मोदी सरकार कर रही है नवरत्न कंपनी की नीलामी लेकिन सबसे बड़ी आशंका क्या?: नज़रिया
1991 में जब भारत में आर्थिक सुधार हुए तब ये बात मान तो ली गई कि सरकार का काम बिजनेस करना नहीं है.लेकिन ये बात न सरकार में बैठे लोगों को ही ठीक से हजम हुई और न वो इस देश को यकीन दिला सके कि ऐसा करना ही देश के हित में है.फिर उन्हें ये समझने में भी बहुत मुश्किल हुई कि किस काम को बिजनेस माना जाए और किसे राष्ट्रहित.
हमारे शहर लखनऊ में पुराने अमीरों के घरों में बहुत सा ऐसा सामान होता है जिसकी कद्रदान अच्छी क़ीमत लगाते हैं.
जिनका घर है उनके काम का भी नहीं रह गया है और जो पैसा आएगा उससे उनका गुजारा भी चलेगा. मगर दिक्कत ये है कि वो अपना सामान लेकर बाजार भी नहीं जा सकते और खरीदार को घर भी नहीं बुला सकते क्योंकि इससे तो इज्जत ही चली जाएगी. तो होता ये है कि कोई होशियार सौदागर आकर कुछ पैसे पकड़ाता है और रात के अंधेरे में चुपचाप वो सामान घर से यूं विदा होता है कि कोई देख न ले. जाहिर है हजारों का माल कौड़ियों में जाता है और लाखों का हजारों में. हमें अपने शहर का पता है, और शहरों में भी ऐसे किस्से कम नहीं हैं.
उन्हें भी खूब पता है कि यही सामान कुछ ही दिनों में उनको मिले पैसे से कई गुना कीमत पर बिकने लगेगा. लेकिन करें तो क्या करें. इज्जत का सवाल है. लोग क्या कहेंगे, बाप दादा की विरासत बेचकर घर चला रहे हो! अंग्रेजी में भी फैमिली सिल्वर बेचने को गाली जैसा ही माना जाता है. घर भी चलाना है, इज्जत भी बचानी है, और बदकिस्मती से कमाई का कोई जरिया नहीं क्योंकि औलाद या तो है नहीं, या नालायक है.
भारत सरकार और डिसइन्वेस्टमेंट यानी सरकारी कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने की कहानी भी कुछ ऐसी ही है. दिखने में आसान लगती है मगर खोलते चलो तो पर्त दर पर्त पेंच पर पेंच निकलते चलते हैं. एक सवाल का जवाब देंगे तो तीन नए सवाल खड़े होंगे. तो बात शुरू से ही शुरू करनी पड़ेगी.
1991 में जब भारत में आर्थिक सुधार हुए तब ये बात मान तो ली गई कि सरकार का काम बिजनेस करना नहीं है.लेकिन ये बात न सरकार में बैठे लोगों को ही ठीक से हजम हुई और न वो इस देश को यकीन दिला सके कि ऐसा करना ही देश के हित में है.फिर उन्हें ये समझने में भी बहुत मुश्किल हुई कि किस काम को बिजनेस माना जाए और किसे राष्ट्रहित. यानी एयर इंडिया, बीएसएनएल, एचएएल और एचपीसीएल, बीपीसीएल को प्राइवेट हाथों में कैसे दे दिया जाए?
ये सबसे बड़ी वजह है कि 28 साल बाद भी सरकारी कंपनियों की हिस्सेदारी बेचने पर बहस चल रही है. जिस कॉंग्रेस के राज में ये फैसला हुआ, वो भी हर बार हिस्सेदारी बेचने पर यूं सवाल उठाती है जैसे बहू के कुछ करने पर सास को धर्मपूर्वक उठाना ही होता था.
