जेल में बंद हो माँ तो उसके बच्चे का क्या?
नफ़ीसा 35 साल की विधवा है. उनके 4 बच्चे हैं. लेकिन उनका एक भी बच्चा उनके साथ नहीं है.
नफ़ीसा (बदला हुआ नाम) पर अपने पति के क़त्ल का इल्ज़ाम है. पिछले चाल साल से वो दिल्ली के तिहाड़ जेल की सलाखों के पीछे है.
चार साल पहले नफ़ीसा जब जेल में बंद हुईं तो उनका सबसे एक बेटा केवल तीन साल का था, बेटी पांच साल की, एक बेटा 7 साल का और सबसे बड़ा बेटा नौ साल का था.
नफ़ीसा 35 साल की विधवा है. उनके 4 बच्चे हैं. लेकिन उनका एक भी बच्चा उनके साथ नहीं है.
नफ़ीसा (बदला हुआ नाम) पर अपने पति के क़त्ल का इल्ज़ाम है. पिछले चाल साल से वो दिल्ली के तिहाड़ जेल की सलाखों के पीछे है.
चार साल पहले नफ़ीसा जब जेल में बंद हुईं तो उनका सबसे एक बेटा केवल तीन साल का था, बेटी पांच साल की, एक बेटा 7 साल का और सबसे बड़ा बेटा नौ साल का था.
नफ़ीसा की कहानी
नफ़ीसा विचाराधीन कैदी है यानी उन पर फ़िलहाल मुकदमा चल रहा है. जेल नियमों के मुताबिक़ जेल में अगर किसी महिला क़ैदी का बच्चा 6 साल से कम उम्र का है तो वो जेल में ही बने क्रच में रह सकता है.
ऐसे बच्चों के लिए सरकार बकायदा क्रच का इंतजाम करती है.
लेकिन नफ़ीसा को ना तो इस नियम का पता था और ना ही इस बात का अहसास था कि उन्हें इतना लंबा वक्त जेल में गुज़ारना पड़ेगा.
अंदर आने के बाद उन्होंने बच्चे को जेल के क्रच में लाने की काफी कोशिश की. लेकिन वो नाकाम रहीं.
उनका आरोप है कि उन्हें जो सरकारी वकील मिला, उसने कोई मदद नहीं की.
नफ़ीसा अलग से बने महिला जेल में रहती है. कई मायनों में देश की दूसरी जेलों में रहने वाली महिला क़ैदियों से उनकी हालत अच्छी है.
लेकिन क़ैदी होने के अलावा वो एक मां भी है. और इस लिहाज़ से उनका दर्द ठीक वैसा है जैसा किसी और मां का.
क्या कहते हैं आंकड़े?
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक़ देश भर की जेलों में 4,19,623 क़ैदी हैं, जिनमें से 17,834 महिलाएं हैं, यानी कुल क़ैदियों में 4.3 फ़ीसदी महिलाएं हैं. ये आंकड़े 2015 के हैं.
साल 2000 में ये आंकड़ा 3.3 फ़ीसदी था. यानी 15 साल में महिला क़ैदियों में एक फ़ीसदी का इज़ाफा हुआ है.
इतना ही नहीं 17834 में से 11,916 यानी तकरीबन 66 फ़ीसदी महिलाएं विचाराधीन क़ैदी हैं. नफ़ीसा उन्हीं से एक हैं.
हाल ही में केन्द्रीय महिला एंव बाल कल्याण मंत्रालय ने एक रिपोर्ट जारी की है, जिसमें महिला क़ैदियों की समस्याओं का ज़िक्र करते हुए कई नए कदम उठाने की बात कही गई है.
जानकारों की राय
मानावाधिकारों के लिए काम करने वाली संस्था कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव की बोर्ड सदस्य और वरिष्ठ सलाहकार माया दारूवाला के मुताबिक़ महिला क़ैदियों की स्थिति में सुधार नहीं होने की एक वजह इनके बढ़ते आंकड़े हैं.
बीबीसी से बातचीत में उन्होंने कहा, "देश के अधिकांश जेलों में क़ैदियों की संख्या ज़्यादा और स्टाफ कम हैं. एक तरफ जहां सुरक्षाकर्मियों की कमी है दूसरी तरफ विचाराधीन क़ैदियों की वजह से जेलों में भीड़ भी लगातार बढ़ती जा रही है."
एनसीआरबी के आंकड़ो की बात करें तो पूरे देश भर के जेल में तकरीबन 34 फ़ीसदी स्टाफ की कमी है. तकरीबन 80 हजार स्टाफ की ज़रूरत है और केवल 53000 स्टाफ ही हैं.
माया दारूवाला ने हाल ही में भोपाल जेल का दौरा किया. इस दौरान उन्होंने कई महिला क़ैदियों से बात कर उनकी समस्याओं को समझा.
