हिमालय के ग्लेशियर पिघलने की रफ्तार हुई दुगनी
बेंगलुरु। एक ताज़ा अध्ययन में पाया गया है कि हिमालय पर्वत पर मौजूद ग्लेशियर अब दुगनी रफ्तार से पिघल रहे हैं। 1975 से लेकर वर्ष 2000 तक प्रति वर्ष 10 इंच ग्लेशियर कम हो रहे थे, लेकिन 2000 के बाद से इनके पिघलने की रफ्तार तेज़ हो गई और अब हालात ये हैं कि हर साल ये ग्लेशियर 8 बिलियन टन पानी का रूप ले रहे हैं। इतना पानी जिसने 32 लाख ओलंपिक स्वीमिंग पूल भर जायें। वैज्ञानिकों ने यह भी कहा है कि आने वाले समय में इस भौगोलिक परिवर्तन के घातक परिणाम दिख सकते हैं।
यह अध्ययन कोलंबिया यूनिवर्सिटी की लैमोन्ट-डोहर्टी अर्थ ऑबज़र्वेटरी में किया गया। शोधकर्ता जोशुआ मॉरेर के इस अध्ययन को साइंस एडवांस नाम के जर्नल में शामिल किया गया है। इस अध्ययन में अर्थ ऑबज़र्वेटरी के वैज्ञानिक जोर्ग शेफर और एलीसन कोरले भी शामिल थे।
जर्नल में जोशुआ मॉरेर ने लिखा कि पृथ्वी के बढ़ते तापमान का असर हिमालय पर्वत पर अब तेज़ हो रहा है। वर्ष 2000 से 2016 के बीच पृथ्वी का तापमान 1 डिग्री सेल्सियस बढ़ गया, जोकि 1975 से 2000 के बीच बढ़े तापमान से अधिक था। जाहिर है इसका सीधा असर ग्लेशियर्स यानी हिमनद पर भी पड़ा है। साल 2000 के बाद से ग्लेशियरों के पिघलने की गति तेज़ हो गई है।
साल दर साल और अधिक विनाशकारी होते जायेंगे चक्रवात
इस ऑबजर्वेटरी में पिठले 40 वर्षों से भारत, चीन, नेपाल और भूटान की भौगोलिक गतिविधियों का अध्ययन सैटेलाइट के माध्यम से किया जा रहा है। इसमें पाया गया है कि ग्लेशियर के पिघलने की गति अब हर साल दुगनी होती जा रही है। साथ ही ग्लेशियरों की ऊंचाई भी तेजी से घट रही है। ऑबज़र्वेटरी के मुताबिक हाल ही में खींची गईं, ग्लेशियर्स की तस्वीरें अब तक की सबसे स्पष्ट तस्वीरें हैं, जो उनके पिघलने की रफ्तार को बयां करने के लिये काफी हैं।
अगले 80 सालों में खत्म हो जायेंगे दो-तिहाई ग्लेशियर
वर्तमान में हिमालय पर करीब 600 बिलियन टन बर्फ है। अध्ययन के अनुसार वर्ष 2100 यानी अगले 80 सालों में इसकी दो तिहाई बर्फ पिघल चुकी होगी। यह बात वैज्ञानिकों ने ऐसे ही नहीं कह दी। इस अध्ययन में करीब 2000 किलोमीटर के दायरे में फैले हिमालय के 650 से अधिक ग्लेशियर्स की सैटेलाइट के जरिये तस्वीरें ली गईं। ये तस्वीरें अमेरिका की स्पाई सेटेलाइट के जरिये ली गईं। उनके थ्री-डी मॉडल तैयार किये गये और फिर वैज्ञानिकों ने उनका अध्ययन किया।
अध्ययन में पाया गया कि 1975 से 2000 तक प्रति वर्ष 10 इंच तक ग्लेशियर पिघल रहे थे, जबकि वर्ष 2000 के बाद से रफ्तार बढ़ गई। आलम यह है कि हर साल इनके पिघलने की रफ्तार दुगनी हो रही है। अध्ययन में पाया गया कि हिमालय के निचले इलाकों में तो कई जगहों पर एक साल में करीब 16 फीट तक की बर्फ पिघल गई। कुल मिलाकर हिमालय के ग्लेशियर पिघलने से इतना पानी नीचे आ रहा है, जितने में 32 लाख ओलंपिक स्वीमिंग पूल भर जायें। यानी करीब 8 बिलियन टन पानी।
प्रदूषण कैसे है ग्लेशियरों के पिघलने का कारण
वैज्ञानिकों का कहना है कि ग्लोबल वॉर्मिंग तो मुख्य कारण है ही, लेकिन एशियाई देशों में लकड़ी, कोयला बहुत आधिक मात्रा में जलाया जाता है, जिसका धुआं सीधे आसमान में जाता है और साथ में कार्बन लेकर जाता है। इसी प्रदूषित धुएं के बादल जब पर्वतों के ऊपर छा जाते हैं, तब सोलर एनर्जी यानी सौर्य ऊर्जा को तेज़ी से अवशोषित करते हैं, जिनकी वजह से पर्वत पर जमी बर्फ तेज़ी से पिघलने लगती है।
क्या हो सकते हैं परिणाम
ग्लेशियरों का पिघलना हानिकारक नहीं है, इनका तेज़ी से पिघलना हानिकारक हो सकता है। हिमालय के अलग-अलग भागों में करीब 80 करोड़ लोग सिंचाई के लिये हिमालय के ग्लेशियरों से आने वाले पानी पर निर्भर हैं, अगर यही सिलसिला चलता रहा, तो शुरु में पानी बहुतायात में नीचे आयेगा। एक अध्ययन के अनुसार एक दशक में इतना अधिक पानी हिमालय से निकल जायेगा, कि मैदानी क्षेत्रों में सूखे जैसे हालात पैदा हो जायेंगे।
वहीं एक अन्य अध्ययन के मुताबिक ग्लेशियर अगर यह पानी कहीं एक जगह एकत्र हुआ और अचानक नीचे आया, तो अपने साथ पत्थरों का मलबा लेकर आयेगा और बेहद विनाशकारी होगा। हालांकि दोनों ही अध्ययन में यह कहा गया कि इसकी वजह से प्राकृतिक आपदाओं का खतरा बढ़ रहा है।