इस बार बीपीसीएल यानी भारत पेट्रोलियम में करीब 53 परसेंट, शिपिंग कॉर्पोरेशन में 67 परसेंट और कंटेनर कॉर्पोरेशन में करीब 31 परसेंट हिस्सा बेचने का फ़ैसला हुआ है. बुधवार को यानी जिस दिन फ़ैसला हुआ उस दिन के बाजार भाव पर ये हिस्सेदारी करीब चौरासी हजार करोड़ रुपए में बिकती. लेकिन अगले ही दिन इसमें करीब पांच परसेंट की गिरावट आ चुकी थी.ऐसे किस्से पहले भी कई बार हुए हैं. सरकार बेचने का इरादा जताती है और दाम गिरने लगते हैं. इसका इलाज भी है. लेकिन फिलहाल बात फैसले पर विवाद की.
बीपीसीएल में हिस्सेदारी बेचने के सवाल पर कॉंग्रेस के युवा नेता मिलिंद देवड़ा ने सवाल उठाया है कि घाटे में दबी एयर इंडिया और बीएसएनएल जैसी कंपनियों को बेचने में नाकाम सरकार बीपीसीएल जैसी नवरत्न कंपनी को क्यों बेच रही है. इसका एक सीधा जवाब तो यही है कि बाज़ार में जिस चीज की कीमत अच्छी मिले उसे बेचना ही समझदारी है. लेकिन इसका एक जवाब और भी है.और उसके लिए बीपीसीएल के इतिहास में जाना होगा.
बीपीसीएल भारत सरकार की बनाई हुई कंपनी नहीं है. 1974 तक देश भर में जो पेट्रोल पंप दिखते थे उनपर इंडियन ऑयल, बर्मा शेल, कालटेक्स और एस्सो के बोर्ड सबसे ज़्यादा नज़र आते थे.दो और कंपनियां भी थीं असम ऑयल और इंडो बर्मा पेट्रोलियम. लेकिन इनके बोर्ड कम दिखते थे. 1974 में एक दिन एस्सो के बोर्ड बदलकर एच पी हो गए.
उसके बाद बर्मा शेल की जगह बीपीसीएल ने ले ली और कुछ ही समय में या साथ साथ कालटेक्स भी बीपीसीएल में ही विलय हो गई. ये था पेट्रोलियम कंपनियों का राष्ट्रीयकरण. उधर इंडो बर्मा पेट्रोलियम 1970 में ही इंडियन ऑयल का हिस्सा बन चुकी थी. लेकिन 1974 में इसे फिर एक अलग सरकारी कंपनी बना दिया गया.
तो अब सवाल ये है कि अगर 1974 तक पेट्रोल, डीजल और रसोई गैस की मार्केटिंग का काम प्राइवेट कंपनियां कर रही थीं तो आज क्यों नहीं कर सकतीं? और अगर सरकार दूसरी कंपनियों को इस धंधे में उतरने की इजाज़त दे रही है, तो आज ही अच्छे दाम मिलने पर ये कंपनी बेच देने में क्या ग़लत है? क्या चाहते हैं कि एयर इंडिया और बीएसएनएल जैसा हाल हो जाए कि जब बेचने निकलें तो ख़रीदार न मिले?
हिस्सेदारी बेचने का एक दूसरा तरीका भी है. जो आईटीडीसी के होटलों की बिक्री में आजमाया गया. सीलबंद लिफाफे वाली नीलामी. सरकार ने अलग अलग होटलों के टेंडर निकाले, सीलबंद बोलियां आईं. खोली गईं और सबसे ऊंचे दाम लगानेवाले को होटल बेच दिया गया. वाजपेयी सरकार के दौरान हुई इन बिक्रियों पर भारी विवाद खड़ा हुआ.
कहीं कौड़ियों के मोल पर बिकने का आरोप है तो कहीं खरीदार ने कुछ ही दिनों में वही होटल कई गुना दाम पर दूसरे को बेच दिया. और ये तब जबकि जानेमाने आर्थिक विशेषज्ञ और न जाने कितने घोटालों का पर्दाफाश करनेवाले मशहूर पत्रकार अरुण शौरी विनिवेश मंत्री थे. यानी ख़ास तौर पर एक मंत्रालय बना हुआ था सरकारी कंपनियां या कंपनियों की संपत्ति या कंपनियों में सरकार की हिस्सेदारी बेचने के लिए.
