महाराष्ट्र पंचायत चुनाव में क्यों और कैसे की गई लोकतंत्र की नीलामी, जानिए
Maharashtra panchayat elections:महाराष्ट्र में 15 जनवरी यानि शुक्रवार को ग्राम पंचायत के चुनाव होने हैं, लेकिन उससे पहले ही कई सीटें सबसे ज्यादा बोली लगाने वालों को बेची जाने की सूचनाएं मिल रही हैं। इस बात की तस्दीक इसलिए भी हो रही है कि चुनाव आयोग ने दो सीटों का चुनाव इन्हीं वजहों से रद्द कर दिया है। बुधवार को राज्य चुनाव आयोग ने नाशिक जिले के उमराने और नंदूरबार जिले की कोडामाली ग्राम पंचायतों का चुनाव रद्द कर दिया, जिसके बारे में कहा जा रहा है कि उन दोनों ही ग्राम पंचायतों की सीटें क्रमश: 2 करोड़ रुपये और 42 लाख रुपये में नीलाम हो चुके थे। इसको लेकर चुनाव आयोग को कई शिकायतें मिली थीं और नीलामी के वीडियो भी मिले थे, जिसके आधार पर आयोग ने यह कार्रवाई की है।
बोली लगाकर खरीदी गई पंचायत की सीटें
महाराष्ट्र में लोकतंत्र को नीलाम करने का खेल कैसे खेला जा रहा है, इसकी पड़ताल इंडियन एक्सप्रेस की एक रिपोर्ट से होती है। इसके मुताबिक पुणे जिले की खेड़ तालुका की तीन ग्राम पंचायतें-मोई, कुरुली और कुडे बुडरुक के सभी पंचायत सदस्य निर्विरोध चुने जा चुके हैं, इसकी सिर्फ औपचारिक घोषणा बाकी है। आमतौर पर एक ग्राम पंचायत में जनसंख्या के आधार पर 9 से लेकर 18 तक सदस्य होते हैं। इन तीनों गांवों के लोगों ने माना है कि वह 'आम सहमति' से उम्मीदवारों को तय कर रहे हैं। लेकिन, असलियत में इस कथित 'आम सहमति' के पीछे लोकतंत्र की मूल भावनाओं का बट्टा लगाया जा रहा है। मसलन, मोई गांव के उम्मीदवार किरण गावारे, जिनका निर्विरोध जीतना तय है, उन्होंने दावा किया है, 'लोगों के साथ बहुत ज्यादा चर्चा के बाद हम उम्मीदवारों को निर्विरोध चुनने का फैसला कर पाए हैं। यह तय हुआ है कि जो पैसे चुनाव पर खर्च होने थे, वह अब गांव में मंदिर के निर्माण पर खर्च किया जाएगा।' लेकिन, जब उनसे पूछा गया कि उनकी उम्मीदवारी के लिए पैसे किसने दिए तो उन्होंने बताने से मना कर दिया।
कई सीटों पर उम्मीदवारों की निर्विरोध जीत पक्की
मोई की कहानी दूसरे ग्राम पंचायतों की भी नजर आ रही है। यहां कुछ जिलों की ग्राम पंचायतों की लिस्ट दी जा रही है, जिससे जाहिर होता है कि कैसे लोकतंत्र की बोली लगाने का खुला खेल खेला जा रहा है। जैसे पुणे जिले में ग्राम पंचायत की 746 सीटों में से कम से कम 81 सीटों पर सिर्फ एक ही उम्मीदवार ने नामांकन डाला है। नंदूरबार की 87 ग्राम पंचायतों में से 22 में उम्मीदवारों का निर्विरोध जीतना तय है। बीड में 129 में से 18, कोल्हापुर में 433 में से 47, लातूर में 401 में से 25 सीटों पर चुनाव का परिणाम समझ लीजिए कि पहले से नीलाम किया जा चुका है। 4 जनवरी को प्रदेश चुनाव आयुक्त यूपीएस मदान ने मीडिया रिपोर्ट और नीलामी वाले कथित वीडियो का संज्ञान लेते हुए जिलाधिकारियों को ऐसे मामले की जांच करने को कहा था।
चुनाव आयोग ने नीलामी के आरोपों में दो जगहों पर रद्द किए चुनाव
