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मेंटल हेल्थः घर में सँभल नहीं पाते, अस्पताल पहुंच नहीं पाते-मानसिक रोगी करें क्या?

बेघर, ग़रीब, विकलांग और मानसिक बीमारियों के शिकार लोग वैसे भी समाज में सबसे पीछे की कतार में होते हैं लेकिन किसी तरह की आपदा की स्थिति में इन्हें और पीछे धकेल दिया जाता है.

By सिन्धुवासिनी
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फ़िल्म जोकर का किरदार आर्थर फ़्लेक
Joker trailer grab
फ़िल्म जोकर का किरदार आर्थर फ़्लेक

"ये आख़िरी बार है जब हम मिल रहे हैं."

"लेकिन, फिर मेरा क्या होगा?"

"उन्हें तुम्हारे जैसे लोगों की ज़रा भी फ़िक्र नहीं है आर्थर. और न ही मेरे जैसे लोगों की."

ये हॉलीवुड फ़िल्म 'जोकर' का एक सीन है, जहाँ आर्थर फ़्लेक (जोकर) को उसकी काउंसलर बताती है कि अब वो नहीं मिल पाएँगे. प्रशासन ने कई क्षेत्रों में फ़ंडिंग रोकने का फ़ैसला किया है. इसलिए उन मानसिक रोगियों को मिलने वाली वो मदद भी रुक जाएगी जो ग़रीब और बेसहारा हैं.

गंभीर मानसिक बीमारी से जूझ रहा आर्थर इस ऐलान से घबरा गया है. वो अपनी काउंसलर से पूछता है कि अब उसका क्या होगा? जवाब में काउंसलर कहती है-आर्थर जैसे लोगों की कोई परवाह नहीं करता.

हमारे आस-पास भी कम या ज़्यादा 'आर्थर' भटक रहे हैं, जिन्हें मदद की सख़्त ज़रूरत है लेकिन शायद वो हमारे ज़हन से कोसों दूर हैं.

इस प्रसंग का ज़िक्र इसलिए ज़रूरी था ताकि आगे जो बात होने वाली है, हम उसकी गंभीरता को ठीक से समझ पाएँ.

बेघर, ग़रीब, विकलांग और मानसिक बीमारियों के शिकार लोग वैसे भी समाज में सबसे पीछे की कतार में होते हैं लेकिन किसी तरह की आपदा की स्थिति में इन्हें और पीछे धकेल दिया जाता है.

कुछ ऐसा है इन दिनों भी हो रहा है. कोरोना महामारी और लॉकडाउन की पाबंदियों ने गंभीर मानसिक बीमारियों (साइकोटिक इलनेस) से जूझ रहे लोगों की ज़िंदगी और मुश्किल बना दी है.

अमृत बख़्शी
Amrit Bakshy/Facebook
अमृत बख़्शी

'बेटी को लॉकडाउन पांच-छह दौरे आए'

पुणे में रहने वाले अमृत बख़्शी की बेटी ऋचा पिछले 27-28 वर्षों से स्कित्ज़ोफ्रीनिया से जूझ रही हैं.

  • स्कित्ज़ोफ्रीनिया एक गंभीर मानसिक बीमारी है जिसमें मरीज़ अक्सर सच्चाई और भ्रम, सही और ग़लत, सच और झूठ जैसी चीज़ों का अंतर नहीं समझ पाता.
  • इस मेंटल डिसऑर्डर के शिकार लोगों को कई बार ऐसी आवाज़ें सुनाई देती हैं और ऐसे चेहरे दिखाई देते हैं जिनका वास्तविकता से कोई लेना-देना नहीं होता.
  • स्कित्ज़ोफ्रीनिया के कुछ मरीज़ आक्रामक भी हो जाते हैं और ऐसे में उन्हें सँभालना बेहद मुश्किल हो जाता है.
  • इस बीमारी में मरीज़ों के लिए नियमित दवा और काउंलिंग लेना, रचनात्मक कामों में व्यस्त रहना और डॉक्टर के संपर्क में रहना बेहद ज़रूरी होता है. अगर इनमें से कोई भी चीज़ छूटी तो बीमारी इंसान पर हावी हो जाती है.
अपनी बेटी ऋचा के साथ अमृत बख़्शी
Amrit Bakhsy/Facebook
अपनी बेटी ऋचा के साथ अमृत बख़्शी