इस दौरे का ज़िक्र करते हुए माया दारूवाला कहती हैं, "पहली नज़र में तो वहां महिला क़ैदियों की हालत बहुत अच्छी लग रही थी. सब खुश दिख रहे थे, लेकिन जब मैंने उनसे पूछा कि वो किस मामले में अंदर हैं, उनका केस कहां तक पहुंचा हैं, उनके वकील कौन हैं, कितनी बार वकील से मुलाक़ात हुई है, तो वहां मौजूद 90 फ़ीसदी महिला क़ैदियों को अपने केस की जानकारी ही नहीं थी."
'मेरा सब कुछ लुट गया'
दरअसल असली मुद्दा यही है कि केस की तारीखें बढ़ती जाती हैं और हर सुनवाई के बाद ये वापिस उन्हीं जेलों में पहुंच जाती हैं.
नफ़ीसा की भी असली दिक्कत यही है. सरकारी वकील से मदद न मिलने की वजह से नफ़ीसा ने खुद के लिए दूसरा वकील किया है.
वकील की फीस अब वो अपनी जेल की कमाई से देती है. पिछले दिनों वो पहली बार पैरोल पर अपने बच्चों से मिलने जेल से बाहर भी आई थी.
तभी नफ़ीसा को पता चला कि अब उनका सबसे बड़ा बेटा उनकी ननद के घर पर पल रहा है.
नफ़ीसा का कहना है, "मेरी ननद ने मेरे बड़े बेटे को मेरे ख़िलाफ़ बहलाया-फुसलाया और मेरे ख़िलाफ़ गवाही दिलवाई. तब से वो उसे अपने साथ ही रखती है."
बाकी के तीन बच्चे कहां हैं? इसके जवाब में उसकी आंखों से आंसू निकल आते हैं.
"मेरे पति ने तो पहले ही फांसी लगा ली. इल्ज़ाम मुझ पर है. मेरा और कोई नहीं है. मेरा सब कुछ लुट गया."
"कभी-कभी सोचती हूं कि अगर कुछ साल बाद बाहर निकली तो मैं उन्हें कैसे खोज पाऊंगी." इतना कहते-कहते नफ़ीसा का गला भर आता है. दुप्पटे से मुंह छुपाती हुई वो नज़र चुरा कर सिलाई मशीन पर चुपचाप अपना काम करने लगती है.
क्या है महिला कैदियों के लिए नियम?
भारतीय जेल मैन्युअल के मुताबिक़ गर्भावस्था के दौरान महिला क़ैदियों के स्वास्थ्य का विशेष ध्यान रखा जाना चाहिए.
बच्चा पैदा होने के बाद उनको दूसरे क़ैदियों के मुकाबले खाना अधिक मात्रा में और सेहत को ध्यान में रख कर देने का प्रवाधान है.
महिला क़ैदी अपने छह साल से छोटे बच्चे को अपने साथ जेल में रख सकती है. क़ैदी महिलाओं को अपने बच्चे के साथ 'मदर सेल' में रखने का प्रावधान है.
लेकिन ये सुविधा उन्ही क़ैदियों के लिए उपलब्ध है जिनके पिता या परिवार का कोई दूसरा सदस्य उनकी ज़िम्मेदारी लेने को तैयार न हो.
देश में कुल 1401 जेल हैं जिनमें से केवल 18 में महिला क़ैदियों के लिए अलग जेल की व्यवस्था है.
यानी बाकी जेलों में महिला क़ैदी पुरूषों और महिला कैदियों के लिए बने साझा जेल में रहने को मजबूर है. इन जेलों में एक दीवार बना कर महिला कैदियों और पुरुष कैदियों के लिए अलग-अलग व्यवस्था की जाती है.
महिला कैदियों कि उम्र कि बात करें तो 30- 50 साल की उम्र की महिला क़ैदी 50.5 फ़ीसदी हैं. 18 - 30 साल की उम्र के महिला क़ैदी 31फ़ीसदी हैं.
सुधार की काफी गुंजाइश है
महिला एंव बाल कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट में भी इस बात का जिक्र किया गया है कि 'मां' क़ैदियों के लिए जो सुविधाएं हैं वो पर्याप्त नहीं हैं और उनमें सुधार की ज़रूरत है.
रिपोर्ट में 134 सुझाव दिए गए हैं जिनमें से कुछ महत्वपूर्ण ये हैं:
- जिन जेलों में बच्चों के लिए क्रच का इंतजाम नहीं है, वहां ये सुविधा उपलब्ध कराई जाए.
- जिन महिला क़ैदियों के बच्चे छह साल से बड़े हैं और देख-रेख करने वाला कोई और नहीं, उन्हें 'चाइल्ड केयर होम' भेजने की ज़िम्मेदारी भी जेल प्रशासन निभाएगा.
