लोकसभा चुनाव 2019: वायनाड से राहुल के चुनाव लड़ने पर लाल क्यों है माकपा?
नई दिल्ली। कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी के अमेठी के अलावा केरल के वायनाड से भी चुनाव लड़ने को लेकर जो सबसे बड़ी आलोचना की जा रही थी वह यह कि उन्हें अमेठी में हार का डर लग रहा है। इसलिए उन्होंने अपने लिए एक सुरक्षित सीट की तलाश की ताकि किसी तरह संसद पहुंच सकें। लेकिन इसके विपरीत एक और विचार सामने आया है कि राहुल की प्राथमिकता में भाजपा को नहीं, बल्कि वामदलों को हराना है, इसलिए उन्होंने केरल को चुना है। वामपंथी दलों में प्रमुख माकपा ने इस विचार को सबसे बड़ा मुद्दा बनाते हुए दावा किया कि वह राहुल को हराने में कोई कसर नहीं छोड़ेगी। इसका एक संदेश इस रूप में भी जा रहा है कि माकपा के लिए क्या भाजपा से बड़ी दुश्मन कांग्रेस ही है?
माकपा के गुस्से का अंदाजा केवल इस बात से लगाया जा सकता है कि उसकी ओर से राहुल गांधी को भाजपा की ओर से दोहराया जाने वाला संबोधन 'पप्पू' तक कह दिया गया। माकपा के मुखपत्र मलयाली दैनिक देशाभिमानी के संपादकीय में इस संबोधन का उपयोग किया गया। समाचार पत्र के स्थानीय संपादक और राज्य सरकार में मंत्री थामस इसाक ने हालांकि बाद में सफाई दी कि पार्टी किसी के भी खिलाफ आपत्तिजनक बातें करने में विश्वास नहीं रखती और ऐसा गलती से हो गया है। इससे पहले माकपा के पूर्व महासचिव प्रकाश करात ने राहुल और कांग्रेस की तीखी आलोचना करते हुए कहा था कि कांग्रेस केरल में वामदलों से लड़ना चाहती है जिससे भाजपा को फायदा होगा। इसका हम विरोध करेंगे और राहुल को हराएंगे। राज्य के मुख्यमंत्री पिनाराई विजयन ने भी तीखी आलोचना की थी। हालांकि माकपा महासचिव सीताराम येचुरी के दृष्टिकोण में थोड़ा लचीलापन नजर आया जिन्होंने कहा कि कोई भी पार्टी यह तय कर सकती है कि कौन सा उम्मीदवार कहां से लड़ेगा, लेकिन इसके पीछे के उसके संदेश को समझना होगा। यहां यह भी ध्यान में रखना होगा कि करात का रुख लगातार कांग्रेस विरोधी रहा है जबकि येचुरी का उदारवादी। यह करात ही थे जिन्होंने परमाणु समझौता मुद्दे पर कांग्रेस की सरकार से समर्थन वापस लिया था।
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माकपा के लिए क्या भाजपा से बड़ी दुश्मन कांग्रेस ही है?
इस नई लड़ाई के तह में जाने से पहले केरल पर कुछ मोटी-मोटी पर नजर डाल लेना जरूरी है। फिलहाल केरल ही ऐसा राज्य है जहां वामदलों की सरकार है। केरल में अभी तक तक एलडीएफ और यूडीएफ के बीच ही लगातार मुख्य मुकाबला रहा है। यहां कांग्रेस और वामदलों के बीच ही सत्ता पर कब्जा होता रहा है। लेकिन बीते करीब पांच वर्षों के दौरान यहां भाजपा भी अपनी जगह बनाने में लगी हुई है। वामदलों के कब्जे वाले त्रिपुरा में जीत के बाद अब भाजपा की निगाह केरल पर लगी हुई है। इसके लिए भाजपा ने सबरीमला को बहाना बनाया हुआ है। हालांकि अभी तक केरल में भाजपा अपना खाता भी नहीं खोल सकी थी, लेकिन बीते 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा प्रत्याशी ने कांग्रेस के दिग्गज माने जाने वाले नेता शशि थरूर को कड़ी टक्कर देकर पार्टी यह बताने में सफल रही है कि भविष्य में वह यहां खुद की उपस्थिति दर्ज करा सकती है। भाजपा को इस राज्य में मिली एक सफलता यह है कि उसने राज्य के स्थानीय चुनावों में तिरुवनंतपुरम नगरपालिका की 33 सीटें जीत ली थीं। इसे भी एक संकेत के रूप में लिया गया कि आने वाले समय में भाजपा इस राज्य में भी अपनी जगह बना सकती है।