बुधवार को चुनाव आयोग ने दो ग्राम पंचायतों का चुनाव रद्द करते हुए अपने आदेश में कहा कि, 'रिपोर्ट्स की पड़ताल करने के बाद और कई ऑडियो और वीडियो रिकॉर्डिंग देखने के बाद आयोग ने इन दोनों गांवों का चुनाव रद्द करने का फैसला किया है। जिला कलेक्टरों को निर्देश दिया गया है कि नीलामी में शामिल लोगों के खिलाफ जरूरी कानूनी कार्रवाई करें।' चुनाव आयोग को जो सबूत मिले उसके आधार पर कार्रवाई हुई। कई मामलों में बोली लगाने की प्रक्रिया का कोई वीडियो या ऑडियो उपलब्ध नहीं है। मसलन नंदूरबार के जिलाधिकारी ने अपनी जांच में पाया कि जो लोग नीलामी में हिस्सा ले रहे थे, उनमें से किसी ने भी पंचायत की सीटों के लिए नामंकन नहीं भरा है। नांदेड़ के कलेक्टर ने भी अपनी जांच में यही पाया है। इसके बारे में नंदूरबार के डीएम राजेंद्र भरौद ने कहा है, 'इससे पता चलता है कि जिन लोगों ने सबसे ज्यादा बोली लगाई उन्होंने नामांकन नहीं भरा था। लेकिन, हमने उनके खिलाफ आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन का मामला दर्ज किया है।'
जिसकी ज्यादा बोली, सीट उसी की पक्की
सूत्रों की मानें तो ऐसा इसलिए हुआ है, क्योंकि जो लोग सबसे ज्यादा बोली लगाते हैं, वह खुद चुनाव में खड़े नहीं होते। वे या तो अपने परिवार के किसी सदस्य का नामांकन करवाते हैं या किसी मुखौटे को चुनाव लड़वाते हैं, जिससे कि उनपर कोई आंच ना आने पाए। इसके बारे में नांदेड़ में शिवसेना के एक नेता प्रह्लाद इंगोले ने बताया है, जो खुद चुनाव लड़ना चाहते थे, लेकिन पैसे का जुगाड़ नहीं हो पाने के चलते पीछे हट गए। उन्होंने कहा, 'इसका तरीका आसान है। गांव के कुछ प्रभावी लोग उम्मीदवार तय करते हैं और उनसे कहते हैं कि गांव के किसी विशेष काम के लिए पैसे दो। चाहे यह किसी मंदिर बनाने के नाम पर हो सकता है या फिर किसी स्कूल के विस्तार के लिए, जो कि सरकारी योजनाओं में शामिल नहीं हो पाते। जो लोग सबसे ज्यादा पैसे देने के लिए तैयार होते हैं, उन्हें ही चुनाव लड़ने को कहा जाता है। बाकी लोग चुपचाप रहते हैं।'
बजटीय आवंटन का विस्तार
दरअसल, अब ग्राम पंचायतों का बजट पहले की तरह नहीं रहा। करोड़ों का खेल शामिल होता है। जिला परिषदों के भी ज्यादातर फंड गांव के विकास के लिए ही होते हैं। मसलन, पुणे के खेड़ तालुका के कुरुली जैसे गांव का सालाना 5 करोड़ रुपये का बजट स्थानीय विकास योजनाओं पर खर्च के लिए होता है। असल में 74वें संविधान संशोधन के बाद देश में ग्राम पंचायतों का फंड के मामले में पूरी व्यवस्था ही बदल चुकी है। इसलिए पंचायत का सदस्य बनना करोड़ों के बजट से साथ खेलने की गारंटी की तरह है। खासकर जो ग्राम पंचायत इंडस्ट्रीयल जोन के नजदीक हैं, उनके सदस्यों की तो और भी चांदी है। मसलन पुणे जिले के एक स्थानीय शिवसेना नेता ने कहा कि 'जिन लोगों का इन निकायों पर नियंत्रण हो जाता है उन्हें उद्योंगों के साथ मजदूरों और दूसरे ठेके हासिल करने में भी ताकत मिल जाती है।' (तस्वीरें-सांकेतिक)
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