- महिला क़ैदियों के जेल में रहने के दौरान परिवार से संबंध बना रहे इसके लिए उन्हें समय-समय पर परिवार से मिलने जाने दिया जाए.
- इतना ही नहीं महिला क़ैदियों के लिए वकील, काउंसलर की व्यव्स्था पर अधिक ज़ोर दिया जाए और जेल से छूटने के बाद जीविका चलने के लिए भी उन्हे तैयार किया जाए.
- जिन महिला विचाराधीन क़ैदियों ने अपने जुर्म की अधिकतम सज़ा का एक तिहाई समय जेल में बीता दिया हो, उनकी बेल पर रिहाई का प्रवाधान करने की बात कही गई है.
सुझावों पर अमल हो रहा है
महिला एंव बाल कल्याण मंत्रालय के इन सुझावों पर हमने तिहाड़ जेल में महिला जेल अधीक्षक अंजू मंगला से बात की.
उनके मुताबिक़, "तिहाड़ में ज़्यादातर सुझावों पर पहले से ही अमल हो रहा है. लेकिन जहां तक कानून में बदलाव कर विचाराधीन क़ैदियों की बेल का प्रश्न है इस पर जेल प्रशासन ज्यादा कुछ नहीं कर सकता."
अंजू मंगला का कहना है कि पारिवारिक रिश्तों को जेल के दौरान भी बनाए रखने के लिए सज़ायाफ्ता क़ैदियों को सात हफ्ते के फरलो (छुट्टी) और 4 हफ्ते के पैरोल (किसी विशेष काम के लिए मिली छुट्टी) का प्रावधान है.
हालांकि क़ैदियों को पैरोल कोर्ट से ही मिलती है, लेकिन फरलो पर जेल प्रशासन फैसला ले सकता है.
'चाइल्ड केयर होम'
अंजू के मुताबिक़ महिला क़ैदियों के लिए और उनके लिए जेल के अंदर कई तरह के प्रोग्राम चलाए जाते हैं जिनमें एनजीओ की भी मदद ली जाती है.
ऐसी ही एक एनजीओ इंडिया विज़न फाउंडेशन की डॉरेक्टर मोनिका धवन के मुताबिक़, "दिल्ली हरियाणा और उत्तर प्रदेश के पांच जेलों में हमने वहां की महिला क़ैदियों के लिए अलग-अलग स्कूल से टाई-अप किया है, ताकि छह साल की उम्र से बड़े बच्चों की पढ़ाई लिखाई की ज़िम्मेदारी हम उठा सके."
उन्होंने कहा, "कई बार महिला कैद़ियों के बच्चे किसके पास रहेंगे, ये फैसला बहुत पेचीदा होता है. मसलन जेल के बाहर उनके परिवार में बच्चों की देखरेख करने वाला कोई होता तो है, लेकिन उस पर मां को भरोसा नहीं होता और वो उन्हें 'चाइल्ड केयर होम' भेजना चाहती है लेकिन ऐसे मामलों में हम क़ानून से बंधे होते हैं."
इंडिया विज़न फाउंडेशन का दावा है कि महिला बाल कल्याण मंत्रालय के साथ दिल्ली एनसीआर के चार जेलों में उन्होंने मिल कर काम किया है.
मोनिका का कहना है कि महिला क़ैदियों के लिए काफी काम किया गया है और सुधार भी हुए हैं. लेकिन वो साथ इस बात को भी स्वीकार करती हैं कि राजधानी के बाहर देश के कई राज्यों में स्टॉफ की बहुत कमी है, जिसकी वजह से सुरक्षा का खतरा है. ऐसे में महिलाओं के लिए कल्याणकारी योजनाओं के बारे में सोचना संभव ही नही है.
अब आगे क्या?
नफ़ीसा अपनी ज़िंदगी के चार साल जेल में बिता चुकी है और अब तक उसका केस किसी मुकाम तक भी नहीं पहुंचा है. उन्हें खुद नहीं पता कि फ़ैसला कब तक आएगा और उसे और कितने साल ऐसे में जेल में बिताने पड़ेंगे.
लेकिन उसके सामने ये सवाल सबसे बड़ा नहीं है. उसकी चिंता है कि कुछ साल बाद वो जेल से बाहर आकर अपने बच्चों को कहां तलाश करेगी. अगर वो ग़लती से उन्हें मिल भी गए तो वो बड़े हो गए होंगे और शायद वो अपने बच्चों की शक्लें तक ना पहचान पाए. ये सोच-सोच कर वो रोती रहती है.
शायद इन सुझावों के बाद और उन पर अमल किए जाने के दावों के बीच नफ़ीसा के आंसूओ को कोई सहारा मिलेगा.