'मस्जिद ख़ुदा का घर है तो यह ईमान वाली स्त्रियों के लिए कैसे बंद हो सकता है'
कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं के मस्जिद में जाने से जुड़ी एक याचिका भी दायर हुई है. मसला तो है. मगर मसला वह सामाजिक निज़ाम है, जो किसी भी धर्म की महिलाओं के कहीं भी मनमर्ज़ी और आज़ाद तरीक़े से आने-जाने पर पाबंदी लगाता है. उनके आने-जाने को अपने काबू में रखना चाहता है. तय करता है कि वे कहाँ, कब, कैसे, कितनी देर के लिए जायेंगी.
'ख़ुदा की बंदियों को ख़ुदा की मस्जिद में जाने से रोका न करो.'
'तुममें से किसी से उसकी स्त्री मस्जिद जाने की इजाज़त तलब करे तो वह उसे मना न करे.'
'मस्जिदों में स्त्रियों का जो हिस्सा है, उससे उन्हें मत रोको.'
'अपनी महिलाओं को मस्जिद में जाने से मना न करो.'
'जब तुम्हारी महिलाएँ रात में मस्जिद जाने की इजाज़त माँगे तो उन्हें इजाज़त दे दो.'
ये कौन, किससे, कब और क्यों कह रहा है?
यह बात साढ़े चौदह सौ साल पहले की है. इस्लाम के पैगम्बर हज़रत मोहम्मद ने कही थी. ये फ़रमान मर्दों को है. मामला मस्जिद में आने-जाने का है. ज़ाहिर है, इसमें बात महिलाओं के मुताल्लिक हो रही है.
क्या यह महज़ मज़हबी मसला है?
जब बात इतनी साफ़ है तो इस पर किसी तरह का मसला आज नहीं होना चाहिए था. मगर गाहे- बगाहे मस्जिदों में मुसलमान महिलाओं के आने-जाने और नमाज़ पढ़ने का मसला आ ही जाता है. यह मसला ऐसी तस्वीर बनाता है, जिससे लगता है कि इस्लाम की मूल भावना ही महिलाओं के मस्जिद में आने-जाने के ख़िलाफ़ है.
कुछ महीने पहले सुप्रीम कोर्ट में महिलाओं के मस्जिद में जाने से जुड़ी एक याचिका भी दायर हुई है.
मसला तो है. मगर मसला वह सामाजिक निज़ाम है, जो किसी भी धर्म की महिलाओं के कहीं भी मनमर्ज़ी और आज़ाद तरीक़े से आने-जाने पर पाबंदी लगाता है.
उनके आने-जाने को अपने काबू में रखना चाहता है. तय करता है कि वे कहाँ, कब, कैसे, कितनी देर के लिए जायेंगी.
इसीलिए हमारे इस पिदरशाही समाज में आम जगहों पर महिलाओं की मौजूदगी, उनकी तादाद के हिसाब से और मर्दों के बनिस्बत काफ़ी कम है.
यही बात मस्जिदों पर भी लागू होती है. हाँ, यहाँ महिलाओं को क़ाबू करने के लिए कई बार मज़हब का सहारा ले लिया जाता है.
जैसे तर्क महिलाओं के अकेले, कभी भी, कहीं भी आने-जाने के ख़िलाफ़ दिए जाते हैं, उसी तरह के तर्क महिलाओं के मस्जिद में न जाने के लिए भी दिए जाते हैं.
मसला महज़ मस्जिदों में आने-जाने का नहीं है. इसलिए महज़ मस्जिदों में आने-जाने से यह मसला ख़त्म भी नहीं होगा.
यह मुसलमान महिला का मज़हबी हक़ है
तो क्या इसका मतलब है कि महिलाओं को इंतज़ार करना चाहिए?
कतई नहीं.
जिस तरह वे बाकी जगहों पर अपनी जगह बना रही हैं, यहाँ भी उन्हें जगह बनानी होगी. उन्हें जगह देनी होगी. यह उनका मज़हबी हक़ है. यह हक़ उतना ही उनका है, जितना मर्दाना मुसलमानों का है.
इस्लाम ने अपने मानने वालों के लिए पाँच चीज़ें मज़हबी तौर पर फ़र्ज़ की हैं: शहादत (यानी ख़ुदा के एक होन पर यक़ीन), नमाज़, रोज़ा, ज़कात और हज. इनमें मर्द-स्त्री का कोई भेद नहीं है.
मर्द या स्त्री के बिना पर कोई रियायत नहीं है. तो सवाल है कि अगर मर्द अपना मज़हबी फ़र्ज़ अदा करने के लिए मस्जिद में नमाज़ पढ़ने जा सकते हैं तो महिलाएँ क्यों नहीं?