यहां दाल में कुछ काला तो ज़रूर था. भारी हंगामा हुआ और जांच बैठी. मुंबई में जुहू का सेंटॉर होटल तो अभी तक ठीक से खुल नहीं पाया है. नाम और मिल्कियकत बदलने के बाद से तरह तरह के मामलों में अटका हुआ है.
यहां ये याद करना भी ज़रूरी है कि 1991 में फ़ैसला होने के बावजूद 2001 तक सरकार इस रास्ते सिर्फ़ 20078 करोड़ रुपए ही जुटा पाई थी, जबकि लक्ष्य था 54 हज़ार करोड़ रुपए का. 1991-92 में 31 कंपनियों में हिस्सा बेचकर क़रीब तीन हज़ार करोड़ रुपए मिले थे, यानी शुरुआत तुरंत हो गई थी. जी वी रामकृष्ण की अध्यक्षता में विनिवेश आयोग भी 1996 तक 13 रिपोर्ट दे चुका था.
उसने 57 कंपनियों में हिस्सेदारी बेचने की सिफ़ारिश की थी. तब भी दस साल में ये लक्ष्य पूरा क्यों नहीं हो पाया? इसके जवाब में मुंबई स्टॉक एक्सचेंज की वेबसाइट पर सात कारण गिनाए गए हैं-
1. बाज़ार की हालत ठीक नहीं.
2. सरकार ने बिक्री का जो प्रस्ताव रखा वो निजी क्षेत्र के निवेशकों के लिए आकर्षक नहीं था.
3. वैल्यूएशन यानी बिक्री के भाव का हिसाब लगाने पर भारी विरोध.
4. हिस्सेदारी बेचने की कोई साफ़ नीति नहीं थी.
5. कर्मचारियों और ट्रेड यूनियनों का जोरदार विरोध.
6. बिक्री के काम में पारदर्शिता का अभाव.
7. राजनीतिक इच्छाशक्ति की कमी.
और इस दौरान जो विनिवेश या हिस्सा बिक्री हुई भी वो ज़्यादातर कंपनियों में छोटी छोटी हिस्सेदारी बेचकर हुई. इन शेयरों की बिक्री से मिलनेवाली रकम भी बहुत कम थी, जबकि इसमें इंडियन ऑयल, बीपीसीएल, एचपीसीएल, गैस ऑथोरिटी और विदेश संचार निगम जैसी ब्लू चिप कंपनियों के शेयर शामिल थे. वजह साफ़ थी, प्राइवेट इन्वेस्टरों को किसी ऐसी कंपनी के शेयर खऱीदने में कोई दिलचस्पी थी नहीं जिसे चलाने का काम बाद में भी सरकार के इशारे पर ही होता रहनेवाला है.
इसलिए जो शेयर बिके भी वो ज़्यादातर घरेलू वित्तीय संस्थानों यानी एलआइसी और यूटीआई जैसे संस्थानों ने ही खऱीदे. दाम ज़्यादा नहीं थे इसलिए वक्त के साथ ये निवेश फ़ायदेमंद तो रहा. लेकिन अगर पब्लिक सेक्टर यानि पब्लिक के पैसे से चलनेवाली कंपनियों के शेयर वापस पब्लिक सेक्टर के ही संसाधनों के हाथ जाने हैं तो सरकार को या सरकारी ख़जाने को मिला क्या? इसकी टोपी उसके सर वाला ये खेल कई और तरह से भी होता है.
अभी एचपीसीएल का विनिवेश होना था.पूरा कंपनी एक दूसरी सरकारी कंपनी ओएनजीसी को सौंप दी गई, या बाज़ार की भाषा में कहें तो चिपका दी गई. मजे की बात ये है कि ओएनजीसी का नाम भी उन कंपनियों की लिस्ट में शामिल है जिनमें सरकार की बड़ी हिस्सेदारी बिक सकती है.