80 बरस के अमृत बख्शी अकेले ही अपनी बेटी को सँभाल रहे हैं. उनकी पत्नी का इसी साल अप्रैल में निधन हो गया. अब वो अपनी बेटी के मां और पिता दोनों हैं. परिवार में बाप-बेटी के सिवाय कोई और नहीं है.

अमृत बताते हैं, "अपनी माँ की मौत से मेरी बेटी को गहरा धक्का लगा है. वो अब भी इससे उबर नहीं पाई है. रह-रहकर रोने लगती है. ऊपर से, लॉकडाउन के दौरान उसे लगातार पांच-छह सीज़र (दौरे) आए. इस दौरान उसे सँभालना मेरे लिए बेहद मुश्किल था."

अमृत कहते हैं कि अब वो अपनी बेटी को अपने कमरे में ही सुलाते हैं. वो रुंधी आवाज़ में कहते हैं, "मैं नहीं चाहता कि उसे कुछ हो जाए और मुझे पता ही न चले."

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ऋचा
Richa
ऋचा

मानसिक बीमारियों को बढ़ाता अकेलापन

बेटी की बीमारी के अनुभवों ने अमृत बख़्शी को स्कित्ज़ोफ्रीनिया के बारे में जागरूकता फैलाने के लिए प्रेरित किया.

लोग इस बीमारी के बारे में अच्छी तरह जान सकें, इस मक़सद से उन्होंने 'स्कित्ज़ोफ्रीनिक अवेयरनेस असोसिएशन' नाम की एक संस्था और मरीज़ों के लिए एक पुनर्वास केंद्र (रिहैबिलिटेशन सेंटर) भी बनवाया.

वो बताते हैं, "कोरोना और लॉकडाउन से पहले मेरी बेटी रोज़ाना इस रिहैब सेंटर में जाती थी. वो वहाँ लोगों से घुलती-मिलती थी. योगासन और प्राणायाम करती थी. वहाँ की रसोई और दूसरे कामों में हाथ बँटाती थी. लेकिन अब सब बंद है. कोरोना की वजह से हम अपना सेंटर बंद रखने पर मजबूर हैं. मेरी बेटी का लोगों से घुलना-मिलना भी लगभग बंद है."

अमृत कहते हैं कि इस समय उनके लिए अपनी बेटी को अकेला महसूस न होने देना एक चुनौती है.

वो बताते हैं, "मैंने अपने अनुभव से देखा है कि अकेलेपन से ये बीमारी बढ़ती है. इसलिए मैं अपनी तरफ़ से पूरी कोशिश करता हूँ कि बेटी अलग-थलग न हो जाए. जब भी मुझे किसी का फ़ोन आता है, मैं उससे अपनी बेटी की बात भी कराता हूँ, ताकि वो दूसरों के संपर्क में बनी रहे."

सांकेतिक तस्वीर
Sujay_Govindaraj
सांकेतिक तस्वीर

अस्पताल कम, डॉक्टर कम और ऊपर से महामारी

मशहूर हेल्थ जर्नल लैंसेट की रिपोर्ट की अनुसार साल 2017 में हर सात में से एक भारतीय किसी न किसी तरह के मेंटल डिसऑर्डर से जूझ रहा था. रिपोर्ट के अनुसार तीन साल पहले भारत में 19 करोड़ से ज़्यादा लोग किसी न किसी तरह की मानसिक बीमारी का शिकार थे.

मरीज़ों की इतनी बड़ी संख्या के बावजूद भारत में मनोचिकित्सकों और सायकाइएट्री अस्पतालों की भारी कमी है.

पिछले साल बीबीसी संवाददाता सुशीला सिंह को दिए इंटरव्यू में केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन ने माना था कि देश में सायकाइएट्री अस्पतालों की संख्या और डॉक्टरों की कमी है.

