लोकसभा चुनाव 2019: 'इस चुनाव के बाद कन्हैया का कोई ठिकाना नहीं होगा': तनवीर हसन
बेगूसराय सीट पर गिरिराज सिंह और कन्हैया कुमार के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रहे राजद नेता तनवीर हसन से बातचीत.
बिहार की बेगूसराय लोकसभा सीट पर 29 अप्रैल को मतदान होने हैं.
लेकिन ये लोकसभा सीट तब से चर्चा में है जबसे यहां से जेएनयू छात्र संघ अध्यक्ष कन्हैया कुमार के चुनाव लड़ने की ख़बरें आई थीं.
एक समय ऐसा आया जब ख़बरें आईं कि बेगूसराय में वह महागठबंधन के उम्मीदवार हो सकते हैं.
लेकिन महागठबंधन और कन्हैया की पार्टी सीपीआई के बीच दाल नहीं गली.
इसके बाद वह सीपीआई उम्मीदवार के रूप में चुनाव मैदान में उतरे और महागठबंधन ने इसी सीट पर दिग्गज राजद नेता तनवीर हसन को टिकट दिया.
बीबीसी ने तनवीर हसन के साथ ख़ास बातचीत में इस सीट के जातिगत समीकरण और राजनीतिक भविष्य से जुड़े सवालों के जवाब तलाशने की कोशिश की है.
बेगूसराय लोकसभा सीट इतनी चर्चा में क्यों है?
देखिए, मीडिया ही किसी सीट को चर्चा में लाता है और उसे चर्चा से गायब भी कर देता है. मीडिया ऊपर से ही इस सीट को चर्चा में बनाए हुए है. चुनाव के दौरान तो हर सीट चर्चा में होती है. हर जगह चुनाव का संघर्ष है. बेगुसराय के मामले में बस इतना ही कहा जा सकता है कि यहां 2014 के चुनाव में संघर्ष किया गया था. स्थिति बिलकुल ऐसी ही थी.
क्या कन्हैया कुमार ने आपकी नींद उड़ा दी है?
हमारी नींद न कन्हैया ने उड़ाई है और न किसी और ने उड़ाई है. 2014 के चुनाव में भी हमने संघर्ष किया था. चुनाव में तो काम करना ही पड़ता है. तब कन्हैया नहीं थे लेकिन उनकी पार्टी के उम्मीदवार तो तब भी थे. ऐसे में कन्हैया रहें या पार्टी का दूसरा उम्मीदवार रहे, लड़ाई तो समान है. कन्हैया के नाम पर उनके समर्थकों वाले मतदान का अनुमान कम है. क्योंकि कम्युनिस्ट पार्टी अपने बेस वोट पर चुनाव लड़ रही है और यही वोट उन्हें पिछले चुनाव में भी मिला था.
बीते पांच सालों से केंद्र में एक मजबूत सरकार है, वहां जब विपक्ष की आवाज़ दबती हुई दिखाई दी तो एक युवा ने अपनी आवाज़ से इस तरह मोर्चा लेकर रखा. उस आवाज़ को आप लोगों ने खुद से अलग क्यों कर दिया?
हमनें इस आवाज़ को अपने आप से अलग नहीं किया. गठबंधन की बुनियाद पिछले चुनाव में मिले हुए मतों के आधार पर बनती है. सीट का बंटवारा भी उसी तरह होता है. जब हमारे गठबंधन मे ये तय हुआ कि राजद का इस सीट पर क्लेम है. कम्युनिस्ट पार्टी इस सीट पर तीसरे नंबर पर आई थी. राजद से दो लाख वोट कम मिले थे. इस बुनियाद पर ये सीट राजद की बनती है और राजद लड़ेगी.
कुछ तो व्यवस्था हो सकती थी, आप लोग साझा चुनाव लड़ रहे थे?
साझा चुनाव तो यहां पर हुआ नहीं. उन्होंने सभी जगहों पर अपने उम्मीदवार खड़े किए हैं. अब पिछले चुनाव में भी वह साझा नहीं थे और जदयू से मिले हुए थे. इस वजह से भी स्थानीय राजनीति में उनकी मंशा ठीक नहीं रहती है.
तीसरी बात ये है कि मीडिया के द्वारा सिर्फ ये सवाल क्यों है कि वो क्यों नहीं लड़े और वो क्यों नहीं लड़ सकते थे, वो क्यों हटाए गए. ये तो बेहद पक्षपातपूर्ण सवाल है.
एक मजबूत सरकार में जब विपक्ष की आवाज़ कमज़ोर पड़ रही थी तो एक युवा ने उस आवाज़ को मजबूत करने की कोशिश की. बस इसी वजह से ये सवाल पूछा जाता है.
नहीं, विपक्ष की आवाज़ मजबूत करने की कोई कोशिश नहीं की गई. विपक्ष भी गूंगा नहीं था. विपक्ष ने अपने धर्म को निभाया था. ये एक विवादास्पद मामले में चर्चा में आए और उसी मामले से मीडिया ने इन्हें कैच किया. मीडिया पता नहीं क्यों कुछ पहचानी शक्लों को ही प्रोजेक्ट करता है.
