मध्यप्रदेश विधानसभा चुनाव: कांग्रेस का मायावती से किनारा करने की ये थी असल वजह
नई दिल्ली। हिंदी पट्टी के तीन महत्वपूर्ण राज्यों मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में आगामी विधानसभा चुनावों को लेकर कांग्रेस और बीएसपी के बीच गठबंधन नहीं हो पाया। मायावती ने पहले छत्तीसगढ़ में अजीत जोगी के साथ जाकर कांग्रेस को झटका दिया और फिर मायावती ने कांग्रेस पर बीएसपी को खत्म करने की साजिश का आरोप लगाते हुए मध्यप्रदेश और राजस्थान में भी कांग्रेस के साथ किसी भी तरह के गठबंधन से इनकार किया। इस पूरे घटनाक्रम के बाद कांग्रेस की ओर से मध्यप्रदेश के मुखिया कमलनाथ ने बीएसपी पर कई आरोप लगाए। कमलनाथ ने कहा कि मायावती का अड़ियल रवैया गठबंधन ना होने का कारण रहा। उन्होंने कहा कि मायावती 50 सीटें मांग रही थीं जो संभव नहीं था। कहा जा रहा है कि कांग्रेस और बीएसपी के बीच गठबंधन ना होने का सीधा फायदा बीजेपी को होगा। लेकिन अगर ये गठबंधन बीएसपी की शर्तों पर हो भी जाता तो क्या इससे कांग्रेस का फायदा होता। या फिर कांग्रेस ने अपना ग्रउंड वर्क करने के बाद मायावती से किनारा किया।
कहा जा रहा है कि कांग्रेस, बसपा के साथ गठबंधन के लिए पूरी तरह तैयार थी। लेकिन बसपा ने 50 सीटों का प्रस्ताव रखा जिसमें से कई सीटें ऐसी थीं जहां उसका प्रभाव नहीं था और ना ही पिछले चुनावों में उन सीटों पर उसे कुछ खास वोट मिले थे। कहा जा रहा है कि कमलनाथ ने इन सीटों पर बसपा के टीकट पर कांग्रेस के लोगों को उतारने का भी प्रस्ताव रखा जिसे बीएसपी ने ठुकरा दिया।
25 सीटों ने फंसाया पेंच
कांग्रेस
और
बीएसपी
के
बीच
डील
फेल
होने
की
मुख्य
वजह
एक
तो
बसपा
का
ज्यादा
सीटों
पर
दावा
माना
जा
रहा
है
और
दूसरी
वजह
वो
25
विधानसभा
सीटें
हैं,
जो
शहरी
इलाके
की
हैं
और
बसपा
इन
पर
अपने
उम्मीदवार
उतारना
चाहती
थी।
ये
25
सीटें
इंदौर,
भोपाल,
ग्वालियर,
जबलपुर
रीवा,
राजगढ़
जैसे
शहरी
इलाकों
की
थीं।
इन
सीटों
पर
भाजपा
मजबूत
है
लेकिन
अगर
कांग्रेस
मेहनत
करेगी
तो
वो
यहां
पासा
पलट
सकती
है।
इन
सीटों
पर
बसपा
का
अपना
कोई
जनाधार
नहीं
है
और
अगर
कांग्रेस
ये
सीटें
बीएसपी
के
लिए
छोड़
देती
तो
वहां
बीजेपी
की
जीत
पक्की
होती।
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कांग्रेस का था ये फॉर्मूला
कांग्रेस के सूत्रों का कहना है कि बसपा ने बातचीत को उस दौर में ला दिया था जहां कांग्रेस के लिए उसके साथ समझौता करना बहुत मुश्किल था। कांग्रेस अगर बीएसपी की मांग मान लेती तो उसे अनुसूचित वर्ग के लिए आरक्षित कई सीटें छोड़नी पड़तीं और इसका पूरा फायदा बीजेपी को मिलता। कांग्रेस कुल 230 सीटों में से बीएसपी को 26 सीटें देने के लिए तैयार थी। कांग्रेस का प्लान था कि बसपा उत्तर प्रदेश से लगे सीमावर्ती इलाके विंध्य, चंबल और बुंदेलखंड की सीटों पर चुनाव लड़ेगी और कांग्रेस मध्यप्रदेश के बाकी हिस्से में लड़ेगी। लेकिन आखिरी वक्त में बीएसपी ने अपने प्रभाव क्षेत्र से बाहर की 25 सीटों पर दावेदारी ठोक दी।
कांग्रेस को होता दो तरफा नुकसान
बीएसपी
अपने
जनाधार
से
बाहर
जिन
इलाकों
में
अपने
उम्मीदवार
उतारना
चाहती
थी
वहां
बसपा
को
टिकट
देने
का
मतलब
कांग्रेस
को
दो
तरफा
नुकसान
था।
इस
फैसले
से
इन
इलाकों
में
उसके
अपने
आरक्षित
वर्ग
के
नेता
नाराज
होते
क्योंकि
यहां
कांग्रेस
के
पास
खुद
के
मजबूत
उम्मीदवार
हैं,
जिनमें
से
कई
पूर्व
मंत्री
भी
हैं।
दूसरा
बसपा
की
इन
शहरी
इलाकों
में
एंट्री
कई
सामान्य
सीटों
पर
भी
असर
डालती
क्योंकि
एससी/एसटी
एक्ट
को
लेकर
सवर्ण
आंदोलन
का
इन
इलाकों
में
असर
है।
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विंध्य-चंबल में बीएसपी का प्रभाव
कांग्रेस विंध्य, ग्वालियर-चंबल और बुंदेलखंड में उन सीटों पर बीएसपी से गठबंधन चाहती थी जहां उसका प्रभाव है। वर्तमान में बीएसपी के पास मुरैना जिले की अंबा और दिमनी, रीवा की महगंवा और सतना जिले की रैगांव सीट है। 2008 के चुनाव में ग्वालियर चंबल की 34 में से कांग्रेस को 12 सीटें मिली थी। बीएसपी की शर्तें न मानने के पीछे कांग्रेस का तर्क ये भी है कि बीएसपी का जनाधार लगातार घटता जा रहा है जहां 2008 के विधानसभा चुनाव में उसे 8.97 प्रतिशत वोट मिले थे वहीं 2013 में ये घटकर 6.29 फीसदी रह गए और सीटें भी सात से घटकर चार रह गईं। ऐसे में बीएसपी का 50 सीटों पर दावा किसी भी तरह से उचित नहीं कहा जा सकता था।
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