लिंचिंगः किन कारणों से प्रभावित हो जाती है पुलिस की जांच
झारखंड में पुलिस ने तबरेज़ अंसारी की मौत के मामले में हत्या के आरोप हटा लिए हैं. पुलिस ने तर्क दिया है कि उनकी मौत हार्ट अटैक से हुई थी. तबरेज़ अंसारी इसी साल जून में हिंसक भीड़ के हमले का शिकार हुए थे. पुलिस ने उन्हें चोर बताकर जेल भेज दिया था जहां उनकी मौत हो गई थी. साल 2017 में राजस्थान के अलवर में भीड़ की हिंसा में मारे गए पहलू ख़ान की हत्या
झारखंड में पुलिस ने तबरेज़ अंसारी की मौत के मामले में हत्या के आरोप हटा लिए हैं. पुलिस ने तर्क दिया है कि उनकी मौत हार्ट अटैक से हुई थी.
तबरेज़ अंसारी इसी साल जून में हिंसक भीड़ के हमले का शिकार हुए थे. पुलिस ने उन्हें चोर बताकर जेल भेज दिया था जहां उनकी मौत हो गई थी.
साल 2017 में राजस्थान के अलवर में भीड़ की हिंसा में मारे गए पहलू ख़ान की हत्या के अभियुक्तों को हाल ही में ज़मानत मिली है.
भीड़ की हिंसा के इन मामलों में अभियुक्तों को मिली राहत के बाद सवाल उठा है कि क्या भारत में भीड़ की हिंसा में मारे गए लोगों को इंसाफ़ मिल पाएगा?
सवाल यह भी उठा है कि ऐसे मामलों में अभियुक्त क़ानूनी शिकंजे से बाहर कैसे निकल आते हैं?
ह्यूमन राइट्स वॉच से जुड़ी मीनाक्षी गांगुली इसकी मुख्य वजह पुलिस की कमज़ोर जांच को मानती हैं.
मीनाक्षी गांगुली कहती हैं, "लिंचिंग के मामलों के डाक्यूमेंटेशन के दौरान हमने यह देखा था कि जब पुलिस को ये संदेश मिलता है कि अभियुक्तों को राजनीतिक समर्थन हासिल है तो वो पीछे हट जाती है. पुलिस का अपना भी पक्षपाती नज़रिया रहता है."
वो कहती हैं, "पुलिस का मुख्य काम क़ानून का शासन स्थापित करना है. जब तक पुलिस अपनी ड्यूटी को सही से नहीं करेगी हिंसा के पीड़ितों को न्याय नहीं मिल पाएगा."
गांगुली कहती हैं कि पुलिस कई बार मुक़दमे को कमज़ोर करने के लिए हिंसा के पीड़ितों के ख़िलाफ़ भी मामला दर्ज कर लेती है.
वो कहती हैं, "पहलू ख़ान के मामले में पुलिस ने उन्हें गायों की तस्करी का अभियुक्त बना दिया था. पहलू ने हमलावरों का नाम भी लिया था. इस मामले में जज ने अपनी टिप्पणी में स्वयं कहा है कि बहुत सारे सुबूत उनके सामने पेश ही नहीं किए गए."
वहीं मानवाधिकार मामलों को उठाते रहे वरिष्ठ वकील कोलिन गोंज़ाल्विस कहते हैं, "हमने देखा है कि पुलिस भी उसी सांप्रदायिक भावना से काम करती है जिससे प्रेरित होकर अभियुक्त हमला करते हैं. पुलिस का सांप्रदायिक रवैया भी इंसाफ़ के रास्ते में रोड़ा बन जाता है."
गांगुली कहती हैं, "सबसे चिंताजनक पहलू यह है कि मामले अदालत तक पहुंचने से पहले ही ये तय कर लिया जा रहा है कि कौन सी हिंसा सही है. कई तरह के तर्क देकर हिंसा को जायज़ ठहराया जा रहा है. जब अपराध को राजनीति का समर्थन मिल जाता है तो उस स्थिति में अपराध और बढ़ता है. आज की राजनीति जब इस तरह की हिंसा को स्वीकार कर रही है तो कल अगर इसकी प्रतिक्रिया में दूसरी हिंसा होती है तो उसे भी स्वीकार कर लिया जाएगा. लोग क़ानून को हाथ में लेने लगेंगे."
गांगुली कहती हैं, "ये सरकार का काम है कि वो हिंसा कर रहे लोगों को ये संदेश दे कि उन्हें किसी भी तरह का राजनीतिक समर्थन हासिल नहीं है और उनकी गतिविधियों को बर्दाश्त नहीं किया जाएगा. अगर सरकार ऐसा करेगी तो पुलिस भी अपनी जांच सही ढंग से कर सकेगी."