क्या आप उन पर लगे देशद्रोह के आरोप को सही मानते हैं?
मैंने सही तब भी नहीं माना था. तब भी इसकी निंदा की थी. लेकिन सवाल ये नहीं है. सवाल ये है कि कुछ न कुछ विवाद हुआ तब न मीडिया ने उसको हाईलाइट किया. मीडिया ने उनके पक्ष और विपक्ष दोनों में उनको हाईलाइट किया. ऐसे में हाईलाइट का केंद्र तो वही बने. मतलब यही वजह बनी.
अब तो अरुण जेटली भी टुकड़े-टुकड़े गैंग कहते हैं. क्या आप भी टुकड़े-टुकड़े गैंग का जो दाग या आरोप है, उसे आप सही मानते हैं?
टुकड़े-टुकड़े गैंग है या क्या है, जेटली के आरोप को सही मानना या न मानना अलग चीज़ है. हमारी मान्यता ये है कि अगर किसी भी तरह के ऐसे मामले में बीजेपी सरकार पक्षपात करती है और राष्ट्रद्रोह और राष्ट्रप्रेम का सर्टिफ़िकेट बांटती है तो इसका हक़ उन्हें नहीं है.
आपको नहीं लगता है कि कन्हैया भी उसी वोटबैंक को अपील कर रहे हैं जिस वोट बैंक को आप अपील कर रहे हैं.
उनका भी काम है अपील करना. अभी तक उनकी अपील पर जब फॉलोइंग हो जाएगी तब न उसको देखा जाएगा. अभी तक उसकी फॉलोइंग नज़र नहीं आती है.
कई लोग ये कहते हैं कि आपने और कन्हैया दोनों ने मिलकर गिरिराज की राह आसान कर दी है?
अब इसके लिए दोषी कौन हो सकता है. मैं तो नहीं हूं. पार्टी के पिछले प्रदर्शन के आधार पर मुझे उम्मीदवार बनाया गया. इस पर कोशिश की जा सकती है. लेकिन उन्होंने सशर्त कोशिश की कि ये चाहिए और वो चाहिए. ऐसी हालत में गठबंधन के दूसरे अन्य घटकों का रुख अलग था जिनसे वो लोग सहमत नहीं हुए.
क्या आप ये स्वीकार करते हैं कि आपके और कन्हैया के अलग होने से गिरिराज खेमे में खुशी है?
चुनाव हम भी लड़ रहे हैं और वह भी लड़ रहे हैं. ऐसे में किसके यहां खुशी है और किसके यहां ग़म है, वो अलग बात है. ये तो एक धारणा की बात है कि कहां खुशी है. और, कौन जीतेगा तो पाकिस्तान में फुलझड़ी छूटेगी. ये तो धारणा की बात है. और इसी के आधार पर ये सब कहा जा रहा है.
आपका दुश्मन गिरिराज और कन्हैया में से कौन है तनवीर जी? क्योंकि गिरिराज, कन्हैया और आपकी अपनी विचारधारा है, ऐसे में कौन सी विचारधारा आपके ख़िलाफ़ है?
आप यही तो पूछेंगे न कि जब आप दोनों एक विचारधारा के आस-पास हैं तो साथ क्यों नहीं हुए. क्योंकि आप बार बार एक ही जैसा सवाल पूछ रहे हैं.
नहीं, ऐसा नहीं है, क्योंकि आपके मतदाताओं को कहीं न कहीं लगता है कि कुछ गड़बड़ हुआ है.
ये तो हमें भी लगता है कि देशभर में बड़े पैमाने पर जो मोर्चेबाजी होनी चाहिए थी, उसमें कहीं न कहीं चूक हुई है. लेकिन बिहार की मोर्चेबाजी में हमारे मोर्चे के साथ जो घटक हैं, उनके साथ एक बड़ा आकार है. और यही बात साबित करती है कि बिहार में ये चूक नहीं हुई है.
और व्यापकता लाने के लिए कहीं न कहीं समझौता करने की भी ज़रूरत होती है. ऐसे में जब वामपंथ ने सब मिलाकर 16-17 सीट पर दावेदारी की तो वो कहीं से मुनासिब नहीं था. और वो उस दावेदारी पर अड़े रहे. ऐसी हालत में आप बताइए कि कौन से गठबंधन में ऐसी शर्त पर दावेदारी मान ली जाए जिससे कि किसी एक व्यक्ति के लिए पूरी पार्टी कहे कि वो सीट तो वह ही लेगी.
और अगर मान भी लिया जाए कि हो जाती तो उस समय तो कोशिश की नहीं गई. उनकी तरफ़ से कोशिश नहीं की गई. हमारी तरफ़ से कोशिश की गई. हमने ऑफ़र भी की. हमने माले के लिए एक सीट छोड़ी भी. क्योंकि जनसमर्थन के लिहाज़ से जो उपयुक्त पार्टी है वो माले है और उसका कहीं कहीं जनसमर्थन है. हमने अपने आप से उनके लिए सीट छोड़ दिया.