विश्व स्वास्थ्य संगठन के आँकड़ों के अनुसार साल 2014-16 तक भारत में एक लाख लोगों की आबादी के लिए 0.8 सायकाइट्रिस्ट थे यानी एक से भी कम. डब्ल्यूएचओ के मानकों के अनुसार यह संख्या तीन से अधिक होनी चाहिए.

इतने कम डॉक्टरों और इतनी कम सुविआधों के अलावा भारत में मानसिक बीमारियों को लेकर तरह-तरह की भ्रांतियाँ और शर्मिंदगी भी जुड़ी है.

ऐसी स्थिति में जब देश में कोरोना संक्रमण की लहर आई तो मानसिक रोगियों पर उसकी मार बुरी तरह पड़ी.

देश भर में कई सायकाइएट्री अस्पतालों ने कुछ समय के लिए मरीज़ों को भर्ती करना बंद कर दिया, ओपीडी सेवाएँ बंद कर दीं और ज़रूरी दवाइयाँ मिलना तक मुश्किल हो गया.

दिल्ली सरकार के सायकाइएट्री अस्पताल 'इबहास' (इंस्टिट्यूट ऑफ़ ह्यूमन बिहेवियर ऐंड एलाइड साइंसेज) आम तौर पर लोगों से भरा रहता है लेकिन अब वहाँ ख़ामोशी सी है और मरीज़ आम दिनों की तरह इधर-उधर भागते नहीं दिखते.

हाँलाकि अस्पताल ने महामारी के दौरान भी अपनी इमर्जेंसी सेवाएँ जारी रखी थीं और ओपीडी में पुराने मरीज़ों को आने की भी छूट थी.

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दिल्ली के एक अस्पताल में बेघर मानसिक मरीज़
BBC
दिल्ली के एक अस्पताल में बेघर मानसिक मरीज़

बेघर मानसिक रोगी, जिनकी किसी को फ़िक्र नहीं

अस्पताल के निदेशक डॉक्टर निमेश देसाई बताते हैं कि अब धीरे-धीरे ही सही मरीज़ फिर अस्पतालों में लौटने लगे हैं.

डॉक्टर देसाई ये मानने से भी इनकार नहीं करते कि कोरोना महामारी और लॉकडाउन की पाबंदियों के बीच गंभीर मानसिक रोगियों और उनके परिजनों के लिए हालात बेहद मुश्किल हो गए हैं.

वो बताते हैं, "हमारे पास कई बेघर मरीज़ों को लाया जाता है. हमें उनके बारे में कुछ मालूम नहीं होता. कोरोना संक्रमण के दौर में ऐसे मरीज़ों की देखभाल करना बहुत चुनौतीपूर्ण होता है."

डॉक्टर देसाई बताते हैं कि बेघर मरीज़ों को अब एहतियात के तौर पर शुरुआत में आइसोलेशन वार्ड में रखा जाता है और उनका कोविड टेस्ट निगेटिव आने के बाद ही उन्हें नॉर्मल वॉर्ड में शिफ़्ट किया जाता है.

डॉक्टर देसाई ने बताया बेघर मानसिक रोगियों की मदद के लिए इबहास ने मोबाइल एंबुलेंस सेवा शुरू की है, जिससे उन्हें काफ़ी मदद मिली है.

अगर किसी बेघर मरीज़ को अस्पताल में पहुँचाने की ज़रूरत है तो उसके लिए हेल्पलाइन नंबर 011-22592818, 9868396910 और 9868396911 पर फ़ोन करके अस्पताल से एंबुलेंस और स्वास्थ्यकर्मी बुलाए जा सकते हैं.

इसके बाद स्वास्थ्यकर्मी पुलिस को जानकारी देकर उन बेघर मरीज़ों को अस्पताल ला सकते हैं जिन्हें तत्काल मदद की ज़रूरत है.