बाज़ार के जानकार सरकार को सलाह दे चुके हैं कि कौन सी कंपनियों में पूरी हिस्सेदारी बेची जाए तो सरकार को तत्काल दस लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा की रकम मिल सकती है.और अगर इन्हीं कंपनियों में सिर्फ़ इक्यावन प्रतिशत से ऊपर की हिस्सेदारी ही बेच दी जाए तब भी क़रीब ढाई लाख करोड़ रुपए से ज़्यादा मिलेगें.
हालांकि ये सलाह पिछले साल दी गई थी.नाम न बताने की शर्त पर एक बड़े फंड मैनेजर ने कहा कि ज़्यादातर सरकारी कंपनियां एक तरह से पैरासाइट या परजीवी हैं जो अर्थतंत्र का खून चूस रही हैं. ज़ाहिर है वो भारी मुनाफे़ वाली कंपनियों की बात नहीं कर रहे.अपने तर्क के समर्थन में उनका कहना है कि जब घाटा होता है तो इन्हें सरकार से मदद चाहिए होती है. कर्ज की ज़रूरत है तो जहां बाज़ार में बारह परसेंट ब्याज़ पर क़र्ज मिल रहा है, तो इन्हें छह परसेंट पर मिल जाता है क्योंकि पीछे सरकार की गारंटी है.
ये एक तरह की सब्सिडी है.ऐसे ही इन कंपनियों के पेंशन फंड में गिरावट आई तो उसकी कमी सरकार को भरनी पड़ती है.और कहीं नए प्रोजेक्ट लगाने हों तो सरकार ही इन्हें सस्ते दामों पर ज़मीन भी दिलवाती है. ऐसी पूरी लिस्ट है. किसी कंपनी पर वो लिस्ट लंबी हो तो किसी पर छोटी.
लेकिन फिर इसका एक पहलू और है.जब देश आज़ाद हुआ था, तब बहुत से काम ऐसे थे जो सरकार न करती तो शायद नहीं हो पाते. होते तो किस अंदाज़ में होते ये पता नहीं. बड़े बिजलीघर लगाने हों, बांध बनाने हों, रिफ़ाइनरी बनानी हों, इस्पात के कारखाने लगाने हों या फिर इंफ्रास्ट्रक्चर के बड़े प्रोजेक्ट तैयार करने हों. शायद इसीलिए सरकार ने इन्हें खुद करने की ठानी और जवाहरलाल नेहरू ने इन उद्योगों को आधुनिक भारत के नए मंदिर बताया.
हो सकता है कि वक्त के साथ अब ये ज़रूरी न रह गया हो.लेकिन अब भी इस बात की क्या गारंटी है कि सरकार बाहर हो जाएगी तो प्राइवेट कंपनियां मनमानी नहीं करेंगी? गारंटी वैसे भी क्या है. टेलिकॉम सेक्टर में सरकार और रेगुलेटर की नाक के नीचे, बल्कि उसकी शह पर जिस तरह एक कंपनी ने बाज़ार पर कब्जा किया वो किसे नहीं दिख रहा है?
और पब्लिक सेक्टर में जो कंपनियां बरबाद हुईं उनकी बरबादी की ज़िम्मेदारी किसकी है? क्या ये सच नहीं है कि सरकार ने मुनाफ़ा कमानेवाली कंपनियों को दुधारू गाय की तरह इस्तेमाल किया और दूध तो दूध खून तक निचोड़ लिया. बीएसएनएल और एमटीएनएल आज से दस साल पहले तक किसी भी प्राइवेट कंपनी से मुक़ाबला कर रहे थे.
