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मॉब लिंचिंग: जान से मार देने वाली ये भीड़ कहां से आती है ?

हाल ही में देश भर में कई जगहों पर मॉब लींचिंग की घटनाएं हुई हैं. झूठी अफ़वाहों के चलते भीड़ ने कई लोगों को मौत के घाट उतारा है. आखिर अचानक इतने लोग एक साथ एक ही मकसद से कैसे इकट्ठे हो जाते हैं.

भीड़ का मनोविज्ञान सामाजिक विज्ञान का एक छोटा-सा हिस्सा रहा है. यह एक अजीब और पुराना तरीका है जिसकी प्रासंगिकता समाज में स्थिरता आने और क़ानून-व्यवस्था के ऊपर भरोसे के बाद ख़त्म होती गई.

By BBC News हिन्दी
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मॉब लिंचिंग, भीड़, असम
AFP
मॉब लिंचिंग, भीड़, असम

हाल ही में देश भर में कई जगहों पर मॉब लींचिंग की घटनाएं हुई हैं. झूठी अफ़वाहों के चलते भीड़ ने कई लोगों को मौत के घाट उतारा है. आखिर अचानक इतने लोग एक साथ एक ही मकसद से कैसे इकट्ठे हो जाते हैं.

भीड़ का मनोविज्ञान सामाजिक विज्ञान का एक छोटा-सा हिस्सा रहा है. यह एक अजीब और पुराना तरीका है जिसकी प्रासंगिकता समाज में स्थिरता आने और क़ानून-व्यवस्था के ऊपर भरोसे के बाद ख़त्म होती गई.

भीड़ के मनोविज्ञान के ऊपर चर्चा एक अलग तरह की घटना के तौर पर शुरू हुई, जब हम फ्रांसीसी क्रांति की भीड़ या फिर कु क्लक्स क्लान की नस्लीय भीड़ को इसका उदाहरण मानते थे.

तब भीड़ के मनोविज्ञान में एक काले व्यक्ति को सफ़ेद लोगों की भीड़ द्वारा मारने का पुराना मसला ही चर्चा का विषय होता था. यहां तक की गॉर्डन ऑलपोर्ट और रोजर ब्राउन जैसे बड़े मनोवैज्ञानिकों भी भीड़ के मनोविज्ञान को एक सम्मानजनक विषय नहीं बना सके.

मॉब लिंचिंग, भीड़, असम
Getty Images
मॉब लिंचिंग, भीड़, असम

कुछ लोग इसे समाज विज्ञान और मनोविज्ञान तक पैथोलॉजी के तौर पर और अनियमित घटनाओं के रूप में सीमित रखते हैं.

मॉब लिंचिंग, भीड़, असम
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मॉब लिंचिंग, भीड़, असम

हीरो बनती भीड़

आज के समय में मार डालने वाली यह भीड़ हीरो बनकर उभरी है. विशेषज्ञों का कहना है कि नायक के रूप में ये भीड़ दो अवतारों में दिखाई देती है.

पहला, भीड़ बहुसंख्यक लोकतंत्र के एक हिस्से के तौर पर दिखती है जहां वह ख़ुद ही क़ानून का काम करती है, खाने से लेकर पहनने तक सब पर उसका नियंत्रण होता है.

आप देख सकते हैं कि भीड़ ख़ुद को सही मानती है और अपनी हिंसा को व्यावहारिक एवं ज़रूरी बताती है. अफ़राजुल व अख़लाक़ के मामले में भीड़ की प्रतिक्रिया और कठुआ व उन्नाव के मामले में अभियुक्तों का बचाव करना दिखाता है कि भीड़ ख़ुद ही न्याय करना और नैतिकता के दायरे तय करना चाहती है.

यहां भीड़ (इसमें जान से मारने वाली भीड़ शामिल है) तानाशाही व्यवस्था का ही विस्तार है. भीड़ सभ्य समाज की सोचने समझने की क्षमता और बातचीत से मसले सुलझाने का रास्ता ख़त्म कर देती है.

मॉब लिंचिंग, भीड़, असम
AFP
मॉब लिंचिंग, भीड़, असम

भीड़ का दूसरा रूप

लेकिन, बच्चे उठाने की अफ़वाह के चलते जो घटनाएं हुईं उनमें भीड़ का अलग ही रूप देखने को मिलता है. इसमें भीड़ के गुस्से के पीछे एक गहरी चिंता भी दिखाई देती है.

बच्चे चोरी होना किसी के लिए भी बहुत बड़ा डर है. ये सोचने भर से लोगों की घबराहट बढ़ जाती है. यहां भीड़ की प्रतिक्रिया के पीछे अलग कारण होते हैं. यहां हिंसा ताक़त से नहीं बल्कि घबराहट से जन्म लेती है.

इसका मकसद अल्पसंख्यकों को नुकसान पहुंचाना नहीं बल्कि अजनबियों और बाहरियों को सज़ा देना होता है जो उनके समाज में फ़िट नहीं बैठते. दोनों मामलों में शक़ तो होता है, लेकिन मारने का कारण अलग-अलग होता है.

