपहर 2 बजे तक और शाम को 4 से 8 बजे तक.
वो कहती हैं "हर तरह के लोग मिलते हैं. पर कई बार दुख होता है. हम उनके घरों में काम करते हैं इसका मतबल ये बिल्कुल नहीं है कि हम उनसे अलग हैं."
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बसंती को कई तरह की शिकायतें हैं
- छुट्टी वाले दिन हर कोई चाहता है कि हम उनके घर देर से जाएं ताकि वो देर तक सो सकें. लेकिन फिर मेरा काम कब ख़त्म होगा ये कोई नहीं सोचता.
- छुट्टी वाले दिन लगभग हर घर में मेहमान आते हैं. काम बढ़ जाता है लेकिन हमें तय वेतन से ज़्यादा कुछ नहीं मिलता.
- बात होती है तो सिर्फ़ घर साफ़ करने की लेकिन बाद में लोगों को लगता है कि बाथरुम क्यों नहीं धोया...पौधों को साफ़ क्यों नहीं किया.
- हमें पुराने कपड़े और बासी खाना देकर एहसान दिखाते हैं. ये तो सही नहीं.
- लोग खुद तो चाहते हैं कि उनकी सैलरी एक तारीख़ को आ जाए पर हमारा पैसा हमेशा देर से मिलता है.
- सबको छुट्टी चाहिए लेकिन जैसे ही हम छुट्टी के लिए बोलते हैं, सबको बुरा लगने लगता है.
- घर में चम्मच भी न मिले तो चोरी का इल्ज़ाम लग जाता है.
बसंती बताती हैं, "मैं क घर में काम करती थी. अच्छा पैसा भी मिलता था लेकिन एक दिन मैं अपने बीमार बेटे को लेकर वहां चली गई. बेटे को डोर-मैट पर बिठाया था. उसने वहां सू-सू कर दिया. उसके बाद बहुत ड्रामा हुआ. मैंने खुद ही वहां काम छोड़ दिया."
बसंती सुबह चार बजे उठती हैं और उनके लिए रात को सोते-सोते 12 बज जाते हैं. हर रोज़ सिर्फ़ चार घंटे की नींद के बदले वो महीने के 18 हज़ार कमाती हैं.
क्यों नहीं है कोई पूछ
अगर आंकड़ों की बात करें तो एनसीआरबी की रिपोर्ट चौंकाने वाली है. घरेलू सहायिकों के साथ हुई हिंसा के मामले साल दर साल बढ़े हैं.
साल 2012 में सबसे अधिक पश्चिम बंगाल में 549 मामले दर्ज़ हुए. तमिलनाडु में 528 और आंध्र प्रदेश में 506.
हालांकि डोमेस्टिक वर्कर्स वेलफेयर एंड सोशल सिक्योरिटी 2010 एक्ट के तहत घरेलू सहायकों के अधिकारों को सुरक्षित करने का प्रावधान है. पर फिलहाल राष्ट्रीय स्तर पर ऐसा कोई कानून नहीं है जो घरेलू कामगारों के लिए नियम-कायदे तय करता हो.
लेकिन हर उदाहरण एक सा नहीं...
एक मल्टीनेशनल कंपनी में काम करने वाली प्रियंका कहती हैं कि "मेरी मेड मेरी लाइफ़-लाइन है. वो मेरे साथ घर पर नहीं रहती लेकिन घर के मेंबर की ही तरह है. वो अपना काम अच्छे से करती है इसलिए मैं अपना काम कर पाती हूं."
वो मानती हैं कि समाज इस तबके के साथ बुरा व्यवहार करता है लेकिन वो ये भी मानती हैं कि हर बार मेड ही पीड़िता हो ये भी ज़रूरी नहीं.
बहुत-सी औरतों की तरह वो भी हंसते हुए कहती हैं "पति के बिना एक दिन काम चल सकता है मेड के बिना नहीं."
"मैं बहुत सी मेड देख और रख चुकी हूं. कई बार बहुत अच्छा अनुभव होता है तो कई बार इतना बुरा कि दिन की शुरुआत ही किच-किच से होती है."
वो मानती हैं कि एक अच्छी मेड मिल जाए तो ज़िदगी आसान हो जाती है, "अच्छी मेड मिलना किस्मत की बात है. फ़िलहाल मेरी किस्मत अच्छी है कि मेरे पास अच्छी मेड है."