आज हिन्दी दिवस-आइये मिलें कुछ विदेशी हिन्दी सेवियों से
नई दिल्ली(विवेक शुक्ला) आज हिन्दी दिवस (14 सितंबर) पर देश के विभिन्न भागों में कथित से लेकर सच्चे हिदी सेवियों का सम्मान होगा। पर हम आपको आज मिलवाते हैं कुछ उन हिन्दी के चाहने वालों को जो विदेशी हैं।
आइये शुरू करते हैं ब्रिटेन के रोनाल्ड स्टुर्टमेक्ग्रेगर से।
रोनाल्डस्टुर्टमेक्ग्रेगर हिन्दी के सच्चे प्रेमी थे।उनसे ज्यादा शायद ही किसी ने पशिचमी दुनिया में हिन्दी की सेवा की हो। उन्होंने 1964 से लेकर 1997 तक कैम्बिजयूनिवर्सिटी में हिन्दी पढ़ाई। वे चोटी के भाषा विज्ञानी,व्याकरण के विद्वान, अनुवादक और हिन्दी साहित्य के ईतिहासकार थे। मेक्ग्रेगर सबसे पहले 1959-60 में हिन्दी के अध्ययन के लिए इलाहाबादयूनिवर्सिटीआए थे। उसके बाद उन्होंने 1972 में हिन्दी व्याकरण पर ‘ एन आउटलाइनआफ हिन्दी ग्रेमर' नाम से महत्वपूर्ण पुस्तक लिखी। डीयू में इंग्लिश पढ़ा रहे डा. हरीश त्रिवेदी ने उन पर हाल ही में लिखे एक निबंध में कहा कि ये हिन्दी व्याकरण पर बेजोड़ पुस्तक है।मेक्रग्रेगर ने आचार्य रामचंद्र शुक्ल पर गंभीर शोध किया। उन्होंने हिन्दी साहित्य के इतिहास पर दो खंड तैयार किए। इस विनम्र हिन्दी सेवी का हाल ही में निधन हो गया। वे 84 साल के थे। अफसोस कि उन पर किसी भी हिन्दी अख़बार या पत्रिका ने कुछ भी नहीं लिखा।
पीटर वरानिकोव
अब बात हो जाए रूस के पीटर वरानिकोव की। उन्होंने रामचरित मानस का किया था रूसी भाषा में अनुवाद। पीटरवरानिकोव के लिए कहा जा सकता है कि वे भले ही रूसी हों पर किसी किसी जन्म में हिन्दुस्तानी रहे होंगे। भारत उनके दिल में बसता है। उन्होंने रामचरित मानस का रूसी भाषा में अनुवाद किया। उऩके पिता भी हिन्दी के विद्वान थे। उन्हीं से पीटर ने हिन्दी सीखी। उसके बाद उन्होंने संस्कृत का भी कायदे से गहन अध्ययन किया। वे 70 के दशक में राजधानी केसोवियत सूचना केन्द्र से जुड़े थे। उस दौर में राजधानी में सक्रिय मीडियाकर्मियों को याद होगा कि वे 90 के दशक के शुरूआती सालों तक हिन्दी अखबारों के दफ्तरों में अपने मित्रों से मुलाकात करने के लिए आते रहते थे। वेयारबाश थे। वे कॉफी हाउस में नियमित रूप से मित्रों के गप मारते हुए नजर आ जाते थे। उनके परम मित्रों में मशहूर लेखक देवेन्द्रसत्यार्थी थे। सोवियत संघ के विघटन के बाद वे रूस वापस लौट गए।वरानिकोव के मित्र और वरिष्ठ लेखक विनोद वार्ष्णेय ने बताया कि दिल्ली से वापस लौटने के बाद उन्होंने अपने पुत्र के साथ मिलकर एक बॉलीवुडपर पत्रिका भी निकाली। पत्रिका रूसी में थी। उसकी पाठक संख्या ठीक-ठाक थी। जाहिर है, उम्र के बढ़ने के चलते वे पहले की तरह से तो सक्रिय नहीं हैं।
चीनी हिन्दी सेवी
