दिग्विजय, सोनिया या कमलनाथ, सिंधिया केस में कौन है असली विलेन?
नोएडा। कांग्रेस में लगातार खोते अपने वजूद से बागी हुए एक एक सामंती वारिस ने अंतत: पार्टी को अलविदा कह दिया। इतना ही नहीं उसने ऐसी धुर-विरोधी पार्टी में भी जाने का फैसला किया जिसकी नीतियों को वो अपने 18 साल के राजनीतिक करियर में जमकर निशाने पर लेते रहे। कांग्रेस पार्टी में रहकर वो संसद में हमेशा राहुल गांधी के बगल में बैठे दिखे और मौके-बेमौके उनके कान में सलाह फूंकते भी देखे गए। ठीक वैसे ही जैसे कि उनके पिता माधवराव सिंधिया, राजीव गांधी के खेवनहार बने रहे। उत्तर प्रदेश में उन्हें प्रियंका गांधी का मददगार भी बनाया गया और महासचिव पद की जिम्मेदारी भी दी गई लेकिन जैसे कि सिंधिया समर्थक एमपी की एक मंत्री इमरती बाई ने कहा था कि जिस प्रदेश में पार्टी का खुद का वजूद नहीं उधर महाराज को कोई ओहदा देने का कोई मतलब नहीं। हालांकि मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव से पहले और बाद में सिंधिया ने बहुत इंतजार किया। पार्टी नेतृत्व को भी बहुत मौका दिया लेकिन पार्टी हाईकमान जैसे दिग्विजय और कमलनाथ के आगे कान में रुई डालकर बैठा रहा। आखिर में वही हुआ जिससे कांग्रेस पार्टी और उनके नेताओं को तीखी मिर्ची लगनी ही थी। तो क्या इस पूरे घटनाक्रम के लिए केवल ज्योतिरादित्य सिंधिया जिम्मेदार हैं या फिर उनसे कहीं ज्यादा कांग्रेस के कद्दावर नेता दिग्विजय सिंह, मुख्यमंत्री कमलनाथ और पार्टी का शीर्ष नेतृत्व।
कमलनाथ को प्रदेश अध्यक्ष बनाए जाने पर खून का घूंट पीकर रह गए सिंधिया
विधानसभा चुनाव से पहले जब वरिष्ठ कांग्रेस नेता कमलनाथ को प्रदेश कांग्रेस की कमान सौंपी गई तो सिंधिया समर्थक खुद को ठगा सा महसूस करते रह गए। क्योंकि युवा और नए चेहरे के तौर पर सिंधिया एक मजबूत दावेदार थे। ये भी मानकर चला जा रहा था कि प्रदेश में अगर पार्टी की जीत होती है तो प्रदेश अध्यक्ष ही सीएम पद का स्वभाविक दावेदार होगा औऱ ऐसा हुआ भी। कहा जाता है कि कमलननाथ को पहले प्रदेश अध्यक्ष और बाद में मुख्यमंत्री बनवाने में दिग्विजय सिंह ने अहम रोल अदा किया। उन्होंने सिंधिया के बरक्स पार्टी हाईकमान से कमलनाथ की जमकर पैरवी की और उनकी ही चली भी। दिग्विजय ने खुद कहा था कि उन्होंने कमलनाथ का एक बहुत पुराना अहसान चुकाया है। दिग्विजय सिंह को मध्यप्रदेश में दोनों बार मुख्यमंत्री पद हासिल करने में उस समय कमलनाथ ने अहम भूमिका निभाई थी जबकि वरिष्ठ कांग्रेस नेता माधवराव सिंधिया उस समय भी एक सशक्त दावेदार थे। इसके अलावा ग्वालियर के सिंधिया और दिग्विजय के राघौगढ़ राजघराने की अदावत किसी से छिपी नहीं है। रियासत के दौर में राघौगढ़ की रियासत, ग्वालियर के अधीन थी, जबकि कांग्रेस की राजनीति में दिग्विजय ने एक बड़ा मुकाम हासिल किया। इसलिए दोनों राजघराने लोकतंत्र की राजनीतिक विसात में एक-दूसरे को नीचा दिखाने से कभी नहीं चूके।
पहले सीएम नहीं बनने दिया, फिर ना प्रदेश अध्यक्ष