मुझे याद है जब एमटीएनएल ने मोबाइल फोन लॉंच किया तब उसके चेयरमैन एस राजगोपालन ने मुझसे ही कहा था. 'मोबाइल की ज़रूरत मेरे जैसे लोगों को नहीं, उस प्लंबर या इलेक्ट्रीशियन को है जो दिन भर घर से बाहर रहता है और इस चक्कर में बहुत से ग्राहक खो देता है.' तब मज़ाक़ सा लगा था मुझे, पर सच था. वो सपना तो आज से बहुत पहले सच हो गया लेकिन वो कंपनी खुद फसाना बन गई है. हालत ये है कि अब उसके बिक़ने पर भी शक़ है.
एयर इंडिया, आइटी़डीसी और होटल कॉर्पोरेशन की कहानी और दुखभरी है. मंत्रियों, नेताओं और सरकारी अफसरों ने जमकर इनका दुरुपयोग किया. इकोनॉमी टिकट ख़रीदकर बिजनेस या फर्स्ट क्लास में अपग्रेड तो एयर इंडिया में जैसे कुछ था ही नहीं. इसी चक्कर में बिजनेस क्लास से जाने वाले यात्रियों को टिकट तक नहीं मिल पाते थे.
बस मुफ्तखोरों की सेवा. यही हाल होटलों का था. रजिस्टर में चढ़ाकर या बिना चढ़ाए, बिना बिल भरे या भारी डिस्काउंट के साथ कमरों में क़ब्जा बना रहता था मुफ्तखोरों का और इसी चक्कर में असली ग्राहक इन होटलों से दूर रहता था.
नौकरियों में भी यही हाल, जहां संभव हो किसी न किसी बड़ी कुर्सी वाले के आदमी को फ़िट करने का लंबा सिलसिला है. ऐसे ही पोस्टिंग और ट्रांसफर भी होते थे. इनमें यूनियन के नेताओं का भी बराबर का रोल ही था. इस मुफ्तखोरी और पब्लिक सेक्टर को धीमा जहर देकर मारने के किस्सों पर तो पूरी किताब लिखी जा सकती है. हर तरफ ऐसे क़िस्से भरे पड़े हैं.
सरकारी कंपनियों को प्राइवेटाइज करने से क्या फ़ायदा है और वो कैसे उठाया जा सकता है, इसका एक ही उदाहरण काफ़ी है. अगस्त 2000 में अरुण शौरी के विनिवेश मंत्री रहते हुए ही सरकार ने हिंदुस्तान जिंक लिमिटेड का 26% हिस्सा स्ट्रैटेजिक सेल के ज़रिए स्टरलाइट को बेचा.
ये भी पढ़ें:भारत में बिज़नेस करना आसान पर निवेश कहां है?
दो साल के भीतर इसी सौदे के तहत इसी भाव पर 19% हिस्सा और बेचा गया. कुल मिलाकर 45% हिस्सा क़रीब 769 करोड़ रुपए में बिका. तब कंपनी ढाई सौ करोड़ रुपए के घाटे में चल रही थी. अब भी सरकार के पास इस कंपनी में तीस परसेंट शेयर हैं. और इनकी क़ीमत इस वक्त करीब सत्ताईस हज़ार करोड़ रुपए है. ऊपर से कंपनी की कमाई इतनी हो चुकी है कि वो डिविडेंड, टैक्स और खदानों की रॉयल्टी मिलाकर सरकार को सालाना करीब दस हज़ार करोड़ रुपए देती है.
जानकारों का कहना है कि विनिवेश का सही रास्ता यही है. इससे सरकार का बोझ कम होगा और कमाई बढ़ेगी. वरना एक सरकारी कंपनी को बेचने के नाम पर दूसरी सरकारी कंपनी के पास पहुंचा कर कोई फ़ायदा नहीं होनेवाला जैसा एचपीसीएल ओएनजीसी सौदे में हुआ.
लेकिन अब तो जो होना था वो हो चुका. आगे का रास्ता क्या है? सरकार इस राह पर चल तो पड़ी है लेकिन रास्ता बहुत कठिन है. मुश्किल भी एक नहीं अनेक मोर्चों पर. सबसे पहला सवाल तो ये है कि कंपनियां बिकेंगी कैसे, उनका ख़रीदार कौन होगा और इससे सरकार को फ़ायदा क्या होनेवाला है.
