महागठबंधन में "मोदी की फूट डालो राजनीति" के क्या हैं सियासी मायने?
नई दिल्ली। इसमें कोई दो राय नहीं कि मायावती बीते काफी समय से कांग्रेस पर लगातार हमलावर रही हैं। लेकिन अब जबकि चुनाव के चार चरण बीत चुके हैं, मायावती ने स्पष्ट रूप से बात कहकर अपनी भावी रणनीति का एक तरह से खुलासा कर दिया है। उन्होंने साफ कर दिया है कि भाजपा को और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को यह समझ लेना चाहिए कि अमेठी और रायबरेली में कांग्रेस प्रत्याशियों राहुल गांधी और सोनिया गांधी को समर्थन गठबंधन का फैसला है। यह समर्थन बहुत सोच-समझकर किया है। इसके गहरे निहितार्थ हैं। मायावती ने यह भी कहा है कि सपा-बसपा-रालोद का गठबंधन सिर्फ चुनाव तक नहीं बल्कि आगे भी बना रहेगा। किसी के द्वारा संदेह पैदा करने की कोई मंशा सफल नहीं हो पाएगी। मायावती का यह कहना एक तरह से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को करारा जवाब माना जाना चाहिए जिसमें उन्होंने गठबंधन में फूट पैदा करने की कोशिश के तहत प्रतापगढ़ की सभा में कहा था कि बसपा प्रमुख मायावती सपा का खेल समझ नहीं रही हैं। प्रधानमंत्री ने यह भी कहा था कि सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव कांग्रेस के साथ नरमी बरत रहे हैं। इसे इस रूप में लिया गया कि प्रधानमंत्री की कोशिश है कि पहले से संदेह के बीज बोए जाएं जिसके फल चुनाव परिणाम आने के बाद जरूरत पड़ने पर खाए जाएं।
राहुल गांधी और सोनिया गांधी को समर्थन गठबंधन का फैसला: मायावती
इस राजनीति को समझने के पहले कुछ और बातों पर गौर कर लेने से यह कोशिश ज्यादा अच्छी तरह समझ में आ सकती है। पहली यह कि उत्तर प्रदेश में सपा-बसपा-रालोद गठबंधन भाजपा को हराने के मकसद से बनाया गया था। उत्तर प्रदेश वह राज्य है जहां से जीत-हार का अपना मतलब होता है। 2014 के लोकसभा चुनाव में राज्य की 80 सीटों में से भाजपा ने 71 और उसकी सहयोगी अपना दल ने दो सीटें जीती थीं। इस बार के चुनाव में माना जा रहा है कि भाजपा 40 से 60 सीटें तक हार सकती है। हालांकि भाजपा का अपना दावा है कि वह इस बार राज्य की 74 सीटें जीतेगी। इसके बावजूद अगर उत्तर प्रदेश में भाजपा को हार का सामना करना पड़ता है, तो केंद्र में उसके समक्ष सरकार बनाने का संकट खड़ा हो सकता है। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी बताया जा रहा है कि पूरे हिंदी भाषी क्षेत्र में भाजपा को नुकसान पहुंचने वाला है। दक्षिण उसके लिए हमेशा की तरह 2014 में भी फायदेमंद नहीं रहा है। पश्चिम बंगाल में हालांकि भाजपा पूरा जोर लगाए हुए है, लेकिन कोई यह मानने को तैयार नहीं है वहां से वह उत्तर प्रदेश की भरपाई कर पाएगी। यही हाल ओडिशा और उत्तर पूर्व का भी कहा जा सकता है। हालांकि भाजपा का अपना दावा है कि वह इस बार चार सौ सीटें जीतेगी। लेकिन शायद असलियत का अंदाजा उसे भी है। इस सब को ध्यान में रखते हुए ही संभवतः भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी चुनाव बाद की रणनीति पर काम करने में लगे हुए हैं। इसी कोशिश के तहत कभी ममता बनर्जी और कभी मायावती को अपने पक्ष में करने की कोशिश में लगे लगते हैं।
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कांग्रेस पर लगातार हमलावर रही हैं मायावती
ध्यान देने की बात है कि फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार के साथ साक्षात्कार में प्रधानमंत्री मोदी ने ममता बनर्जी की ओर से कुर्ता भेजने का बहुत प्रचार किया गया था। अब उन्होंने कहा कि मायावती सपा का खेल नहीं समझ रही हैं। शायद प्रधानमंत्री मोदी चुनाव के बाद अगर ऐसी स्थिति बनती है कि अन्य पार्टियों की मदद लेनी पड़े तो उसमें मायावती और ममता उनकी मददगार बन सकती हैं। इसके पीछे एक बड़ा कारण यह भी माना जा रहा है कि बसपा और टीएमसी दोनों ही कभी न कभी भाजपा के साथ सत्ता में हिस्सेदार रही हैं। ऐसे में