प्रोफ़ेसर च्यांग चिंगख्वेइ भी चोटी के हिन्दी सेवी हैं। उन्होंने जयशंकर प्रसाद के "आंसू" काव्य पर गहन शोध किया है। प्रो. च्यांगचिंगख्वेह ने चीन में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अपना जीवन समर्पित कर दिया है। वे लगभग 25 सालों से पेइचिंगयूनिर्वसिटी के हिन्दी विभाग से जुड़े हैं। वे आजकल पेइचिंगयूनिर्विसिटी के सेंटर फॉर इंडियन स्टडीज के अध्यक्ष हैं। उन्होंने जयशंकर प्रसाद के "आंसू" काव्य पर गहन शोध किया। इसके अलावा उन्होंने जयशंकर प्रसाद की कहानियों पर भी अध्ययन किया। वे कहते हैं,चीन में भारत और हिन्दी को लेकर हमेशा से ही खासा जिज्ञासा का भाव रहा है। उनका मानना है कि भारत-चीन के बीच कटुता पूर्ण संबंधों के चलते चीन में हिन्दी का सही तरीके से विकास नहीं हो पाया। उन्हें 2007 में न्यूयार्कमें आयोजित आठवें विश्व हिन्दी सम्मेलन में पूर्व विदेश राज्यमंत्री श्री आनन्द शर्मा ने सम्मानित किया था। वे हिन्दी में कहानियां भी लिख रहे हैं।
अकियोहाग भगवान बौद्ध के चलते भारत और हिन्दी से जुड़े।
आकियोहागा जापानी और हिन्दी भाषा के विद्वान हैं। भारत उनके मन में बचपन से ही कौतहूल पैदा कराया था। भारत से बौद्ध धर्म के संबंधों के चलते भीहागा भारत से प्रभावित रहते थे। उन्होंनेटोक्योयूनिर्विसिटीआफफॉरेनस्टडीज से हिन्दी में एम.ए करने के बाद हिन्दी अध्यापन की दुनिया में कदम रखा। वे जापान में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए जुड़े हुए हैं। टोक्योयूनिर्विसिटीमें हिन्दी 1909 से पढ़ाई जा रही है। भारत से बाहर सबसे पहले हिन्दी की क्लासेज यहां पर ही शुरू हुईं। हागा के सहयोगी रहे डा. सुरेश रितुपर्णा ने बताया किहागा ने जापान की 9 वीं सदी में लिखी गई कहानी ताकेतोरीमोनोगातारी ( बांस काटने वाले की कहानी) का हिन्दी में अनुवाद करके हिन्दी समाज के बीच में अपनी छाप छोड़ी। वे आजकल महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिन्दी विश्वविद्यालय,वर्धा में विजिटिंगप्रोफेसर भी हैं। भारतीय संस्कृति की चर्चा शुरू होते ही वे कहते हैं कि मुझे भारत की संस्कृति इतनी भाती है कि मेरी चाहत है कि मेरा अगला जन्म भारत में ही हो।
गिलयिन राइट कमाल की हिन्दी सेवी है। गिलयनराइट अपने हिन्दी प्रेम के चलते भारत के ही हो गईं। उनकीलंदनयूनिवर्सिटी में पढ़़ाई के दौरान हिन्दी और उर्दू को लेकर दिलचस्पी पैदा हुई। इनका अध्ययन शुरू किया तो वो बदस्तूर जारी रहा। उसके बाद वे 1977 में भारत आ गई। यहां पर राही मासूम रजा और श्रीलालशुक्ला पर ठोस काम करना शुरू किया। इनके उपन्यास ‘आधा गांव' और ‘राग दरबारी' का अंग्रेजी में अनुवाद किया। बाद के वर्षों में भीष्म साहनी की कहानियों का भी अनुवाद किया। इन तीनों दिग्गजों के कामों का अनुवाद करके गिलियन ने अपने लिए हिन्दी जगत में एक खास जगह बना ली है। श्रीलाल शुक्ल और रजा के उपन्यासों में आंचलिकता का खासा पुट है। आचंलिक मुहावरे हैं। उन्होंने आंचलिक शब्दों और मुहावरों को जिस बखूबी के साथ अंग्रेजी में अनुवाद किया उसकी जितनी तारीफ की जाए कम है। वे बताती हैं, आधा गांव में राग दरबारी से ज्यादा आंचलिकता की खुशबू है। मैं आधा गांव के माहौल और जुबान को ज्यादा करीब से समझने के लिए राही मासूस रजा साहब की बहनों से मिली। कई इमामबाड़ों में गई और मर्सिया देखा। ये सब करने से मुझे आधा गांव का अनुवाद करने में मदद मिली।
