मात्र 46 सीटों वाली पार्टी की भी बन चुकी है केंद्र में सरकार
नई दिल्ली। कुछ बातें कहने और सुनने में बहुत अच्छी लगती हैं। उन लोगों को बहुत अपील भी करती हैं जिन्हें तथ्यों और सच्चाइयों के बारे में कम पता होता है अथवा जानना-समझना नहीं चाहते हैं। आत्मसंतुष्टि के लिहाज से भी कुछ बातों का बहुत मतलब होता है। लेकिन जब इसी तरह की कोई बात चुनावों के मद्देनजर की जा रही हों, तो उसके निहितार्थ इस सबसे ज्यादा होते हैं। इसीलिए चुनाव प्रचार के दौरान हर नेता ऐसी-ऐसी बातें करता है जो उसके इच्छित मतदाताओं को लुभा सके और अपने पक्ष में खड़ा कर सके। कई बार ऐसा होता भी है कि वे मतदाता जिन्होंने अपना मन नहीं बनाया हुआ है, इस तरह की बातों में आ जाते हैं और फिर तय करते हैं कि किस पार्टी अथवा प्रत्याशी को वोट देना है। कुछ उन लोगों को भी ऐसी बातें प्रभावित करती हैं जो मतदाता नहीं हैं लेकिन चुनावों के बारे में न केवल उनकी सोच होती है बल्कि लोगों के बीच होने वाले विचार-विमर्श में शामिल होते हैं और एक-दूसरे को प्रभावित करने की मंशा भी रखते हैं। अगर इस नजरिये से देखा जाए तो पता चलता है कि चुनाव प्रचार के दौरान की जाने वाली इस तरह की लोकलुभावन बातों का कितना महत्व होता है और किस तरह आम मतदाता उसे स्वीकार अथवा अस्वीकार करता है।
मोदी ने कही विपक्ष के कमजोर होने की बात
इस चुनाव में हर पार्टी का बड़ा नेता अपने विमर्श लोगों के बीच लेकर जा रहा है। इसी बीच प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने उत्तर प्रदेश के बहराइच में हुई अपनी चुनावी सभा में एक बार फिर विपक्ष को निशाने पर लिया और यह बताने की कोशिश की कि अब विपक्ष कितना कमजोर हो चुका है। प्रधानमंत्री मोदी ने इस चुनावी सभा में कहा है कि वह पार्टी अपने नेता को प्रधानमंत्री बनाने का सपना देख रही है जो 2014 के चुनाव में लोकसभा में अपने सदस्यों की इतनी संख्या तक नहीं जुटा पाई थी कि विपक्ष का नेता पद हासिल कर सके। यह भी कहा कि जो पार्टी 50-55 सीट लेकर के विपक्ष का नेता बनाने की स्थिति में नहीं हैं, वो प्रधानमंत्री बनने के लिए दर्जी के पास कपड़े सिला रहे हैं। इसके साथ ही उन्होंने यह भी दावा किया कि 2014 के लोकसभा चुनावों की तरह इस बार भी जनता ने तय किया है कि किसी पार्टी के पास विपक्ष का नेता पद हासिल करने जितनी संख्या नहीं आ पाएगी।
जाहिर है पिछले चुनाव में किसी पार्टी को इतनी संख्या में सीटें नहीं मिल सकी थीं कि सदन में उसके नेता को विपक्ष के नेता का दर्जा दिया जा सके। उस चुनाव में विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी के रूप में वह कांग्रेस उभरी थी जिसकी पिछली लोकसभा में दो कार्यकाल की सरकार थी। लेकिन 2014 में चली मोदी लहर का परिणाम इस रूप में सामने आया कि कांग्रेस मात्र 44 सीटों पर सिमट कर रह गई। इसके बाद उसकी ओर से की गई विपक्ष का नेता पद मिलने की तमाम कोशिशें भी सफल नहीं हो सकीं और विपक्ष का नेता पद रिक्त ही रह गया था। यद्यपि यह कोई पहला अवसर नहीं था जब सदन ने नेता प्रतिपक्ष नहीं रहा है। सन 1980 और 1984 में भी इस तरह की स्थिति बनी थी जब लोकसभा में विपक्ष का कोई नेता नहीं था। इसके अलावा यह भी जानकारी है कि चौथी लोकसभा को छोड़कर आठवीं लोकसभा तक में नेता प्रतिपक्ष का पद रिक्त रहा है। इसके पीछे कारण यही था कि किसी पार्टी के पास इतनी सदस्य संख्या नहीं थी कि उसके नेता को विपक्ष का नेता पद दिया जा सके। उल्लेखनीय है कि सदन में नेता विपक्ष पद के लिए उस पार्टी के पास सदन की न्यूनतम 10 फीसदी सीटें होना आवश्यक है। सामान्य तौर पर इसका मतलब यह होता है कि कम से कम 55 या उससे अधिक सदस्य वाली पार्टी के नेता को ही विपक्ष के नेता का दर्जा दिया जा सकता है।
