महाराष्ट्र: क्या शिवसेना छोड़ देगी कट्टर हिंदुत्व का रास्ता ?
बेंगलुरु। महाराष्ट्र में सीएम पद का संघर्ष भारतीय जनता पार्टी और शिवसेना के तीन दशक पुराने गठबंधन पर भारी पड़ गया है। सीएम की कुर्सी की लड़ाई में भाजपा और शिवसेना के बीच तीस साल पुराना याराना टूट गया।शिवसेना के संस्थापक बाला साहेब ठाकरे ने 1989 में भारतीय जनता पार्टी के साथ गठबंधन किया।
दोनों पार्टियों ने 1989 का लोकसभा चुनाव और 1990 का महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव साथ मिलकर लड़ा और सीटों के लिहाज से अपने ग्राफ में इजाफा किया। 1980 के दशक के अंत से शुरू हुए यारानें का शिवसेना की जिद्द के चलते अंत हो गया।
महाराष्ट्र विधानसभा चुनाव 2019 में दोनों पार्टियों के बीच हुआ महागठबंधन के प्रमुख सहयोगी शिवसेना के गठबंधन धर्म निभाने से इनकार करने के बाद महाराष्ट्र में सरकार नहीं बन पायी। शिवसेना मुख्यमंत्री की कुर्सी की लालसा में विरोधी पार्टी एनसीपी-कांग्रेस के साथ गठबंधन करके सरकार बनाने जा रही है। इसकी कोशिशें भी शुरू हो गई हैं। शिवसेना की ओर से एनसीपी नेता शरद पवार से तो शिवसेना के प्रवक्ता संजय राउत का मुलाकातों का दौर पहले से ही जारी था। कुल मिलाकर अब महाराष्ट्र में भी दो विपरीत विचारधाराओं की पार्टियों के बीच गठबंधन होने वाला है।
महाराष्ट्र में शिवसेना अपना मुख्यमंत्री बनाए इसके लिए अपने दो विरोधियों एनसीपी और कांग्रेस से हाथ मिला रही है। ऐसे में क्या मान लिया जाए कि शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे कट्टर हिंदूवादी थे। जिन्होंने हिदुत्व की हुंकार भरी और हिंदू दिलों पर सदा राज किया। अब उनके बेटे उद्धव ठाकरे आदित्य ठाकरे की अनुवाई में सत्ता पर काबिज होने के लिए क्या सेकुलर पार्टी के साथ हाथ मिलाकर शिवसेना कट्टर हिंदुत्ववाद का रास्ता छोड़ देगी ? शिवसेना जो सेकुलर शब्द को 'छद्म' कहती थी वह अब एनसीपी और कांग्रेस के साथ गठबंधन करके सेकुलर रास्ता अख्तियार करेगी? अगर शिवसेना ऐसा करती है तो महाराष्ट्र की राजनीति में वर्षों बाद जबरदस्त बदलाव होना तय है।
बता दें राम जन्मभूमि आंदोलन शुरू होने के बाद शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे ने कट्टर हिदुत्व का रास्ता अपनाया था। बाल ठाकरे ही थे जिन्होंने डंके की चोट पर स्वीकार किया था कि अयोध्या में राम मंदिर-बाबरी मस्जिद के विवादित ढांचे को शिवसेना कार्यकर्ताओं ने ही ढहाया। इसके बाद से ही शिवसेना देश में हिंदुत्व का प्रतिनिधि दल रहा है।
अब जब अयोध्या विवाद पर सुप्रीम कोर्ट ने फैसला देकर रामलला के विवादित स्थल को हिंदुओं को राम मंदिर बनाने के लिए सौंपा है। ठीक उसी समय शिवसेना इस मोड़ पर आकर खड़ी हुई है जब उसे भाजपा के साथ गठबंधन तोड़ने के साथ कट्टर हिंदुत्व या महाराष्ट्र में अपना मुख्यमंत्री दोनों में से एक का चयन करना है। एनसीपी-कांग्रेस के साथ सरकार बनाने पर निश्चित तौर पर शिवसेना को कट्टर हिंदुत्व का मार्ग छोड़ना पड़ेगा। इतना ही नहीं शिवसेना को अयोध्या के बाद काशी और मथुरा की बात करती रही है उस नारे को भी छोड़ना पड़ेगा।
शिवसेना पिछले 30 सालों से भाजपा के साथ गठबंधन में सरकार बनाती रही है, लेकिन हर कार्यकाल में शिवसेना ही भाजपा के खिलाफ भी बोलती दिखी, जबकि दोनों की विचारधारा एक ही है। यहां तो दो विचारधाराओं वाली पार्टियों का गठबंधन होने की बात हो रही है, इसलिए यह सवाल उठना भी लाजमी है कि यह सरकार बन जो जाएगी। लेकिन सरकार कैसे चलेगी? क्या शिवसेना भूल गई कि जम्मू-कश्मीर में भाजपा-पीडीपी गठबंधन ) का क्या हाल हुआ था?
