Lok Sabha Elections 2019: क्या ज्यादा मारक होता जा रहा है नोटा का सोटा
नई दिल्ली। लोकसभा चुनाव में पिछले कुछ चुनावों की तरह लोकतंत्र समर्थकों की ओर से सभी को मतदान करने की अपील की जा रही है। कहा जाए कि एक तरह से ऐसी अपील की बाढ़ आ गई है। मतदान को कर्तव्य बताते हुए दलीलें भी दी जा रही हैं कि क्यों हर मतदाता को अपने मताधिकार का प्रयोग करना ही चाहिए। चुनाव आयोग की ओर से की ओर से की जाने वाली अपील को छोड़ दिया जाए, इस सबके पीछे राजनीतिक दलों का निहित स्वार्थ लगता है। क्योंकि किसी को भी लग सकता है कि अगर उसके मतदाता वोट नहीं देंगे, तो उन्हें हार का सामना करना पड़ सकता है। लेकिन क्या इसके अलावा भी कुछ कारण हो सकते हैं जिनकी वजह से मतदान में जरूर हिस्सा लेने की अपील की जा रही है। यह सवाल विभिन्न कारणों से ज्यादा प्रासंगिक हो चुका है क्योंकि मतदान को लेकर अलग-अलग जानकारियां भी सामने आ रही हैं। राजनीतिक हलकों में बीते काफी समय से इस बात पर तो बहस रही ही है कि मतदान को अनिवार्य घोषित कर दिया जाना चाहिए। कई लोग तो इससे भी आगे बढ़कर कहते सुने जाते हैं कि जो मतदान न करे उसके खिलाफ कार्रवाई भी की जानी चाहिए। हालांकि अभी तक इसे स्वीकार नहीं किया गया है, लेकिन ऐसी खबरें भी सामने आने लगी हैं कि कुछ निजी संस्थाओं की ओर से अपने कर्मचारियों के लिए इस आशय़ का निर्देश जारी किया गया है कि हर कोई मतदान अवश्य करे और जो ऐसा नहीं करेगा उसके खिलाफ कार्रवाई होगी।
नोटा को लेकर नए सिरे से चर्चाएं तेज
इस सबके बीच ही नोटा (नन ऑफ द एबव मतलब इनमें से कोई नहीं) को लेकर नए सिरे से चर्चाएं तेज हो गई हैं। हालांकि पहले भी नोटा को लेकर बातें होती रही हैं, लेकिन वे इतनी गंभीर नहीं मानी जाती थीं। यह अलग बात है कि लंबे विचार-विमर्श और बहस-मुबाहसे के बाद नोटा की व्यवस्था बनाई गई थी। लेकिन तब यह लग रहा था कि यह बहुत ज्यादा प्रभावी नहीं होगा क्योंकि भारत का मतदाता बहुत प्रबुद्ध होता है और वह ऐसा कुछ नहीं करेगा जिससे कोई गंभीर समस्या पैदा हो सकेगी। लेकिन शायद अब ऐसा होने लगा है जिससे लगने लगा है कि अगर नोटा को इसी तरह ज्यादा स्वीकार्यता मिलने लगी, तो भविष्य में यह बड़ी समस्या के रूप में भी सामने आ सकता है। मतलब एक समस्या के समाधान की कोशिश के तहत जिस नोटा का प्रावधान किया गया था, अब उसको लेकर ही समस्याएं आने लगी हैं। वर्तमान चुनावों के दौरान भी किसी को ऐसे लोग मिल सकते हैं जो यह कहते पाएं कि इनमें से कोई भी ऐसा प्रत्याशी नहीं है जिसे मत दिया जा सके। इसलिए वे नोटा का उपयोग करेंगे।
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NOTA यानी नन ऑफ द एबव मतलब इनमें से कोई नहीं
दरअसल, नोटा के पीछे असली कारण यही था कि कुछ लोगों की यह शिकायत रहती थी कि उनके क्षेत्र के प्रत्याशियों में से किसी को भी वह मत नहीं देना चाहते। लेकिन मतपत्र में ऐसा कोई उल्लेख नहीं होता जहां मतदाता यह बता सके कि वह इनमें से किसी को वोट नहीं देना चाहता। इसको लेकर आवाज उठाई जाती रहती थी कि मतदाता को यह अधिकार होना चाहिए कि वह बता सके कि इनमें से कोई योग्य उम्मीदवार नहीं है, इसको बताने की जगह भी मतपत्र में होनी चाहिए। इसको ध्यान में रखकर ही नागरिक अधिकार संगठन पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) ने 