गुजरात में कांग्रेस पार्टी के अच्छे प्रदर्शन और एमपी के विधानसभा चुनाव से करीब छह महीने पहले कांग्रेस पार्टी के कार्यक्रम में एक मुलाकात के दौरान बातचीत में सिंधिया ने कहा था कि चुनाव सर पर हैं और प्रदेश में पार्टी के अंदर वो करंट नहीं दिखता जिसकी कि जरूरत है। उन्हें अंदरखाने पूरी आशा थी कि पार्टी एक नए, ऊर्जावान और युवा चेहरे पर दांव लगाएगी और उन्हें ही सीएम का चेहरा बनाकर चुनाव लड़ेगी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। बूढ़े, अनुभवी और गांधी परिवार के ज्यादा वफादार कमलनाथ को कमान सौंपी गई और वो ही सीएम भी बने। कमलनाथ एक बड़े बिजनेसमैन भी है और संकट के समय पार्टी के लिए मददगार भी रहे हैं। सरकार बनने पर भी सिंधिया गुट के विधायकों को उतने मंत्री पद नहीं दिए गए जितने कि वो दावा कर रहे थे, सिंधिया समर्थक विधायकों में पहले से ही इस बात को लेकर नाराजगी थी। सिंधिया को सीएम ना बनने का मलाल तो था ही लेकिन ये आशा था कि अब प्रदेश अध्यक्ष की कमान उन्हें सौंपी जाएगी लेकिन ना लोकसभा चुनाव से पहले और ना उसके बाद भी ऐसा हुआ। माना जाता है कि इसके पीछे भी दिग्विजय का हाथ था और उन्होंने ही सिंधिया को प्रदेश अध्यक्ष बनाने में वीटो किया और पार्टी में गुटबाजी ना हो इसलिए आलाकमान अनिर्णय की स्थिति में बना रहा।
राज्यसभा में भी अड़ंगा लगाया, तो बंगला छिन जाता
प्रदेश अध्यक्ष ना बनाए जाने से सिंधिया खार खाए तो बैठे ही थे और माना जाता है कि दिग्विजिय सिंह ने उनके राज्यसभा जाने में भी अड़ंगा लगा दिया। इसने सिंधिया के भीतर भड़की हुई आग ने घी डालने का काम किया। अब तक उनके लिए अजेय माने जाने वाले गुना में अपनी हार से वो पहले ही आहत थे और अगर अब राज्यसभा ना जा पाते तो उनका सरकारी बंगला छिनने का भी खतरा था। दिग्विजिय मध्यप्रदेश से राज्यसभा की एक सीट खुद के लिए और कमलनाथ एक सीट अपने विश्वस्त दीपक सक्सेना के लिए तय कर चुके थे। दीपक सक्सेना छिंदवाड़ा से कांग्रेस विधायक रहे हैं और उन्होंने कमलनाथ के सीएम बनने के बाद ये सीट खाली कर दी थी। केवल अपने लोगों की बंदरबांट ने सिंधिया को इस हद तक नाराज कर दिया कि उन्होंने भाजपा तक में जाने का फैसला कर लिया जिसको वो जीभर कर कोसा करते थे। गुना में हुई अप्रत्याशित हार से वो पहले से सदमे में थे, क्योंकि विधानसभा चुनाव से कुछ दिन पहले ही हुए उनके संसदीय क्षेत्र के एक विधानसभा उपचुनाव में तमाम कोशिशों के बावजूद भाजपा वहां जीतने में कामयाब नहीं हो सकी थी, जबकि शिवराज सिंह चौहान की पूरी कैबिनेट ने उधर डेरा डाला हुआ था। कहा जाता है कि गुना से सिंधिया को हराने में विरोधी गुटों ने भी अहम भूमिका निभाई।
कब-कब कांग्रेस से बागी हुआ सिंधिया परिवार
ये कोई पहला मौका नहीं जब सिंधिया घराने ने कांग्रेस पार्टी से बगावत की है। 1993 में जब मध्य प्रदेश में दिग्विजय सिंह की सरकार बनी थी तब माधवराव सिंधिया ने पार्टी में उपेक्षित होकर कांग्रेस को अलविदा कह दिया था और अपनी अलग पार्टी मध्य प्रदेश विकास कांग्रेस बनाई थी। हालांकि बाद में वे कांग्रेस में वापस लौट गए थे। 1967 में जब मध्य प्रदेश में डीपी मिश्रा की सरकार थी तब कांग्रेस में उपेक्षित होकर राजमाता विजयराजे सिंधिया कांग्रेस छोड़कर जनसंघ से जुड़ गई थीं और जनसंघ के टिकट पर गुना लोकसभा सीट से चुनाव भी जीती थीं। मौजूदा सियासी हलचल के बीच आज एक बार फिर से इतिहास ने खुद को दोहरा दिया है। ज्योतिरादित्य सिंधिया ने भी अपने पिता और दादी की तरह कांग्रेस से अलग होने का ऐलान कर दिया है।
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