सपा के कोर वोटर को हड़पने के लिए मायावती ने तोड़ा गठबंधन? समझिए कैसे
नई दिल्ली- लोकसभा चुनाव से पहले समाजवादी पार्टी के साथ गठबंधन को लेकर बड़ी-बड़ी बातें करने वाली बीएसपी सुप्रीमो मायावती ने भतीजे अखिलेश यादव को झटका दिया है, तो उसके पीछे उनकी एक सोची-समझी रणनीति अब जगजाहिर होने लगी है। 90 के दशक से उत्तर प्रदेश में मुसलमानों को समाजवादी पार्टी का कोर वोट समझा जाता है। लेकिन, इस लोकसभा चुनाव में जीरो से 10 सीटें जीतने वाली बीएसपी सुप्रीमो मायावती को लगने लगा है कि मुसलमानों को समाजवादी पार्टी से अलग कर पूरी तरह से अपने साथ करने का उनके लिए इससे बेहतर मौका नहीं हो सकता। लोकसभा चुनाव के नतीजे आने के बाद माया ने जितने भी राजनीतिक फैसले लिए हैं और जितने भी बयान दिए हैं, उसका विश्लेषण करने पर उनकी रणनीति समझी जा सकती है।
बीजेपी की मेन चैलेंजर दिखने कोशिश
इस बार के लोकसभा चुनाव में यूपी की 80 में से 10 सीटें जीतने वाली बीएसपी, समाजवादी पार्टी के मुकाबले दोगुनी बड़ी ताकत बनकर उभरी है। 2019 में उत्तर प्रदेश में 6 मुसलमान उम्मीदवार सांसद बने हैं, जिनमें से 3 बहुजन समाज पार्टी के हैं। 2014 में बीएसपी की तरह ही उत्तर प्रदेश में मुसलमानों का भी खाता नहीं खुला था। अखिलेश यादव से गठबंधन के दौरान मायावती ने चुनाव लड़ने के लिए जो 38 सीटें ली थीं, उनमें से खासकर पश्चिमी यूपी की ज्यादातर मुस्लिम बहुल सीटें उन्हें हीं मिली थीं। जबकि, अखिलेश यादव ने अपनी पार्टी के लिए उन शहरी सीटों के लिए समझौता किया था, जहां बीजेपी की चुनौती का सामना करना उनपर बहुत भारी पड़ा। अब मायावती ने कहना शुरू कर दिया है कि 'अखिलेश 'एंटी-मुस्लिम' हैं। उन्होंने मुसलमानों को टिकट देने से रोकने भी कोशिश की थी। उनका तर्क था कि अगर मुसलमानों को टिकट दिया, तो बीजेपी को ध्रुवीकरण करने में मदद मिलेगी।' जाहिर है कि इन बयानों से माया मुस्लिमों की नजर में बीएसपी को बीजेपी का मेन चैलेंजर और सपा को खुद के मुकाबले कमजोर दिखाना चाहती हैं।
मुसलमानों पर सियासी डोरे डालने की कोशिश
मायावती को मुस्लिमों को समाजवादी पार्टी से अपनी ओर करने का इस वक्त सबसे सही समय लग रहा है। क्योंकि, समाजवादी का कोर वोटर होने के बाद भी यह तथ्य है कि उसका जनाधार खिसकने लगा है। इस लोकसभा चुनाव में बीएसपी को 19.26% और समाजवादी पार्टी को 17.96% मिले हैं। सपा के इस वोट शेयर में गिरावट को बसपा अपनी माइलेज के तौर पर देख रही है। अब बीएसपी सुप्रीमो इसी आधार पर यूपी की राजनीतिक बिसात बिछाने की तैयारी में जुट गई हैं। नसीमुद्दीन सिद्दीकी के बाद पार्टी के पास कोई कद्दावर मुस्लिम चेहरा नहीं था। इसीलिए मायावती ने जेडीएस छोड़कर बसपा में शामिल हुए अमरोहा के अपने सांसद दानिश अली पर बड़ा दांव लगाया है। उन्हें लोकसभा में अपने 10 सांसदों के संसदीय दल का नेता नियुक्त किया है। बीएसपी अध्यक्ष को लग रहा है कि प्रदेश के 19 फीसदी से ज्यादा मुसलमान और 21 फीसदी से ज्यादा दलितों को साथ करके वह भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी बन सकती हैं। वैसे ये अलग बात है कि 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी ने 49.56% वोट शेयर हासिल किए हैं, तो इसका मतलब साफ है कि वह समाज के सभी वर्गों में अपना प्रभाव बना चुकी है, जिनमें दलितों का एक बहुत बड़ा वर्ग भी शामिल है; और इस दम पर वह 2022 तक इस लक्ष्य को 60% तक ले जाना चाहती है।
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2007 का फॉर्मूला अपनाने की कोशिश
पश्चिमी यूपी के मुरादाबाद डिविजन की चार सीटों- अमरोहा, रामपुर, संभल और मुरादाबाद में जहां 35% से ज्यादा मुसलमान हैं, गठबंधन के उम्मीदवारों को कामयाबी मिली है। इसे यूपी में मुस्लिम-दलित वोटों की जुगलबंदी का एर नतीजा माना जा सकता है। यही कारण है कि माया ने 2007 के दलित-मुस्लिम फॉर्मूले पर वापस लौटने का मंसूबा पाला है। अब तो लगता है कि यह बात बहनजी के मन में कहीं न कहीं पहले से ही मौजूद थी। देवबंद की रैली में उन्होंने मुसलमानों से एकजुट होकर वोट करने की जो अपील की थी, उसका भी यही मकसद था, जिसपर चुनाव आयोग ने उनके खिलाफ कानूनी डंडा भी चलाया था। माया को उसका फायदा भी मिला और सहारनपुर की सीट बीएसपी के हाजी फजलुर्रहमान ने जीत भी ली। 2007 में माया ने दलित और मुस्लिमों के साथ ही ब्राह्मणों को भी अपने साथ जोड़ने में कामयाबी हासिल की थी।
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