विदेशी भी हिन्दी को प्रेमऔर मानवीय संवेदना की भाषा तो मानते हैं
या
लंबी परम्परा है भारत से बाहर हिन्दी अध्यापन की
विवेक शुक्ला
हालांकि कहने वाले कहते हैं कि हिन्दी रोजी की भाषा तो नहीं बन पाई, पर फिर भी कोई बात है जिसके चलते इसका अध्ययन करने की लालसा दुनियाभर में बनी हुई है। भारत की पुरातन संस्कृत, इतिहास और बौद्ध धर्म से संबंध एक अरसे से भाषाविदों को बारास्ता हिन्दी भारत से जोड़ते हैं। कम ही लोगों को मालूम है कि टोक्योयूनिर्विसिटीमें 1908 में हिन्दी के उच्च अध्ययन का श्रीगणेश हो गया था। चंदेक बरस पहले इस विभाग ने अपनी स्थापना के 100 साल पूरे किए। यहां पर करीब दस सालों तक पढ़ा चुके डा. सुरेश रितुपर्णा ने बताया कि जापान में भारत को लेकर जिज्ञासा के बहुत से कारण रहे। गुरुदेव रविन्द्रनाथटेगोर चार बार वहां की यात्रा पर गए। बौद्ध से भारत से संबंध तो एक बड़ी वजह रहे ही है। वे कहते हैं, अब तो जापानी मूल के लोग ही वहां पर मुख्य रूप से हिन्दी पढ़ा रहे हैं। वहां पर हर बरस करीब 20 विद्यार्थी हिन्दी के अध्ययन के लिए दाखिला लेते हैं। पूर्व सोवियत संघ और उसके सहयोगी देशों जैसे पोलैंड, हंगरी,बुल्गारिया, चेकोस्लोवाकिया वगैरह में भी हिन्दी के अध्ययन की लंबी परम्परा रही है।
हिन्दी के सुप्रसिद्ध नाटककार प्रताप सहगल कहते हैं कि एक दौर में सोवियत संघ और पूर्वी यूरोप के बहुत से देशों और भारत की नैतिकताएं लगभग समान थीं। वहां पर कम्युनिस्ट व्यवस्था थी,जबकि भारत में नेहरुवियनसोशलिज्म का प्रभाव था। दुनिया के बहुत से नामवर विश्वविद्लायों में हिन्दी चेयर इंडियन काउंसिल आफकल्चरलरिलेशंस (आईसीसीआर) के प्रयासों के स्थापित हुईं। इनमें साउथकोरिया के बुसान और सियोलविश्वविद्लायों के अलावा पेइचिंग, त्रिनिडाड, इटली, बेल्जियम, स्पेन, तुर्की,रूस वगैरह के विश्वविद्लाय शामिल हैं। साउथकोरिया में हिन्दी को सीखने की वजह विशुद्ध बिजनेस संबंधी है। दरअसल वहां की अनेक मल्टीनेशनलकंपनियां भारत में मोटा निवेश कर चुकी हैं। इनमें हुंदुई,सैमसंग,एलजी शामिल हैं।साउथ कोरियाई कंपनियों का भारत में पिछले साल निवेश 3 बिलियनडॉलर का था। ये वहां से पेशेवरों को यहां पर भेजती हैं,जिन्हें हिन्दी का गुजारे लायक ज्ञान तो हो। मतलब यह है कि बाजार का फीडबैक लेने के लिए साउथकोरिया की कंपनियों को भारत के मुलाजिमों पर ही भरोसा न करना पड़े।
अमेरिका के भी येले,न्यूयार्क,विनकांसन वगैरह विश्वविद्यालयों में हिन्दी पढ़ाई जा रही है। छात्रों की तादाद भी बढ़ती जा रही है। इधर भी अमेरिकी या भारतीय मूल के अमेरिकी नागरिक ही हिन्दी अध्यापन कर रहे हैं। तो लगता यह है कि भले ही हिन्दी के लिए कहा जाता रहे कि ये रोजी के साथ न जुड़ी हो, पर प्रेम,संस्कृति और मानवीय संवेदना की भाषा के रूप में तो इसने अपने लिए हर देश में जगह बना ली है। उसी के चलते हर साल हजारों विदेशी हिन्दी का अध्ययन करते हैं।