आपके और उनके साथ चलने वालों में एक आम भावना है कि काश ये जोड़ी साथ होती. आप भी इस भावना के साथ हैं क्या?
ये सवाल नहीं है कि हम इस भावना के साथ हैं या नहीं हैं. अब तो हम लोग जंग के मैदान में हैं.
क्या तेजस्वी के नेतृत्व में काम करना कुछ अजीब नहीं लगता है?
हमें कोई अजीब नहीं लगता है. आप तेजस्वी को टारगेट करना चाहते हैं तो भूल जाइए. यहां तेजस्वी का सवाल कहां उठता है. और ये प्रश्न भी नहीं उठता है. राहुल गांधी के नेतृत्व में सारे वरिष्ठ नेता काम कर रहे हैं कि नहीं. कन्हैया के नेतृत्व में सारे वरिष्ठ नेता काम कर रहे हैं कि नहीं कर रहे हैं? ये तो भेद पैदा करने का प्रश्न है. हम उस पार्टी के वर्कर और काडर हैं. नेतृत्व बदलता रहता है. युवा युवा कह रहे हैं तो ऐसे में तेजस्वी से युवा कौन है?
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लेकिन केवल परिवार में ही तो युवा नहीं होता है?
परिवार हो या परिवार से बाहर हो. वो कोई ऐसा तो नहीं है कि नया नया इंट्रोड्यूस किया गया हो. राम चरित का परिवार था राजनीति का. इसके बाद चंद्रशेखर कम्युनिस्ट पार्टी के नेता हुए. वो भी तो परिवार में ही हुए.
बेगूसराय में भूमिहार सवर्णों की आबादी सबसे ज़्यादा है, उनका सीपीआई से जुड़ाव आप किस तरह देखते हैं?
हमें नहीं लगता है कि वो जुड़ाव रह गया है.
लेकिन पूरा नेतृत्व तो उनके ही हाथ में है?
वो लीडरशिप विदआउट फॉलोइंग है. आप जिस वर्ग की बात कर रहे हैं, मैं उसके लिए कुछ नहीं कहना चाहता हूं.
मैं पूछ रहा हूं कि सीपीआई का सिद्धांत है कि संपत्ति का समान बंटवारा हो...क्या ये हो रहा है?
ये उनसे ही पूछिए न. सारे ज़मींदार अपनी ज़मीन बचाने के लिए कम्युनिस्ट पार्टी में गए थे. वीरपुर में एक बड़े ज़मीदार थे शिवदानी सिंह. वो कम्युनिस्ट पार्टी में गए. इसके बाद विधायक भी बने. रामचरित बाबू कोई छोटे किसान नहीं थे. बड़े किसान थे. कम्युनिस्ट पार्टी उनके घर में हुई. चंद्रशेखर बाबू हुए. तो बांट थोड़े ही दी उन्होंने अपनी संपत्ति.
क्या आप मानते हैं कि ये सिर्फ एक रणनीतिक जुड़ाव था?
सिर्फ, रणनीतिक जुड़ाव था ये. इस चुनाव के बाद कन्हैया कहां रहेंगे, कोई ठिकाना नहीं है.
अगर बीजेपी बेगूसराय से जीतती है तो आप किसे ज़िम्मेदार मानेंगे?
देखिए, चुनाव में तो किसी की जीत होती ही है. और जनता अपने मन से चुनती है और उसके लिए जनता ही ज़िम्मेदार होती है. इससे पहले बीजेपी जीती थी. उससे पहले एक बार राजद और जदयू के उम्मीदवार इस सीट पर जीते थे. इसमें हम और कन्हैया एक दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप कर सकते हैं लेकिन ज़िम्मेदारी किसी की नहीं बनती है.
अगड़ों को मिले आरक्षण पर आप क्या कहना चाहेंगे?
ये जो व्यवस्था की गई है वो संविधान में निहित सिद्धांतों के अंतर्गत नहीं की गई है. वो केवल वोट हासिल करने के लिए उठाया गया कदम है.
तेजस्वी यादव ने हाल ही में अपने इंटरव्यू में कहा है कि बिहार में सीपीआई एक ज़िले और एक जाति की पार्टी है. उनका कहने का क्या मतलब है?
देखिए, समाज में जाति का भी कोई स्थान है. इससे लोग फैशन में तो इनकार कर सकते हैं लेकिन आचरण में कोई इनकार नहीं कर सकता. ये हक़ीकत है. जब ये सच है तो इसे बोलने में किसी को भी इनकार नहीं होना चाहिए. तेजस्वी ने बोला है तो आप सीपीआई की सीट पूरे बिहार में गिन लीजिए. बेगूसराय में हैं, वो भी लीडरशिप में बचा हुआ वर्ग है. फॉलोइंग में वो वर्ग नहीं है.