तो हजरत मोहम्मद के दौर में क्या होता था
हम उस दौर में चलते हैं, जिसे हज़रत मोहम्मद का दौर कहा जाता है. इस दौर के बारे में हमें उनके साथियों और उनकी पत्नियों ख़ासकर हज़रत आयेशा के ज़रिए क़ाफ़ी जानकारियाँ (हदीस) मिलती हैं. ये सभी, जो जानकारी हमें देते हैं, उससे पता चलता है कि उस दौर में महिलाएँ मस्जिद में जाती थीं. हज़रत मोहम्मद की इमामत में नमाज़ पढ़ती थीं. उनके ख़याल से रोशन होती थीं.
हज़रत आयेशा से पता चलता है कि महिलाएँ, फ़ज्र की नमाज़ में उनके साथ जमात में नमाज़ पढ़ती थीं. हज़रत उम्म सलमा बताती हैं कि हज़रत मोहम्मद मस्जिद में थोड़ी देर रुके रहते थे ताकि महिलाएँ मस्जिद से इतमिनान से बाहर निकल जाएँ.
वे महिलाओं को मस्जिद में आने का बढ़ावा देते थे. उनका ख़ास ख़याल रखते थे. उनकी परेशानियों के बारे में बेहद संवेदनशील थे. एक ज़िक्र मिलता है. इसके मुताबिक हजरत मुहम्मद ने फ़रमाया कि मैं नमाज़ शुरू करता हूँ और इसको लम्बी पढ़ना चाहता हूँ लेकिन किसी बच्चे के रोने की आवाज़ सुनता हूँ तो नमाज़ मुख़्तसर कर देता हूँ.
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ऐसा उन्होंने क्यों किया?
हज़रत मोहम्मद आगे कहते हैं, इसलिए कि मुझे मालूम है कि बच्चे के रोने की वजह से उसकी माँ को तकलीफ़ और बेचैनी होगी.
यह तो साफ़ है कि महिलाएँ मस्जिद में नमाज पढ़ती ही थीं. हाँ, आज की ही तरह उस वक़्त भी संतान का लालन-पालन माँ ही किया करती थीं.
हजरत मोहम्मद को न सिर्फ़ इस बात का अहसास था बल्कि उन्होंने इसे शिद्दत से महसूस किया. ये मुसलमान महिलाएँ बच्चे की वजह से परेशान भी न हों और उनकी इबादत भी पूरी हो, उन्होंने इसके ज़रिए यह राह भी दिखाई. क्या आज के वक़्त में महिलाओं के प्रति यह संवेदनशीलता दिखाई देती है?
यही नहीं, ऐसे कई उदाहरण मिलते हैं, जहाँ वे महिलाओं को जुमा, ईद उल फित्र (ईद) और इदुज्जोहा (बकरीद) की नमाज़ों में शामिल होने का हुक्म देते हैं. किसी को आने में परेशानी है तो उसका हल निकालते हैं. जैसे- जब उन्होंने महिलाओं को ईद की नमाज़ में आने के लिए कहा तो कर्इ ने बताया कि उनके पास ओढ़ने के लिए चादर नहीं है. तो उन्होंने यह नहीं कहा कि वे न आयें. उन्होंने कहा की ऐसी महिलाओं को उनकी बहनें अपनी चादर ओढ़ा लें.
यही नहीं, वे इसलिए भी महिलाओं को आने का बढ़ावा देते थे क्योंकि इन नमाज़ों के साथ ख़ुतबा होता था. इसमें तालीम और तर्बियत की बातें होती थीं. वे इस बात का ख़ास ख़याल रखते थे कि महिलाओं तक ये बात पहुँचे. इल्म सिर्फ मर्दों को न मिले बल्कि यहाँ मिलने वाले इल्म में महिलाएँ भी हिस्सेदार/ भागीदार हों.
ऐसे भी उदाहरण हैं कि वे महिलाओं को अलग से भी ख़िताब किया करते थे. यह सब मस्जिद में हुआ करता था.
यही नहीं, महिलाएँ भी नमाज़ पढ़ाती थीं. हाँ, नमाज पढ़ने और पढ़ाने की उनकी जगह अलग होती थी.
तीन सबसे अहम मस्जिदें और स्त्रियाँ
मज़हबी एतबार से मुसलमानों के लिए मक्का की मस्जिद अलहराम, मदीना की मस्जिदे नबवी, यरुशलम की मस्जिद अक़सा सबसे ज़्यादा अहमियत रखती हैं. इनमें इस्लाम के शुरुआती दौर में भी महिलाएँ नमाज़ पढ़ने के वास्ते जाती थीं.