कुछ तथ्य इसके विपरीत भी
इसके साथ ही कुछ तथ्य इसके विपरीत भी रहे हैं जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती। इनमें से एक सबसे प्रमुख यह है कि कभी एक ऐसी पार्टी का नेता भी प्रधानमंत्री बन चुका है जिसके पास विपक्ष का नेता पद पाने की अपेक्षित संख्या भी नहीं थी। यह प्रधानमंत्री थे एचडी देवेगौड़ा। यह लोकसभा चुनाव 1996 में हुआ था और जनता दल तीसरे स्थान पर आया था। उस चुनाव में भाजपा को 161 सीटें मिली थीं और सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी थी। दूसरे स्थान पर रही कांग्रेस को उस चुनाव में 140 सीटें मिली थीं। तब सबसे बड़ी पार्टी होने के नाते भाजपा को सरकार बनाने का मौका मिला था और प्रधानमंत्री बने थे अटल बिहारी वाजपेयी। लेकिन यह सरकार केवल 13 दिन चल सकी थी। उसके बाद कांग्रेस सरकार बनाने के लिए आगे नहीं आई। तब तत्काल दोबारा चुनाव न थोपने के तर्क के साथ कांग्रेस ने जनता दल को समर्थन किया था जिसके 13 पार्टियों वाले यूनाइटेड फ्रंट के पास 192 सीटें थीं।
हालांकि यह सरकार 10 महीने बाद ही गिर गई क्योंकि कांग्रेस ने समर्थन वापस ले लिया। लेकिन इसके तुरंत बाद फिर 1997 में इंद्र कुमार गुजराल के नेतृत्व में सरकार बनी और तब भी उनकी पार्टी की सदस्य संख्या 46 ही थी। इससे यह स्पष्ट है कि एक ऐसी पार्टी की सरकार दो बार केंद्र में सरकार में रही जिसकी संख्या विपक्ष का नेता पद पाने की भी स्थिति में नहीं थी। थोड़ा भिन्न किस्म का एक और उदाहरण है जिसमें एक दल की सदस्य संख्या विपक्ष का नेता पद हासिल करने की अपेक्षित संख्या से करीब 10 ही ज्यादा थी लेकिन उसके नेता को प्रधानमंत्री पद मिल गया था। यह थे चंद्रशेखर जिनके पास अपनी पार्टी के सदस्यों की संख्या केवल 64 थी, लेकिन कांग्रेस के समर्थन से उनके नेतृत्व में सरकार बनी थी। इससे पहले उन्हीं की पार्टी के विश्वनाथ प्रताप सिंह भाजपा और वामदलों के समर्थन से प्रधानमंत्री बने थे। भाजपा के समर्थन वापस लेने से उनकी सरकार गिर गई थी।
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भारतीय लोकतंत्र की अपनी विशिष्टताएं
यह भारतीय लोकतंत्र है जिसकी अपनी विशिष्टताएं हैं और जिसका लोहा पूरी दुनिया मानती है। इसमें बहुत सारी संभावनाएं होती हैं और अनेक स्वस्थ लोकतांत्रिक परंपराएं रही हैं। इसमें से कई बार बहुत कुछ अच्छा निकल कर आ जाता है जिसकी कोई संभावना तक नहीं होती है। इस तरह यह हमेशा और ज्यादा मजबूत होता जाता है। अब जैसे यह भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था का परिणाम है कि कोई निर्दलीय विधायक किसी राज्य का मुख्यमंत्री हो सकता है और बिना लोकसभा चुनाव जीते कोई व्यक्ति प्रधानमंत्री भी बन सकता है। झारखंड के एक निर्दलीय विधायक एक समय ऐसा आया था जब कोई दल सरकार बनाने की स्थिति में नहीं पहुंच पा रहा था, तब कोड़ा पर सहमति बन गई थी और उनकी सरकार बन गई थी।
देवेगौड़ा राज्यसभा के जरिये आए थे। ऐसे में इस बात को कोई विशेष मतलब नहीं रह जाता कि किसी पार्टी को किसी चुनाव में इतनी सीटें भी नहीं मिल सकीं कि वह विपक्ष का नेता पद प्राप्त कर सके, वह किसी अन्य चुनाव में अपना प्रधानमंत्री नहीं बना सकती। यह तो मतदाता पर निर्भर करता है। इस चुनाव में भले ही यह संभव न हो, लेकिन अगर मतदाता तय कर लेगा तो वह किसी भी पार्टी को इतनी सीटें दे सकता है कि उसकी सरकार बन जाए। ऐसा न होने पर भी हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था ऐसी है कि इसमें बिना जरूरी सदस्य संख्या के भी अगर प्रधानमंत्री बनाती रही है, तो इस चुनाव में भी इस संभावना को पूरी तरह खारिज नहीं किया जा सकता। अगर बात केवल मतदाताओं को लुभाने की है, तो कोई बात नहीं है।