लोकसभा चुनाव 2019: दूर की कौड़ी क्यों है मायावती का पीएम बनने का सपना?
नई दिल्ली। जब से उत्तर प्रदेश में एक दूसरे के धुर विरोधी सपा और बसपा के बीच चुनावी गठबंधन हुआ है और कांग्रेस को इससे बाहर रखा गया है, तब से दो बड़े सवाल राजनीतिक हलकों में उठ रहे हैं। पहला यह कि क्या भाजपा और उसकी सरकार से डर की वजह से यह गठबंधन हुआ है। दूसरा यह कि क्या मायावती अपने प्रधानमंत्री बनने के सपने को साकार करने के लिए इस गठबंधन में गई हैं और दो टूक कह रही हैं कि कांग्रेस के साथ बसपा किसी तरह का गठबंधन नहीं करेंगी। ऐसा तब है जब गठबंधन से पहले ऐसा माना जा रहा था कि कम से कम लोकसभा चुनाव में राज्य की कांग्रेस समेत सभी विपक्षी पार्टियां कोई महागठबंधन बनाएंगी जिसकी वकालत काफी समय से की जा रही थी और जिसकी आधारशिला गोरखपुर, फूलपुर और कैराना में रखी जा चुकी थी।
लेकिन ऐसा नहीं हुआ और चुनाव से करीब दो महीने पहले बसपा और सपा ने गठबंधन कर लिया और बाद में उसमें रालोद को भी शामिल कर लिया। एक तरह से कांग्रेस को जानबूझ कर किनारे कर दिया गया। यद्यपि मायावती ने इसके संकेत छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश और राजस्थान के विधानसभा चुनाव के समय ही दे दिए थे, जब छत्तीसगढ़ में बसपा ने कांग्रेस की बजाय अजीत जोगी की पार्टी के साथ गठबंधन कर लिया था। हालांकि उसके बाद भी यह अनुमान लगाया जा रहा था कि लोकसभा चुनाव में ऐसा नहीं होगा। लेकिन यह हो गया। ऐसे में एक तरह से यह स्पष्ट हो चुका है कि कम से कम उत्तर प्रदेश में विपक्ष के महागठबंधन जैसा कुछ नहीं रहेगा। मतलब एक तरह से राज्य में तिकोने संघर्ष के हालात बन चुके हैं जिसमें भाजपा, सपा-बसपा-रालोद गठबंधन और कांग्रेस होंगे। इसी आधार पर यह भी माना जा रहा है कि तिकोने संघर्ष में भाजपा को ही लाभ होगा क्योंकि विपक्ष का वोट आपस में ही बंट जाएगा।
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मायावती कांग्रेस को लेकर इतनी सख्त कैसे हो गई
ऐसे में अब सबसे बड़ा सवाल यह उठ रहा है कि आखिर बसपा प्रमुख मायावती कांग्रेस को लेकर इतनी सख्त कैसे हो गई हैं जबकि राज्य में धुर विरोधी सपा को साथ लेकर चलने को तैयार हैं। तभी इस सवाल को बल मिलता है कि दोनों ही पार्टियां डरी हुई हैं। लेकिन लगता नहीं कि बात सिर्फ इतनी ही है। इससे भी बड़ी बात यह बताई जा रही है कि मायावती के दिमाग में बीते कुछ समय से प्रधानमंत्री पद हासिल करने का सपना पल रहा है। इसके पीछे वर्तमान राजनीतिक हालात बहुत बड़ा कारण बना है जिसमें विपक्षियों को खासकर क्षेत्रीय दलों को ऐसा लगने लगा है कि लोकसभा चुनाव में भाजपा और एनडीए को बहुमत नहीं मिलने जा रहा है। ये दल यह भी मानकर चल रहे हैं कि कांग्रेस को भी इतनी सीटें नहीं मिलने जा रही है जिससे वह सरकार बनाने के लिए प्रमुख दावेदार के रूप में उभर सके। अगर ऐसा होता है तो उन दलों के लिए प्रधानमंत्री पद हासिल कर पाने का अच्छा मौका होगा जिनकी सीटें ज्यादा होंगी। हालांकि तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी के बारे में भी यह कहा जा रहा है कि वह भी प्रधानमंत्री पद की दावेदार हो सकती हैं। लेकिन मायावती को शायद यह सबसे मुफीद समय लग रहा है। संभवतः इसी गणित के साथ वह सपा से साथ गई हैं। उनकी रणनीति में यह शामिल बताया जाता है कि अगर इस गठबंधन को राज्य में 50-60 सीटें भी मिल जाती हैं तो उनकी दावेदारी मजबूत हो सकती है क्योंकि सपा प्रमुख अखिलेश यादव की ओर से बार-बार यह कहा जाता रहा है कि उनकी रुचि राज्य में ही रहने की है।