कई राज्यों में पुलिस प्रमुख रहे आमोद कंठ मानते हैं कि कई बार पुलिस स्थानीय परिस्थितियों से प्रभावित हो जाती है जिसका असर जांच पर पड़ता है.
आमोद कंठ कहते हैं, "क़ानून की नज़र में कोई पक्षपात नहीं होना चाहिए. क़ानून की नज़र में सब बराबर हैं. पुलिस को परिस्थिति से प्रभावित होकर काम नहीं करना चाहिए."
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कंठ कहते हैं, "किसी अपराध को लेकर बनी जनता की राय का पुलिस की जांच पर भी दबाव होता है. कई बार पुलिस इस दबाव को दूर नहीं कर पाती जिसकी वजह से जांच प्रभावित हो जाती है. ख़ासकर लिंचिंग के मामलों में, अगर गुस्साई भीड़ ने किसी ख़ास मानसिकता से हत्या की है, तो है तो ये हत्या ही लेकिन इसके पीछे जो पूरा एक पब्लिक ओपीनियन है या रोष है या ग़लत मानसिकता है, ये तमाम चीज़ें जांच को स्वतंत्र नहीं रहने देती हैं."
कंठ कहते हैं कि ऐसे मामलों की जांच कर रहे अधिकारियों को अतिरिक्त समझदारी और सतर्कता दिखानी चाहिए और इन जांचकर्ताओं को पुलिस के वरिष्ठ अधिकारियों का सहयोग मिलना चाहिए.
वो कहते हैं, "जांच प्रभावित होने का नतीजा ये होता है कि सही से सुबूत इकट्ठा नहीं हो पाते, गवाह प्रभावित हो जाते हैं और अंत में अभियुक्त झूठ जाते हैं."
उनका मानना है कि पुलिस को भी अपने आप को समय के हिसाब से अपडेट करना चाहिए. वो कहते हैं, "पुलिस क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम का सबसे अहम अंग है. पुलिस जब कोई सीमित या संकरा नज़रिया अपना लेती है तो इंसाफ़ मिलना मुश्किल हो जाता है. कई बार पुलिस अधिकारी पीड़ितों को न्याय दिलाने में अपनी भूमिका के महत्व का अहसास नहीं कर पाते हैं. अगर आज के माहौल में भी पुलिस अपनी भूमिका को नहीं समझ पा रही है, अपने तौर तरीक़े नहीं बदल पा रही है तो ये ग़लत है. "
कंठ का मानना है कि जांच को प्रभावित होने से वरिष्ठ अधिकारी ही बचा सकते हैं. वो कहते हैं, "इस तरह के मामलों की जांच सबसे ज़्यादा वरिष्ठ पुलिस अधिकारियों के रवैये पर निर्भर करती है. भारतीय पुलिस सेवा की ये ज़िम्मेदारी है कि वो किसी भी तरह के दबाव से मुक्त होकर क़ानून का राज क़ायम करे. पुलिस जब इस दबाव से बाहर होगी तो ऐसे मामलों के अभियुक्तों को भी सज़ा मिलने लगेगी."
लेकिन अगर पुलिस अधिकारी अपना काम सही से न करें तो क्या उन्हें दंडित किया जा सकता है? कोलिन गोंज़ाल्विस बताते हैं कि इसके प्रावधान क़ानून में हैं तो लेकिन वो बहुत मज़बूत नहीं हैं.
गोंज़ाल्विस कहते हैं, "यदि कोई पुलिस कोई अधिकारी ख़ुद सुबूत पेश नहीं करता है, गवाहों को प्रभावित करता है या एफ़आईआर दर्ज करने में कोताही करता है तो उसे सज़ा देने के प्रावधान हैं तो लेकिन ये कमज़ोर हैं. पुलिस के ऊपर नियंत्रण के लिए क़ानून होना चाहिए."
एसआईटी जांच दिला सकती है न्याय
गोंज़ाल्विस का ये भी मानना है कि लिंचिंग के गंभीर मामलों की जांच से स्थानीय पुलिस को पूरी तरह हटाकर ही पीड़ितों को न्याय दिया जा सकता है. वो कहते हैं, "स्थानीय पुलिस के हाथ से लिंचिंग के मामलों की जांच को हटा देना चाहिए. इन मामलों की जांच राज्य के बाहर के अधिकारियों से करवाई जानी चाहिए. अगर बाहर के अधिकारी जांच करेंगे तो जांच स्वतंत्र रहेगी."
