लोकसभा चुनाव 2019: लालकृष्ण आडवाणी का युग अब ख़त्म हो गया है: नज़रिया
आडवाणी की सीट पर अमित शाह के लड़ने पर कुछ लोग भले ही ये कहें कि बीजेपी अध्यक्ष का क़द आडवाणी के बराबर हो गया है लेकिन किसी सीट पर लड़ने से किसी का कद न बढ़ता है और न ही छोटा होता है.
भारतीय जनता पार्टी ने गुरुवार को 2019 लोकसभा चुनाव के लिए 184 उम्मीदवारों की अपनी पहली सूची जारी कर दी. इसमें गांधीनगर सीट से लालकृष्ण आडवाणी की जगह अमित शाह का नाम घोषित किया गया है.
आडवाणी इस सीट से 1998 से चुने जीतते रहे थे लेकिन पार्टी ने इस बार उन्हें मौका नहीं दिया है.
यह एक तरह से नैचुरल ट्रांजिशन है. आडवाणी अब उस स्थिति में नहीं है जो सक्रिय रूप से प्रचार अभियान चला सकें.
चुनाव में जिस तरह से पसीना बहाना पड़ता है, धूल फांकनी पड़ती है, उसके लिए आडवाणी की उम्र कुछ ज़्यादा है.
इसे बीजेपी का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी के हाथ में जाने के तौर पर देखा जा सकता है और कुछ नहीं.
अमित शाह और आडवाणी की तुलना उचित?
आडवाणी की सीट पर अमित शाह के लड़ने पर कुछ लोग भले ही ये कहें कि बीजेपी अध्यक्ष का क़द आडवाणी के बराबर हो गया है लेकिन किसी सीट पर लड़ने से किसी का कद न बढ़ता है और न ही छोटा होता है.
अगर यही पैमाना होता तो आपको वाराणसी से कोई भी ऐसा नेता आपको याद नहीं होगा जिसका क़द प्रधानमंत्री तक जाता हो.
वाराणसी से मोदी के चुने जाने का ये मतलब नहीं है कि वे सीट की वजह से बड़े हो गए. ये नेता की अपनी शख़्सियत पर निर्भर करता है.
सीट का नेता के क़द से कोई रिश्ता नहीं होता. वैसे ही गांधीनगर से अमित शाह लड़ रहे हैं. इसमें कोई शक नहीं है कि वे भारतीय जनता पार्टी के अध्यक्ष हैं.
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गांधीनगर से चुनाव लड़ने की वजह से अमित शाह की तुलना आडवाणी से करना उचित नहीं होगा. इसकी कई वजहें हैं.
एक वजह तो ये है कि ज़माना बदल गया है. लीडरशिप के तौर-तरीके बदल गए हैं.
आडवाणी और अमित शाह दोनों अलग-अलग हैं. आडवाणी का क़द कहीं ज़्यादा बड़ा है. अमित शाह को वहां तक पहुंचने में काफ़ी वक़्त लगेगा.
लेकिन ये एक तरह से आडवाणी युग का अंत होने जैसा है. इसमें कोई शक़ भी नहीं रह गया है.
सबका ढलान का वक़्त आता है
साल 2009 के चुनाव के बाद से ही ये स्पष्ट होने लगा था कि उस ज़माने के नेताओं का समय अब पूरा हो गया है.
किसी की उम्र 90 साल हो गई हो और ये सोचना कि उसका युग रहेगा, तो ये बहुत बड़ी बात हो जाएगी.
क्रिकेट में खिलाड़ी अपने रिटायरमेंट के फ़ैसले ख़ुद लेते हैं लेकिन राजनेताओं की विदाई के लिहाज़ से देखा जाए तो जिस तरह से आडवाणी ढलते चले गए कि अब कोई उनकी बात भी नहीं करता है.
हर किसी की ज़िंदगी में ढलान का वक़्त आता है. ये नहीं कहा जा सकता कि इस समय पूछ घट गई है या उस समय पूछा जा रहा था.
अगर आप याद करें तो मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी में हरकिशन सिंह सुरजीत हुआ करते थे. वह लंबे समय तक राजनीति में सक्रिय रहे लेकिन आख़िरी दौर में वह भी फ़ीके पड़ गए थे.
जॉर्ज फर्नांडिस के साथ भी ऐसा ही हुआ था. ये जीवन का प्राकृतिक चक्र है और इसे बदला नहीं जा सकता. यह तो नहीं कह सकते कि हम अतीत में जीते रहें और यह सोचें कि 30 साल पहले उनका क़द बहुत बड़ा था. लिहाज़ा अब भी उन्हें वैसा ही रखा जाए.
क़द वक़्त से जुड़ा होता है
किसी का क़द उसके वक़्त से जुड़ा होता है. वक़्त के बदलने से चीज़ें बदल जाती हैं.
अमित शाह के गांधीनगर से लड़ने के फ़ैसले पर ये भी कहा जा रहा है कि वह मोदी सरकार के दोबारा चुने जाने की सूरत में पार्टी में नंबर दो की हैसियत से सरकार में नंबर दो के ओहदे पर आ सकते हैं.
हालांकि इस पर फ़िलहाल कुछ कहना कयास लगाने जैसी बात होगी. कैबिनेट में किसी को लेने का फ़ैसला प्रधानमंत्री का विशेषाधिकार होता है.
साल 2019 का चुनाव उन्हीं की अध्यक्षता में हो रहा है, इसलिए इससे कोई इनकार नहीं करेगा कि उनकी अहम भूमिका रहेगी.
(बीबीसी संवाददाता दिलनवाज़ पाशा से बातचीत पर आधारित)