इस संभावना को खारिज नहीं किया जा सकता कि बदली परिस्थितियों में एक बार फिर वह भाजपा के साथ चली जाएं। हालांकि जिस तरह के वर्तमान राजनितिक हालात हैं उसमें यह दूर की कौड़ी ही ज्यादा लगती है क्योंकि यह दोनों ही नेता राजनीतिक रूप से ज्यादा परिपक्व माने जाते हैं। इन्हें पता है कि फिलहाल भाजपा के साथ जाने का क्या मतलब होगा और फिर उनके मतदाता इसे किस रूप में लेंगे। इसमें कांग्रेस विरोध एक बड़ा कारक हो सकता है, लेकिन फिलहाल वह पहले जैसा नहीं रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह है कि वह अभी सत्ता में नहीं थी और चुनाव बाद के बारे में यही कहा जा रहा है कि हो सकता है कि अगर एनडीए की बजाय यूपीए को सरकार बनाने का मौका मिले भी तो वहां भी कर्नाटक जैसा कोई फार्मूला लागू हो और राहुल गांधी के अलावा किसी क्षेत्रीय पार्टी का नेता प्र्धानमंत्री बने। मायावती और ममता बनर्जी का नाम भी संभावितों में लिया जा रहा है। ऐसे में उस तरह का कांग्रेस विरोध मायावती भी क्यों अपनाए रखेंगी।
'सपा-बसपा-रालोद का गठबंधन सिर्फ चुनाव तक नहीं बल्कि आगे भी बना रहेगा'
इसके बावजूद अगर मायावती कांग्रेस का विरोध करती रहती हैं तो ऐसा होना स्वाभाविक भी है क्योंकि विपक्ष की अनेक पार्टियों की पूरी राजनीति ही कांग्रेस विरोध पर ही टिकी रही है। इसलिए भी कांग्रेस ने लंबे समय तक देश में शासन किया था। बीते दो-ढाई दशकों में इसमें थोड़ा बदलाव आया है। इसकी शुरुआत अब से बीस साल पहले भाजपा के नेतृत्व में बनी पहली एनडीए की सरकार के साथ हुई, लेकिन वह बदलाव भी उतना मजबूत नहीं था जितना बीते पांच वर्षों के दौरान हुआ है। इन पांच सालों में भी केंद्र में एनडीए की ही सरकार रही है। लेकिन इसमें भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला हुआ था। इसके बावजूद सरकार एनडीए की रही और प्रधानमंत्री भाजपा के पहले से घोषित प्रत्याशी नरेंद्र मोदी रहे। इन पांच सालों में पूरा राजनीतिक पहिया एक तरह से पूरा घूम गया। इसमें कांग्रेस खुद विपक्ष में आ गई। तब एक राजनीति में कांग्रेस विरोध उस तरह से प्रभावी नहीं रहा जैसे पहले हुआ करती थी। इस तरह केंद्र को लेकर एक तरह से एनडीए घटकों और कुछ क्षेत्रीय दलों को छोड़कर संपूर्ण विपक्ष की राजनीति भाजपा विरोध पर आकर टिक गई। हालांकि कई राज्यों में अभी भी कांग्रेस विरोध बना हुआ है लेकिन वह वहीं तक सीमित है जहां उसकी सरकारें हैं। उत्तर प्रदेश में लंबे अरसे से कांग्रेस सत्ता से न केवल बाहर है बल्कि अब उसे सत्ता का प्रबल दावेदार तक नहीं समझा जाता है।
संकेतों में ही सही मायावती ने बता दिया सफल नहीं होगी फूट डालो की राजनीति
ऐसे में इस राज्य में कांग्रेस विरोध का बहुत मतलब नहीं रह जाता। इसके बावजूद अगर देख जाए तो उत्तर प्रदेश की तीनों बड़ी पार्टियां भाजपा, सपा और बसपा के निशाने पर कांग्रेस ही बनी रहती है। इसके पीछे सबसे बड़ा कारण यह हो सकता है कि इन तीनों ही दलों को कहीं न कहीं यह भय सताता रहता है कि ऐसा न हो कि कभी कांग्रेस फिर से एक मजबूत ताकत के रूप में उत्तर प्रदेश में खड़ी हो जाए। इसीलिए तीनों ही दल कांग्रेस को निशाने पर लिए रहते हैं। अभी के हालात में भी कांग्रेस विरोध ही वह कारण माना जाता रहा है कि जिसकी वजह से उसके साथ विपक्षी गठबंधन नहीं हो सका और भाजपा, उसके अध्यक्ष अमित शाह तथा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी लगातार कांग्रेस पर हमलावर रहते हैं। लोकसभा चुनावों के दौरान भी सपा-बसपा से कहीं ज्यादा इनके निशाने पर कांग्रेस ही रही है। मायावती भी भले ही कांग्रेस पर आक्रामक रहती हों, लेकिन अमेठी और रायबरेली के बारे में अपना समर्थन घोषित कर एक तरह से उन्होंने साफ कर दिया है कि फूट डालने की कोशिश परवान नहीं चढ़ पाएगी और बसपा का भाजपा विरोध कायम है जो चुनाव बाद भी जारी रहेगा।
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