2009 में जनहित याचिका दायर सर्वोच्च न्यायालय से इस बारे में फैसला देने की अपील की थी। इस पर सर्वोच्च अदालत ने 2013 में फैसला सुनाया था जिसमें नोटा का प्रावधान करने को कहा गया था। हालांकि इससे पहले चुनाव आयोग में भी इस तरह की राय थी कि नोटा का विकल्प होना चाहिए। तब दलील दी जाती थी कि इससे निष्पक्ष चुनावी प्रक्रिया को मजबूती मिल सकेगी। इसके बाद चुनाव आयोग की ओर से बनाई गई व्यवस्था में तय किया गया कि नोटा के मतों की गिनती की जाएगी, लेकिन ये मत रद्द माने जाएंगे जिसका मतलब यह होगा कि इससे किसी प्रत्याशी की जीत-हार पर कोई असर नहीं पड़ेगा न नतीजा प्रभावित होगा।
पहली बार नोटा को 2015 में पूरे देश में लागू किया गया
चुनाव आयोग ने नोटा को दिसंबर 2013 के विधानसभा चुनावों में ईवीएम में नोटा की बटन का प्रावधान करने का निर्देश दिया था। लेकिन पहली बार नोटा को 2015 पूरे देश में लागू किया गया। 2018 में तो इसे उम्मीदवार के समकक्ष का दर्जा दिया गया। एक जानकारी इस तरह की भी रही है कि 2018 में हरियाणा में नगर निगम चुनावों में यह फैसला लिया गया कि अगर नोटा को सर्वाधिक मत मिलता है तो शेष सभी प्रत्याशियों को अयोग्य घोषित कर दिया जाएगा और चुनाव फिर से कराए जाएंगे। इससे पहले दूसरे स्थान पर रहे उम्मीदवार को जीता हुआ माना जाता था। एक राय इस तरह की भी रही है कि अगर नोटा का वोट सबसे ज्यादा वोट मिल जाए तो दोबारा चुनाव कराया जाना चाहिए। इस तरह की राय पूर्व चुनाव आयुक्त टीएस कृष्णमूर्ति की भी रही है।
लगातार बढ़ रही है नोटा का उपयोग करने वाले मतदाताओं की संख्या
ध्यान देने की बात है कि पिछले चुनावों के आंकड़े बताते हैं कि नोटा का उपयोग करने वाले मतदाताओं की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। कुछ क्षेत्रों के आंकड़े भी बहुत रोचक रहे हैं। अब जैसे गुजरात में बीते विधानसभा चुनाव में 5.5 लाख से अधिक यानि 1.8 फीसदी मतदाताओं ने नोटा का उपयोग किया था। इतना ही नहीं, कुछ क्षेत्रों में जीत का अंतर नोटा के मतों से कम था। इस तरह के तमाम उदाहरण मौजूद हैं जिनकी वजह से सियासी हलकों में नोटा को लेकर नए सिरे से बहस शुरू हो चुकी है। वर्तमान लोकसभा चुनाव में भी इस तरह की आशंकाएं व्यक्त की जा रही हैं कि इसमें नोटा का और ज्यादा इस्तेमाल हो सकता है। इसके पीछे एक कारण एक समुदाय विशेष की ओर से दी जा रही इस आशय की चेतावनी है। असल में सोशल मीडिया पर पिछले दिनों से एससी-एसटी एक्ट को लेकर केंद्र सरकार की ओर से संशोधन को लेकर उठे विवाद के बाद कुछ लोग कहने लगे हैं कि चुनाव में नोटा का उपयोग किया जाएगा। अभी इसको लेकर बातें हो ही रही थीं कि अब संघ प्रमुख मोहन भागवत की ओर से पहले चरण के मतदान के बाद संवाददाताओं के साथ बातचीत में नोटा का सख्त विरोध जताया गया। उनकी ओर से कहा गया है कि मतदाताओं को किसी प्रत्याशी को ही वोट करना चाहिए। मतदान को पुनीत कर्तव्य बताते हुए उन्होंने यह भी कहा कि चुप रहने से कुछ नहीं होगा बल्कि हां या ना कहना होगा। जाहिर है कि इसका अपना कुछ विशेष महत्व है। तो क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि जिस नोटा को पहले हलके में लिया जा रहा था, उस नोटा के सोटा की मार प्रभावी होने लगी है।
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