केरल ही ऐसा राज्य है जहां वामदलों की सरकार है
बीते चार दशकों से केरल में एलडीएफ और यूडीएफ का ही अदल-बदल कर शासन रहा है। राज्य में हमेशा से नगण्य जैसी रही भाजपा को 2011 के विधानसभा चुनाव में लगभग नौ फीसदी और 2016 के चुनाव में15.20 फीसदी मत मिले थे। बीते करीब एक साल के दौरान भाजपा ने सबरीमला को मुद्दा बनाकर राज्य में अपनी उपस्थिति मजबूत बनाने और हिंदू मतों को अपने पक्ष में एकजुट करने की हरसंभव कोशिश की है। एक अनुमान के मुताबिक केरल में कुल आबादी के करीब आधा हिंदू हैं। केरल में लोकसभा की 20 सीटें हैं। 2014 के लोकसभा चुनाव में वामदलों को आठ और यूपीए को 12 सीटें मिली थीं। भाजपा को कोई सीट नहीं मिली थी लेकिन उसे करीब 10 फीसदी मत मिले थे। 2019 के चुनाव में भाजपा 14 सीटों पर लड़ रही है। इसमें से वायनाड सीट पर भाजपा के सहयोगी पार्टी भारत धर्म जन सेना के तुषार वेल्लापली बतौर राजग प्रत्याशी चुनाव लड़ेंगे। परिसीमन के बाद 2008 में अस्तित्व में आई मुस्लिम बहुल वायनाड सीट पर 2009 और 2014 में कांग्रेस प्रत्याशी को जीत मिली थी। दोनों ही चुनावों में भाकपा को करारी हार का सामना करना पड़ा था। इस तरह यह माना जा सकता है कि भले ही दोनों चुनावों में दूसरे स्थान पर रही भाकपा के बारे में माकपा दावा करे कि वह वायनाड में जीत सकती है, लेकिन इसे पुख्ता तौर पर मान पाना आसान नहीं कहा जा सकता। दूसरा यह कि भाजपा भी कोई हारने के लिए तो नहीं लड़ रही होगी। ऐसे में माकपा की ओर से यह भी कहा जा सकता था कि वह राहुल और तुषार दोनों को हराएंगे। मतलब साफ है कि शायद माकपा के लिए भाजपा की तुलना में कांग्रेस तब भी ज्यादा बड़ी दुश्मन लग रही है जबकि वह बीते चुनाव में 44 सीटों पर सिमट चुकी है। किसी को यह भूलना नहीं चाहिए कि 2014 के लोकसभा चुनाव में केरल के दिग्गज नेता माने जाने वाले शशि थरूर के खिलाफ भाजपा प्रत्याशी राजगोपाल केवल 13 हजार मतों से ही हारे थे।
क्या वामदल फिर एक बार गलती करने जा रहे हैं?
इस सबका मतलब यह हुआ कि केरल में भाजपा की कोशिशों को कम करके आंकना किसी के लिए भी समझदारी पूर्ण नहीं माना जा सकता। कम से कम माकपा और अन्य वामदलों के लिए तो इसे ज्यादा चुनौतीपूर्ण मानना चाहिए था जो अपने मजबूत गढ़ों पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा में बेहद कमजोर स्थिति में पहुंच चुकी है। इसमें त्रिपुरा में तो भाजपा ने ही उनसे सत्ता छीन ली और पश्चिम बंगाल में भी भाजपा कम्युनिस्टों के वोटरों को अपने पाले में लाने की हरसंभव कोशिश में लगी है। केरल से भी भाजपा वामदलों को हराने में पूरी ताकत झोके हुए है। ऐसे में यह सवाल मजबूती से उठाया जा रहा है कि क्या वामदल फिर एक बार गलती करने जा रहे हैं। यहां भी याद रखा जाना चाहिए कि पश्चिम बंगाल में संभावित कांग्रेस-वामदल गठबंधन भी नहीं हो सका है। राजनीतिक हलकों में यह बात आम तौर पर कही जाती रही है कि भारत में वामदलों का इतिहास रहा है गलतियां करने का और फिर आत्मालोचना करने का। लेकिन अब शायद हालात यहां तक पहुंच चुके हैं कि उसे अपनी गलतियों का भी अहसास नहीं हो पाता और उनके लिए आत्मालोचना भी संभवतः गुजरे जमाने की बात हो गई है। संभवतः इसीलिए सियासी हलकों में ऐसी बातें हो रही हैं कि जब समूचा विपक्ष और वामदल भी इस चुनाव में भाजपा को शिकस्त देने की बातें कर रहे हैं, तब केरल में कांग्रेस को निशाने पर लेने की वामदलों की सोच को क्या कहा जाना चाहिए।
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