सुमित नैयर
BBC
सुमित नैयर

कोरोना के दौर में मानसिक रोगी: सबको अस्पताल नसीब नहीं

51 साल के सुमित नैयर पिछले पांच वर्षों से इबहास में रहते हैं. उन्हें स्कित्ज़ोफ्रीनिया है. कुछ वक़्त पहले सुमित भी कोरोना पॉज़िटिव हो गए थे लेकिन अब वो पूरी तरह ठीक हैं.

उन्होंने बताया, "मेरा अस्पताल में रहना इसलिए ज़रूरी है क्योंकि मेरे परिवार में कोई नहीं है. मेरी बड़ी बहन की शादी हो गई है और वो हर समय मेरी देखभाल नहीं कर सकती. मेरे माता-पिता भी गुजर गए हैं. मैं गुड़गाँव में अकेला ही रहता था."

हालाँकि अब सुमित की बीमारी कंट्रोल में है और डॉक्टरों का कहना है कि वो कुछ दिनों में वापस घर जा सकेंगे. वो कहते हैं कि वापस जाकर अपना कारोबार फिर से शुरू करेंगे.

कभी दिल्ली यूनिवर्सिटी के रामजस कॉलेज में बी.कॉम के मेधावी छात्र रहे सुमित को स्कित्ज़ोफ्रीनिया ने अस्पताल में ला पटका था लेकिन अब वो दोबारा नई ज़िंदगी शुरू करना चाहते हैं.

शक़ील को स्कित्ज़ोफ्रीनिया है. उनकी पत्नी रुख़साना उनका इलाज करा रही हैं.
BBC
शक़ील को स्कित्ज़ोफ्रीनिया है. उनकी पत्नी रुख़साना उनका इलाज करा रही हैं.

सुमित की तरह ही 49 वर्षीय शक़ील भी स्कित्जोफ्ऱीनिया के शिकार हैं और पिछले तीन महीने से इबहास में भर्ती हैं. उनकी पत्नी रुख़साना उनके साथ हैं.

रुख़साना कहती हैं, "इन्हें लगता है कि इन पर जादू-टोना कर दिया गया है. लेकिन सच तो ये है कि इन्हें बीमारी है, और कुछ नहीं. जब ये दवा लेते हैं तो ठीक रहते हैं लेकिन दवा छोड़ते ही बीमारी वापस आ जाती है. जुलाई में इन्हें फिर दौरे आने लगे थे जिसकी वजह से मुझे इन्हें भर्ती कराना पड़ा."

सुमित और शक़ील जैसे लाखों लोग इस समय गंभीर मानसिक बीमारियों से जूझ रहे हैं और उन्हें इलाज के साथ-साथ सही देखभाल की ज़रूरत है. लेकिन हर किसी को सुमित और शक़ील की तरह अस्पताल में एक बिस्तर और एक डॉक्टर मुहाल नहीं होता.

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सांकेतिक तस्वीर
MANPREET ROMANA
सांकेतिक तस्वीर

ऑनलाइन काउंसलिंग नहीं है हल

दिल्ली स्थित विद्यासागर इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एलाइड साइंसेज़ (विमहंस) के जनसंपर्क अधिकारी प्रमोद त्रिपाठी ने बीबीसी को बताया कि अस्पताल में अभी 100 से ज़्यादा कोरोना पॉज़िटिव मरीज़ हैं.

विमहंस में सायकाइट्रिस्ट डॉक्टर सोनाली बाली के मुताबिक़ इन दिनों अस्पताल आने वाले मरीज़ों की संख्या भले कम हो गई लेकिन 'क्राइसिस की हालत' में आने वाले मरीज़ों की संख्या बढ़ी है. यानी ऐसे मरीज़ों की संख्या बढ़ी है जिन्हें तुरंत भर्ती किए जाने या तुरंत मदद की ज़रूरत होती है.