लिंचिंग के मामलों के लिए अलग से क़ानून बनाने की मांग भी उठती रही है. इस पर गोंज़ाल्विस कहते हैं, "क़ानून कमज़ोर नहीं है, समस्या क़ानून को लागू करने में हैं. लेकिन जब क़ानून को लागू करने वाले ही सांप्रदायिकता से प्रभावित होंगे तो ऐसी स्थिति में क़ानून क्या करेगा."
भीड़ की हिंसा के ख़िलाफ़ जागरुकता अभियान चला रहे समूह यूनाइटेड अगेंस्ट हेट से जुड़े नदीम ख़ान भी मानते हैं कि लिचिंग के मामलों में अभियुक्तों के छूट जाने की वजह मौजूदा क़ानून नहीं है बल्कि पुलिस की कमज़ोर प्राथमिक जांच है.
नदीम कहते हैं, "हमारे मौजूदा क़ानून ऐसी हिंसा के मामलों में सज़ा दिलाने के लिए पर्याप्त हैं बशर्ते पुलिस सही से जांच करे. जब तक सुप्रीम कोर्ट की निगरानी में विशेष जांच दल ऐसे मामलों की जांच नहीं करेंगे तब तक पुलिस ऐसी ही कमज़ोर जांच करती रहेगी. स्थानीय पुलिस स्थानीय नेताओं और दलों के प्रभाव में होती है, उन पर अन्य स्थानीय परिस्थितियों का भी प्रभाव होता है, ऐसे में पुलिस से ऐसे गंभीर मामलों की निष्पक्ष जांच की उम्मीद नहीं की जा सकती है."
वो कहते हैं, "जब जांच अधिकारी ही जांच को बेकार कर देंगे, जांच का रुख़ बदल देंगे, सुबूत इकट्ठा नहीं करेंगे तो अदालत कैसे इंसाफ़ कर पाएगी?"
वो कहते हैं, "तबरेज़ की मौत का मामला हो या पहलू ख़ान की मौत का मामला हो, शुरुआत में ही जांच का रुख़ बदल दिया गया. तबरेज़ के मामले में ये सवाल क्यों नहीं पूछा जाना चाहिए कि क्या वो पहले से दिल का मरीज़ था? ये सीधे-सीधे पिटाई से मौत का मामला था. लेकिन अब पुलिस ने हत्या के आरोप ही हटा लिए हैं."
नदीम सवाल करते हैं, "तबरेज़ की मौत की जांच अब आईपीसी धारा 304 के तहत होगी. इसका मतलब होता है ग़ैर इरादतन हत्या. लेकिन तबरेज़ को तो सारी रात बांधकर पीटा गया था. तो क्या उसे बिना इरादे के बांध दिया गया और इतनी बुरी तरह से पीटा गया?"
पोस्टमार्टम रिपोर्ट में तबरेज़ और पहलू ख़ान दोनों की मौत हार्ट अटैक से होना बताया गया है. तो सवाल उठता है कि क्या ये पहले से दिल के मरीज़ थे या पिटाई की वजह से उनकी मौत हुई?
नदीम आरोप लगाते हैं, "इन मामलों को देखा जाए तो पता चलता है कि पुलिस शुरू से ही गवाहों और सुबूतों को प्रभावित करती रही ताकि बाद में अभियुक्त छूट जाएं. अदालत में जज बिना सुबूतों के न्याय नहीं कर सकते हैं."
वो कहते हैं, "जब ऐसे मामलों के अभियुक्त ज़मानत पर रिहा होते हैं तो समाज में सीधा संदेश जाता है कि आप कितने भी अपराध करें, हिंसा करें, लोगों की जान ही क्यों न ले लें, आपको सिस्टम की ओर से सुरक्षा हासिल है, अदालत में आपका कुछ नहीं होगा."
लिंचिंग बन गई है करियर लांचिंग पैड
नदीम कहते हैं, "लिंचिंग अब राजनीति में करियर का लॉंचिंग पैड हो गई है. क्योंकि हिंसा के अभियुक्तों को सर पर बिठाया जा रहा है. ताज़ा उदाहरण बुलंदशहर का है जहां हिंसा के अभियुक्त जब ज़मानत पर रिहा हुए तो उन्हें फूल मालाएं पहनाईं गईं और जय जयकार की गई. इससे तो समाज में यही संदेश जा रहा है कि हिंसा करना सही है."
वहीं बुलंदशहर हिंसा में मारे गए इंस्पेक्टर सुबोध कुमार के बेटे श्रेय प्रताप सिंह कहते हैं कि मैं समझ नहीं पाया कि अभियुक्तों के छूटने पर लोग किस बात का जश्न मना रहे थे.