याद रहे कि शिवसेना हिंदुत्व के मुद्दे पर कई मामलों में भाजपा भी ज्यादा आक्रामक रही है। इसीलिए हिंदूओं ने उनके नाम के आगे 'हिंदू हृदय सम्राट' का टाइटल तक दे डाला। शिवसेना के संस्थापक बालासाहेब ठाकरे कट्टर हिंदूवादी थे उनके बाद से शिवसेना की कमान संभालने वाले उद्धव भी कट्टर हिंदुत्व के रास्ते पर ही चलते रहे हैं।
लोकसभा चुनाव 2019 में अयोध्या में अपने बेटे आदित्य ठाकरे के साथ पहुंचकर राममंदिर निर्माण मुद्दे पर जमकर खरी-खोटी सुनाई। उद्ध्व ने इसी समय भाजपा पर यह तक आरोप लगा दिया कि भाजपा राम मंदिर निर्माण की राह में आई बाधाओं को जानबूझकर दूर नहीं कर रही है। यह पहला मौका था जब ठाकरे परिवार का कोई सदस्य महाराष्ट्र से बाहर निकला। भाजपा के खिलाफ इसी विरोधी तेवर के चलते उद्वव के इस दौरे के कारण खूब सुर्खियां बटोरी।
महाराष्ट्र में पिछली सरकार में रहते हुए भी शिवसेना ने अक्सर ही भाजपा के खिलाफ बयानबाजी की। बल्कि 2014 का तो चुनाव भी दोनों पार्टियों ने अलग-अलग लड़ा था क्योंकि सीटों के बंटवारे को लेकर दोनों में कोई समझौता नहीं हो सका था। भाजपा ने तब भी सत्ता के लिए शिवसेना के साथ हाथ तो मिला दिया, लेकिन शिवसेना वो दोस्त निकला जो पूरे कार्यकाल गले की हड्डी बना रहा! इतना कुछ होने के बावजूद भाजपा ने फिर से उसी शिवसेना के साथ गठबंधन कर लिया, जिसकी नतीजा ये हुआ कि भाजपा को मिली सीटों में गिरावट आई। पिछली बार जहां भाजपा ने सिर्फ अपने दम पर 122 सीटें हासिल की थीं, इस बार वह सिर्फ 105 के आंकड़े तक ही पहुंच सकी।
पिछली बार शिवसेना के साथ मिलकर सरकार चलाने में जो दिक्कतें आईं, उनसे भाजपा ने सबक नहीं लिया और अब शिवसेना फिर से भाजपा को सबक सिखाने में लगी हुई है। ऐसे एक-दो नहीं, बल्कि कई वाकये हैं, जिन्हें देखकर ये साफ होता है कि भाजपा को शिवसेना के साथ गठबंधन करने का अफसोस हो रहा होगा।
अगर 2014 के महाराष्ट्र चुनाव प्रचार के दौरान उद्धव ठाकरे के भाषण को फिर से सुनें तो यह साफ हो जाएगा कि उनके मन में बीजेपी और उसके नेताओं के खिलाफ बहुत ज्यादा विष भरा है, जिसे वह जब भी मौका मिलेगा, उगल देंगे। इसीलिए जब इस बार विधानसभा चुनाव में बीजेपी पिछली बार की 23 की तुलना में 40 सीट पिछड़ गई तो उद्धव को 2014 के चुनाव और उसके बाद छोटे भाई का दर्जा स्वीकार करने के अपमान का बदला लेने का मौका मिल गया।
महाराष्ट्र में भगवा गठबंधन में 'बड़ा भाई' बनने की हसरत पाले उद्धव ठाकरे की नजर मुख्यमंत्री की कुर्सी पर थी। इसीलिए मुंबई की वरली सीट से आदित्य ठाकरे चुनाव मैदान में उतरे और विधायक चुने गए। उद्धव ठाकरे बार-बार हवाला दे रहे हैं कि उन्होंने अपने पिता और शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे को वचन दिया है कि महाराष्ट्र में एक न एक दिन शिवसैनिक को मुख्यमंत्री बनाकर ही रहेंगे।
चुनावी नतीजे के बाद से ही शिवसेना ने सीएम पद का राग अलापना शुरू कर दिया था। सीटों के मामले में भाजपा काफी आगे है, जबकि शिवसेना के पास इससे करीब आधी ही सीटें हैं। बावजूद इसके शिवसेना चाहती है कि 50-50 फॉर्मूला अपनाया जाए, जिसके तहत आधे समय यानी ढाई साल शिवसेना का मुख्यमंत्री होगा।
शिवसेना की मांग है कि पहले उसका मुख्यमंत्री बने, फिर बाकी के ढाई साल भाजपा का। शिवसेना दावा करती है कि भाजपा ने चुनाव से पहले इसका वादा किया था, जबकि भाजपा कहती है कि सीएम पद को लेकर ऐसा कोई वादा नहीं किया गया था। भाजपा ये मानती है कि उन्होंने जिम्मेदारियां और पद बांटने की बात की थी, लेकिन सीएम पद की कोई बात नहीं हुई।
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