क्या यूपी में बसपा अभी पुरानी मजबूत स्थिति में है
अब देखने की बात यह है कि क्या बसपा की वाकई ऐसी स्थिति है अथवा हो सकती है कि वह प्रधानमंत्री पद की दावेदारी कर सकें और उस पर सहमति बन सके। सबसे पहली बात यह है कि क्या उत्तर प्रदेश में बसपा अभी पुरानी मजबूत स्थिति में है। इसके जवाब ना में ही हो सकता है जिसके लिए सिर्फ एक-दो उदाहरण ही काफी हैं। पहला तो यह कि बीते 2014 के लोकसभा चुनाव में बसपा एक भी सीट नहीं जीत पाई थी। विधानसभा चुनाव में भी बसपा का प्रदर्शन काफी कमजोर ही कहा जा सकता है। इसके अलावा, बीते पांच सालों में बसपा की ओर से दलितों के उत्पीड़न के मुद्दे पर भी ऐसा कुछ नहीं किया गया जिससे दलितों में यह संदेश जाता कि बसपा अभी भी उनके पक्ष में खड़ी है। एक तरह से राजनीतिक हलकों में यह संदेश गया है कि दलित वोट बसपा से खिसक चुका है। अगर इसे न भी माना जाए, तब भी इससे इनकार नहीं किया जा सकता कि दलितों में बसपा की उपस्थिति कमजोर हुई है। जब मायावती ने संसद से इस्तीफा दिया था, तब एक बार जरूर लगा था वह अपने कहे के मुताबिक जनता के बीच जाएंगी लेकिन ऐसा कुछ देखने को नहीं मिला। रोहित वेमुला से लेकर ऊना कांड तक और एससी-एसटी मुद्दे पर भी न मायावती और न ही बसपा की ओर से दलितों के पक्ष में कुछ खास किया गया। इसके विपरीत भाजपा तक खुद को दलितों का हितैषी साबित करने में लगी रही। इस बीच भीम आर्मी और उसके नेता चंद्रशेखर दलितों के सवाल पर लगातार आंदोलन चलाते रहे। इस तरह दलितों का झुकाव उनकी ओर बढ़ा लगता है जिन्हें मायावती पसंद नहीं करतीं और भाजपा का एजेंट बताती हैं।
क्या पूरा होगा मायावती का सपना?
मतलब यह कि बसपा की स्थित वैसी नहीं लगती जैसी शायद मायावती मानकर चल रही हैं। इसके बावजूद अगर यह मान भी लिया जाए कि इस गठबंधन को अगर 60 या उससे भी ज्यादा मिल भी जाती हैं तो क्या अन्य सभी विपक्षी पार्टियां आसानी से इसके लिए तैयार हो जाएंगी कि मायावती को प्रधानमंत्री पद के स्वीकार कर लिया जाए। जाहिर है यह बात इतनी आसान नहीं होगी क्योंकि उनके बारे में आम राय कोई एचडी देवेगौड़ा, इंद्र कुमार गुजराल चौधरी देवीलाल और ज्योति बसु जैसी नहीं है। इससे भी बड़ा सवाल यह है कि इन हालात में भी क्या बिना कांग्रेस अथवा भाजपा के समर्थन के केंद्र में कोई सरकार अथवा कोई प्रधानमंत्री बन पाएगा। विपक्षी सरकार के बारे में तो कोई भी यह कह सकता है कि बिना कांग्रेस के यह संभव नहीं है। एनडीए की सरकार की स्थिति में आखिर भाजपा क्यों नहीं चाहेगी कि उसकी सरकार न बने और मायावती को प्रधानमंत्री सौंप देगी। हालांकि कांग्रेस के बारे में यह माना जा सकता है कि वह कर्नाटक का प्रयोग केंद्र में भी दोहराए और किसी कम सीटों वाले दल अथवा व्यक्ति को प्रधानमंत्री का पद देने को तैयार भी हो जाए, लेकिन इतने कड़े विरोध के बाद क्या मायावती को समर्थन दे पाना उसके लिए आसान होगा। इससे स्पष्ट है कि मायावती का प्रधानमंत्री बनने का सपना फिलहाल दूर की कौड़ी ही ज्यादा लगती है।
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