वो बताती हैं, "कोरोना संकट और लॉकडाउन के दौरान बहुत से मरीज़ों की दवा और काउंसलिंग छूट गई. जिसकी वजह से उनकी बीमारी और गंभीर हो गई. ऑनलाइन काउंससलिंग ज़रूर शुरू हुई है लेकिन साइकोटिक इलनेस के मामलों में मरीज़ के लिए ऑनलाइन काउंसलिंग लेना बहुत मुश्किल होता है. ये बीमारियाँ डिप्रेशन और एंग्ज़ायटी जैसी समस्याओं से कहीं ज़्यादा गंभीर होती हैं."

कन्सल्टेंट सायकाइएट्रिस्ट डॉक्टर आशीष पाखरे एक अन्य महत्वपूर्ण बात की ओर ध्यान दिलाते हैं.

वो कहते हैं, "चूँकि साइकोटिक इलनेस के मरीज़ों को अक्सर अपनी सुध-बुध नहीं रहती, ऐसे में उनके कोरोना संक्रमित होनी की आशंका भी बढ़ जाती है."

डॉक्टर आशीष कहते हैं, "आप सोचिए, स्कित्ज़ोफ्रीनिया या पर्सनैलिटी डिसऑर्डर का मरीज़ जिसे सच्चाई और भ्रम का फ़र्क नहीं मालूम, उसे आप फ़िज़िकल डिस्टेंसिंग, मास्क और हैंडवॉश की अहमियत कैसे समझाएंगे?"

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सांकेतिक तस्वीर
Deepak Sethi
सांकेतिक तस्वीर

मानसिक बीमारियों की महामारी के लिए तैयार हैं हम?

स्वास्थ्य विशेषज्ञ लगातार चेतावनी दे रहे हैं कि कोरोना महामारी के बाद हमें 'मानसिक रोगों की सुनामी' का सामना करना पड़ सकता है.

महामारी के दौर में जब स्वस्थ लोग भी तरह-तरह की मानसिक परेशानियों से दो-चार हो रहे हैं तो जो पहले से ही गंभीर रूप से बीमार हैं, उनकी स्थिति की कल्पना की जा सकती है.

डॉक्टर निमेश देसाई कहते हैं कि भारत के लिए ये मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं के बारे में गंभीरता से सोचने और इसमें निवेश करने का मौका है.

हालाँकि वो मानते हैं कि डॉक्टरों और अस्पतालों की संख्या बढ़ाने से ज़्यादा ज़रूरत इच्छाशक्ति की है.

वो कहते हैं, "मैंने महसूस किया है कि देश में सरकारी स्तर पर और डॉक्टरों के स्तर पर, दोनों जगह इच्छाशक्ति की कमी है. सरकार ने जिस तरह पोलियो, मलेरिया, डेंगू और एड्स जैसी बीमारियों को लेकर गंभीरता से काम किया वैसा मानसिक बीमारियों के मामले में कभी नहीं हुआ."

मानसिक स्वास्थ्य की सुविधाएँ बेहतर करने के लिए मेंटल हेल्थकेयर एक्ट, 2017 लाया गया था जिसमें कई प्रगतिशील प्रावधान हैं. लेकिन सवाल ये है कि क्या इन प्रगतिशील प्रावधानों को लागू किया जा सका है? क्या मानसिक रोगियों के जीवन में कोई प्रगति हुई है?

नोट: दवा और थेरेपी के ज़रिएमानसिक बीमारियों का इलाज संभव है. इसके लिए आपको किसी मनोचिकित्सक से मदद लेनी चाहिए. अगर आपमें या आपके किसी करीबी में किसी तरह की मानसिक तकलीफ़ के लक्षण हैं तो इन हेल्पलाइन नंबरों पर फ़ोन करके मदद ली जा सकती है:

  • सामाजिक न्याय और सशक्तीकरण मंत्रालय-1800-599-0019
  • इंस्टिट्यूट ऑफ़ ह्यूमन बिहेवियर ऐंड एलाइड साइंसेज़- 9868396824, 9868396841, 011-22574820
  • नेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ ऐंड न्यूरोसाइंसेज़- 080 - 26995000
  • विद्यासागर इंस्टिट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ ऐंड एलाइड साइंसेज़, 24X7 हेल्पलाइन-011 2980 2980
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English summary
Mental Health: what should mental patients do?
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