एक मामले में अल्पसंख्यकों से सत्ता को चुनौती मिलती है और दूसरे में बाहरी और अनजान पर किसी अपराध का आरोप होता है.

बढ़ती तकनीक, बढ़ती मुश्किलें

दोनों ही मामलों में तकनीक इस गुस्से के वायरस को और फैलाने का काम करती है. तकनीक के इस्तेमाल से अफ़वाहें तेज़ी से फैलती हैं और एक-दूसरे से सुनकर अफ़वाह पर भरोसा बढ़ता जाता है.

पहले तकनीक का विकास बहुत ज़्यादा न होने के चलते अफ़वाहें ज़्यादा ख़तरनाक रूप नहीं लेती थीं.

यहां तक कि ये डिजिटल हिंसा छोटे शहरों और दूर-दराज़ के गांवों में ज़्यादा भयावह तरीके से काम करती है.

ये साफ़ है कि हिंसा का ये तरीका एक महामारी जैसा है. हर बार शुरुआत एक जैसी होती है, हिंसा का ​तरीका एक जैसा होता है. हर मामले में अफ़वाहें आधारहीन होती हैं. फिर ये तरीका एक से दूसरी जगह पहुंचता जाता है.

त्रिपुरा में बच्चे उठाने के शक में तीन लोगों को भीड़ ने मार दिया. एक झूठे सोशल मीडिया मैसेज के चलते क्रिकेट बैट और लातों से मार-मार कर बेरहमी से उनकी जान ले ली गई.

एक व्हाट्सऐप मैसेज ने तमिलनाडु में हिंदी बोलने वाले लोगों को संगठित कर दिया. अगरतला में बच्चे उठाने की अफ़वाह में दो लोगों को मार दिया गया. इस सबके पीछे सोशल मीडिया ज़िम्मेदार है.

यहां सबकुछ बहुत तेज़ी से होता है. किसी को शक़ हुआ, उसने मैसेज भेजा और भीड़ जमा हो गई. ऐसे में न्याय होने की संभावना न के बराबर रह जाती है.

स्थानांतरण एक बड़ी समस्या

इस हिंसा के पीछे चिंता और घबराहट के उस माहौल को ज़िम्मेदार माना जा सकता है जो ऐसे इलाकों में पैदा हुआ है जहां स्थानांतरण बहुत ज़्यादा है. इन इलाकों में दूसरे राज्यों से रोज़गार या अन्य कारणों के चलते लोग आकर बसने लगते हैं.

उन्हें रहने की जगह तो मिल जाती है, लेकिन उन पर लोगों को विश्वास नहीं हो पाता. उन पर भरोसा होने में समय लगता है.

यहां तक कि कुछ इलाकों में तो बाहर के लोग यानी प्रवासियों की संख्या पहले से रहने वाले लोगों के मुकाबले बढ़ भी गई है.

प्रशासन इसे नियंत्रित करने की कोशिश करता है, लेकिन ये पूरी तरह क़ानून व्यवस्था का मसला नहीं है.

इसे क़ानून व्यवस्था की समस्या के तौर पर नहीं बल्कि सामाज में बनी विसंगतियों के तौर पर ही सुलझाया जा सकता है.

स्थानांतरण इनमें से एक समस्या है. इसके चलते किसी इलाके में बाहरी लोगों की संख्या बढ़ जाती है. पर सच ये भी है कि वो बाहरी तो होता है, लेकिन हाशिये पर भी होता है.

दुखद ये है कि उसे ही ख़तरा मान लिया जाता है. फिर सोशल मीडिया पर फैली अफ़वाहें उसके ख़िलाफ़ पहले से बनी सोच को और मज़बूत कर देती हैं.

तकनीक और तर्कहीनता

सबसे बुरा तो ये था कि अगरतला में भीड़ ने उस 33 वर्षीय शख़्स को मार दिया जिसे लोगों को जागरूक करने का जिम्मा सौंपा गया था. यहां भी कहानी का एक अलग पहलू सामने आता है.

पीड़ित सुकांत चक्रवर्ती को अफ़वाहों से बचने के लिए गांव-गांव में घूमकर लाउड स्पीकर से लोगों को जागरुक करने का काम दिया गया था. उनके साथ घूम रहे दो और लोगों पर भी भीड़ ने हमला किया.

यहां लाउड स्पीकर से संदेश पहुंचाने की कोशिश एसएमएस और सोशल मीडिया की तेज़ी और ताक़त के सामने पीछे रह गई.

जान लेने वाली ये भीड़ सोशल मीडिया के नियमों पर चलती है और हिंसा को आगे बढ़ाती है. भीड़ जुटाने वाली इस डिजिटल​ हिंसा को एक अलग तरह की समझ की ज़रूरत है.

भारत के इस मौखिक, लिखित और डिजिटल दौर में इन तीनों से हिंसा का ख़तरा और ज़्यादा बढ़ सकता है. तकनीक की रफ़्तार और भीड़ की तर्कहीनता बदलते समाज का ख़तरनाक लक्षण है.

BBC Hindi
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English summary
MOB Lynching Where does this crowd of killers come from
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