आज भी हज के दौरान महिला और पुरुष मुसलमान साथ-साथ मज़हबी हक़ अदा करते हैं. साथ-साथ नमाज पढ़ते हैं. इनमें उन देशों की भी महिलाएँ होती हैं, जो अपने देश की मस्जिदों में कभी नहीं गयीं या जिन्हें जाने नहीं दिया गया या जिन्हें बताया ही नहीं गया कि महिलाओं को मस्जिद जाना चाहिए या जिन्हें बताया तो गया लेकिन उसमें एक लाइन जोड़ दी गयी कि महिलाओं के लिए बेहतर है कि घर में ही नमाज़ पढ़ें.
मस्जिद यानी इबादत, तालीम व तर्बियत की जगह
शुरुआती दौर से ही मस्जिद का विचार, महज़ नमाज़ के लिए नहीं रहा है. मस्जिद की रचना कई मक़सद के लिए है. जैसे- नमाज़, इबादत, इल्म, सलाह-मशविरा, तबादला-ए-ख़याल, समाजी गुफ़्तुगू - उस दौर में ये सब यहाँ होते थे. अपने विचार से ही मस्जिद खुली जगह है. इसलिए देखा जाये तो मस्जिद में बड़े हॉल/ दालान के सिवाय क्या होता है? यह खुली जगह ही अपने आप में महत्वपूर्ण है.
यानी सब एक साथ किसी तरह के समूह में इकट्ठे हो सकते हैं. यहाँ कोई ऐसी धार्मिक व्यवस्था नहीं है, जो समाजी/आर्थिक गैरबराबरियों को जगह देती हो या मजबूत करती हो. इसलिए तो शायद इक़बाल ने कहा था, एक ही सफ़ में खड़े हो गये महमूद ओ अयाज़, न कोई बंदा रहा, न कोई बंदा नवाज़.
क्या इक़बाल की यह लाइन सिर्फ मर्द मुसलमानों पर लागू होगी? क्या यह महिलाओं को बराबरी के सफ़ से बाहर मानती है?
मौलाना उमर अहमद उस्मानी अपनी किताब फ़िक्हुल क़ुरान में लिखते हैं, "मसाजिद और इज्तमाई इबादतगाहें इब्तदाए अहदे इस्लामी में सिर्फ़ इबादत ही की जगह नहीं थीं बल्कि वह दर्सगाहें (तालीम की जगहें) और तर्बियतगाहें भी थीं. आनहज़रत सल्लेअल्लाह अलैहे वसल्लम ने औरतों की शिरकत को महज़ इबादत ही के लिए नहीं बल्कि औरतों की तालीम व तरबीयत के लिए भी इनकी शिरकत को ज़रूरी क़रार दिया था."
यानी इस्लामी के शुरुआती दौर और हज़रत मोहम्मद के दौर में ऐसा कुछ नहीं मिलता है, जो महिलाओं को मस्जिद में जाने, इबादत करने, इकट्ठे जमात में नमाज पढ़ने के ख़िलाफ़ हो.
तो क्यों न उस दौर से कुछ सीखा जाये? उस दौर के मूल्यों उसूलों के बिना पर कुछ आगे किया जाए? क्यों न महिलाओं को मस्जिदों तक जाने की राह हमवार की जाए?
इसलिए कि इस्लाम की बुनियादी किताब 'क़ुरान' में जब महिलाओं और पुरुषों को मज़हबी अक़ीदे के लिए ख़िताब किया तो उसने कोई फ़र्क नहीं किया.
इसका सबसे बड़ा उदारहण सूरा अल-अहज़ाब की यह आयत है-
मुसलमान मर्द और मुसलमान महिलाएँ
और ईमान लाने वाले मर्द और ईमान लाने वाली महिलाएँ
फ़रमाबरदारी करने वाले मर्द और फ़रमाबरदारी करने वाली महिलाएँ
सच बोलने वाले मर्द और सच बोलने वाली महिलाएँ
सब्र करने वाले मर्द और सब्र करने वाली महिलाएँ
विनम्रता दिखाने वाले मर्द और विनम्रता दिखाने वाली महिलाएँ
...
और अल्लाह को ख़ूब याद करने वाले मर्द और याद करने वाली महिलाएँ
इन सबके लिए अल्लाह ने बड़ी माफ़ी और बड़ा बदला तैयार कर रखा है.
अब अगर कोई मुसलमान लड़की या महिला यह सवाल करे कि स्त्री और पुरुष के लिए हमारे अल्लाह का हुक्म एक जैसा है तो फिर हमारे साथ भेदभाव का सुलूक क्यों?
क्या उसका यह सवाल बेमानी होगा?
(नोटः इस्लामी हवाले के लिए इन किताबों की मदद ली गयी है- सीरते आयशा: सैयद सुलेमान नदवी/ फिक़हुल क़ुरान: मौलाना उमर अहमद उस्मानी/ औरत और इस्लाम: मौलाना सैयद जलालुद्दीन उमरी)