मायावती का बड़ा ऐलान, मध्य प्रदेश में अकेले लड़ेगी बसपा, कांग्रेस को इतनी सीटों पर चुकानी पड़ेगी कीमत
नई दिल्ली। बहुजन समाजवादी पार्टी सुप्रीमो मायावती ने गुरुवार को मध्य प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया। मध्य प्रदेश कांग्रेस प्रभारी कमलनाथ बीते कई महीने से बसपा के संपर्क में थे। उन्हें उम्मीद थी कि वह मायावती के साथ गठजोड़ करने में कामयाब रहेंगे, लेकिन आखिरकार उन्हें निराशा ही हाथ लगी। मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव 2018 के लिहाज से बसपा का अकेले चुनाव मैदान में उतरना कांग्रेस के लिए बहुत बड़ा झटका है। इस बार अगर दोनों दल गठजोड़ करके लड़ते तो बीजेपी के लिए बड़ी मुश्किल खड़ी हो सकती थी, क्योंकि इस बार शिवराज सरकार के खिलाफ एंटी इनकमबैंसी पिछले चुनावों की तुलना में कहीं ज्यादा है। मध्य प्रदेश के कुछ इलाकों में बसपा लंबे समय से ताकतवर रही है। चंबल और उत्तर प्रदेश की सीमा से सटे इलाकों में बसपा काफी मजबूत मानी जाती है। बसपा की मध्य प्रदेश में मजबूत स्थिति के पीछे सबसे अहम कारण है- एमपी में 15 प्रतिशत दलितों की मौजूदगी। कुल मिलाकर देखें तो राज्य के करीब 22 जिलों में बसपा का खास प्रभाव है। मायावती के मध्य प्रदेश में अकेले चुनाव लड़ने से जितना नुकसान बसपा को होगा, उससे कहीं ज्यादा कीमत कांग्रेस को सीटें गंवाकर चुकानी पड़ेगी। बसपा के अकेले चुनाव लड़ने से बीजेपी, कांग्रेस और खुद उनकी पार्टी बसपा की सीटों का समीकरण कैसा रहेगा, आइए जानते हैं:
2003 मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के आंकड़े बताते हैं कांग्रेस की मुश्किल
सबसे पहले 2003 मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव के परिणामों से आंकड़ों की कहानी समझते हैं। कांग्रेस ने यह चुनाव दिग्विजय सिंह की लीडरशिप में लड़ा था। इस चुनाव में मध्य प्रदेश की कुल 230 विधानसभा चुनाव में से कांग्रेस को 38 सीटों पर जीत मिली थी। 2003 विधानसभा चुनाव में बसपा केवल 2 सीटें जीत पाई थी, लेकिन उसने कांग्रेस को बड़ा नुकसान पहुंचाया था। इस चुनाव में कांग्रेस 25 सीटें सिर्फ बसपा की वजह से हार गई थी। बसपा के साथ भी ऐसा ही हुआ। बसपा 14 सीटें कांग्रेस की वजह से हार गई थी। इन दोनों पार्टियों के नुकसान को जोड़ा जाए तो 25+14=39, ये वो सीटें हैं, जो दोनों दल अलग-अलग लड़ने की वजह से हार गए थे। अगर दोनों की सीटों को जोड़ा जाए तो आंकड़ा 79 पहुंचता है।
2008 मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी दोहराई गई यही कहानी
मध्य प्रदेश 2008 विधानसभा चुनाव में शिवराज सिंह चौहान लगातार दूसरी बार राज्य बने थे। इस चुनाव में भी बसपा और कांग्रेस अलग-अलग लड़े थे। 2008 में कांग्रेस ने मध्य प्रदेश में 71 विधानसभा सीटों पर जीत दर्ज की थी। वहीं, 2003 में 173 सीटें जीतने वाली बीजेपी 143 सीटों पर जीत के साथ सत्ता में लौटी थी। इस चुनाव में बसपा ने कांग्रेस को करीब 39 पर झटका दिया था, जबकि खुद बसपा को करीब 14 सीटें पर कांग्रेस की वजह से मात खानी पड़ी। अगर 71+39+14 को जोड़ दिया जाए तो आंकड़ा 131 पहुंच जाता है। मतलब बीजेपी की 143 सीटों के बेहद करीब।
2013 मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी बसपा ने दिया कांग्रेस को झटका
2013 मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में भी बसपा और कांग्रेस को अलग-अलग लड़ने से नुकसान उठाना पड़ा। मतलब पिछले विधानसभा चुनाव में बीजेपी 165 सीटें जीतने में कामयाब रही थी। बसपा 4 और कांग्रेस 58 सीटें जीतने में सफल रही थी। अगर मध्य प्रदेश की सभी सीटों पर हुए मतदान में कांग्रेस और बसपा के मतों को साथ मिलाया जाए तो बसपा-कांग्रेस को 103 सीटों पर जीत हासिल हो सकती थी, लेकिन गठबंधन नहीं होने की वजह से 41 सीटों पर हार सामना करना पड़ा।
इस बार बसपा-कांग्रेस साथ आते तो बन जाता विनिंग कॉम्बिनेशन
अगर तीनों विधानसभा चुनाव के नतीजों पर गौर करें तो बसपा और कांग्रेस के अलग लड़ने से बीजेपी 40 से 60 विधानसभा सीटों पर लाभ मिलता रहा है। या यूं कहें कि कांग्रेस और बसपा को 40 से 60 सीटों पर हार मिलती रही है। केवल कांग्रेस की बात करें तो उसे करीब 30 से 40 सीटें हर चुनाव में बसपा की वजह से गंवानी पड़ी हैं। 2018 के मध्य प्रदेश विधानसभा चुनाव में दोनों दलों का साथ आना विनिंग कॉम्बिनेशन साबित हो सकता था। ऐसा इसलिए क्योंकि इस बार शिवराज सिंह चौहान के खिलाफ सबसे ज्यादा एंटी-इनकमबैंसी है। ऐसे में जिन दलों के चलते हर चुनाव में 40 से 60 सीटों का नुकसान हो रहा था, मतलब बीजेपी को फायदा मिल रहा था। ऐसे में अगर बसपा और कांग्रेस के साथ आने से इस बार आसानी से 80 से 90 विधानसभा सीटों पर असर पड़ता। कांग्रेस-बसपा का गठबंधन इस बार विनिंग कॉम्बिनेशन साबित हो सकता था, लेकिन ऐसा हुआ नहीं।