वो कहते हैं, "उन्होंने दंगा भड़काया, एक पुलिसकर्मी को मार दिया, संपत्ति को नुक़सान पहुंचाया लेकिन लोग ये समझ रहे हैं कि उन्होंने कोई अच्छा काम किया है तो ये बहुत दुखद है."
श्रेय का कहना है कि वो अभियुक्तों को वापस जेल भेजे जाने तक क़ानूनी कार्रवाई करते रहेंगे. वो कहते हैं, "मैं अपनी क़ानूनी कार्रवाई को कभी नहीं छोड़ूंगा, मैं इंसाफ़ हासिल करने के लिए अपनी पूरी ज़िंदगी लगा दूंगा. ये अपराध करने वाले लोग जब तक जेल नहीं जाते हैं, मैं क़ानूनी लड़ाई लड़ता रहूंगा. इस देश में क़ानून से बढ़कर कोई नहीं है.''
वो कहते हैं, "मुझे भारत के क़ानून और न्याय व्यवस्था में पूरा भरोसा है. मेरे पिता क़ानून को लागू करने का ही काम करते थे. उन्हें क़ानून में भरोसा था वही भरोसा मुझे भी है. और न्याय मिलने का पूरा भरोसा है."
इससे पहले झारखंड में अलीमुद्दीन अंसारी की हत्या के अभियुक्त जब ज़मानत पर रिहा हुए तो उन्हें तत्कालीन केंद्रीय मंत्री जयंत सिन्हा ने मालाएं पहनाईं.
अलीमुद्दीन की हत्या के मामले में अदालत ने कुल 11 अभियुक्तों को दोषी माना था लेकिन इनमें से दस को ज़मानत मिल गई है. अलीमुद्दीन के परिवार की ओर से वकील शादाब अंसारी का कहना है कि इस मामले की जांच में पुलिस ने कोताही नहीं की है और उन्हें ऊपरी अदालत से न्याय मिलने का पूरा भरोसा है.
अंसारी कहते हैं, "अलीमुद्दीन अंसारी की हत्या के मामले में 11 अभियुक्त दोषी क़रार दिए गए थे जिनमें से दस की सज़ा को निलंबित करके हाई कोर्ट ने उन्हें ज़मानत दे दी है."
अंसारी कहते हैं, "अलीमुद्दीन अंसारी का केस कमज़ोर नहीं है. इस मुक़दमे में अभी बहस होनी बाक़ी है और हमारे पास मज़बूत सुबूत हैं. वीडियो है, कॉल रिकॉर्डिंग है. हमें अदालत से इंसाफ़ मिलने की पूरी उम्मीद है."
शादाब अंसारी का मानना है कि इस मामले की जाँच में पुलिस ने लापरवाही नहीं की है. वो कहते हैं, "अलीमुद्दीन मामले में पुलिस ने लापरवाही नहीं की थी. एसपी ने इस मामले में अभियुक्तों को सज़ा दिलाने में काफ़ी दिलचस्पी दिखाई थी. पब्लिक प्रोसीक्यूटर ने भी इसमें गंभीरता दिखाई क्योंकि इस मामले पर देश की नज़र थी."
वो कहते हैं, "सरेआम क़त्ल हुआ है. जांच भी सही हुई है. हम इंसाफ़ हासिल करने की पूरी कोशिश करेंगे."
भारत में लिंचिंग के मामले
भारत का नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो भीड़ की हिंसा या लिंचिंग मामलों का अलग से रिकॉर्ड नहीं रखता है.
फ़ैक्ट चैक वेबसाइट फैक्ट चेकर डॉट इन ने समाचार माध्यमों और अपने शोध के आधार पर जो डाटाबेस तैयार किया है उसके मुताबिक़ बीते आठ साल में अब तक भीड़ की हिंसा के 133 मामले हुए हैं जिनमें 50 लोगों की मौत हुई है, 180 गंभीर रूप से घायल हुए हैं और 110 को मामूली चोटें आई हैं.
इस डाटाबेस के मुताबिक़ साल 2012 में भीड़ की हिंसा का सिर्फ़ एक मामला सामने आया था जबकि 2013 में दो हमले हुए थे. साल 2014 में भीड़ की हिंसा के 3 मामले सामने आए थे.
भीड़ की हिंसा के मामलों में बढोत्तरी साल 2015 से आई है, जब केंद्र में भारतीय जनता पार्टी की सरकार थी.
साल 2015 में कुल 13, 2016 में 30, 2017 में 43 और 2018 में 31 मामले सामने आए.
इन हमलों का शिकार होने वाले अधिकतर लोग (57 फ़ीसदी) अल्पसंख्यक मुसलमान समुदाय से हैं.