कैसे बिकेंगी का जवाब आसान है, मगर उसके साथ एक बहुत बड़ा पेंच है.वही स्ट्रेटजिक सेल का रास्ता. यानी कोई ऐसी कंपनी इस कंपनी पर नियंत्रण के लिए सबसे अच्छा पैसा देगी जिसके अपने कारोबार को इससे बहुत बड़ा फ़ायदा हो. जैसे स्टरलाइट को हिंदुस्तान जिंक से हुआ.
बीपीसीएल के मामले में वो कंपनी शेल, टोटाल, अरामको, रिलायंस, एस्सार या अडानी में से कोई भी हो सकती है. और शिपिंग कॉर्पोरेशन के मामले में भी कोई ऐसी कंपनी जिसको दुनिया भर में समुद्री जहाज़ों का बेड़ा चलाना अपने भविष्य के लिए अच्छा दिखता हो. लेकिन ये कैसे तय होगा कि सौदा किस भाव पर हो और फिर वो भाव सही भी माना जाए? वरना बाद में 2G, 3G घोटाले की तरह सीएजी की रिपोर्ट में लाखों करोड़ के नुकसान का हिसाब कौन देगा?
दूसरा सवाल ये है कि इस बिक्री से, या ऐसी किसी भी बिक्री से मिलनेवाली रकम का इस्तेमाल क्या होगा? अगर सरकार बजट का घाटा पूरा करने के लिए ही इसका इस्तेमाल करती रही तब हम बड़ी मुसीबत की तरफ बढ़ रहे हैं. क्योंकि घर का सामान बेच बेचकर कोई घर नहीं चल सकता.
ऐसे तो एक दिन हवेली ही नीलाम होगी. इसलिए ये ज़रूरी है कि सरकार देश को भरोसा दिलाए कि इन कंपनियों की बिक्री से आनेवाली रकम कहां और कैसे इस्तेमाल होगी और किस तरह आगे चलकर ये इकोनॉमी को मजबूती देगी.
लेकिन इन सबसे बड़ी चिंता है ये आशंका कि कहीं इस बहाने अपने खास लोगों को रेवड़ियां बांटने का काम तो नहीं होगा. ये जो कुछ बिकना है कहीं वो सिर्फ़ अडानी अंबानी का कारोबार बढ़ाने के काम ही तो नहीं आएगा? शिपिंग कॉर्पोरेशन के एक बड़े अधिकारी का कहना है कि ईस्ट इंडिया कंपनी तो बाहर से आई थी.अब तो लगता है कि हम लोग अपने ही देश के भीतर इन लोगों के गुलाम बन जाएँगे. और ये सिर्फ़ भावना के अतिरेक में दिया गया बयान नहीं है.
उनका कहना है कि अभी हमारी कंपनी में मिलनेवाला वेतन पूरे सेक्टर के लिए बेंचमार्क यानी मानक का काम करता है.और यहां ऐसा भी नहीं है कि सीईओ करोड़ों की तनख्वाह ले और सबसे नीचेवालों को महीने के पांच हज़ार पकड़ा दिए जाएं. संतुलन का ख्याल हमेशा बना रहता है. उन्हें डर है कि अगर सबकुछ प्राइवेट हाथों में गया तो ये संतुलन ही चला जाएगा जो दुर्भाग्यपूर्ण होगा.
ये शक़ बिलकुल बेबुनियाद भी नहीं है. सरकार के लिए बड़ी चुनौती है कि वो कैसे इसे दूर करके दिखाए. लेकिन जब तक वो हो नहीं जाता सवाल उठते रहेंगे. और फ़िलहाल फैसले से अंजाम तक के रास्ते में बहुत से कांटे हैं. बहुत कठिन है डगर पनघट की.
(लेखक सीएनबीसी आवाज़ के पूर्व संपादक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.)