मध्य प्रदेश: जीत के साथ ही वर्चस्व की लड़ाई है इन 3 सीटों पर
नई दिल्ली। आगामी 6 मई को मध्यप्रदेश की जिन 7 सीटों पर चुनाव होने हैं, उनमें से 3 सीटें ऐसी है, जहां हार-जीत के अलावा वर्चस्व के लिए भी उम्मीदवार संघर्ष करते हैं। ये सीटें है रीवा, टीकमगढ़ और बैतूल। 6 मई को होने वाले चुनाव में भाजपा का संघर्ष सभी 7 सीटों पर अपनी पुर्नवापसी के लिए तो है ही। जीत के अंतर को बढ़ाने के लिए भी है, क्योंकि अब प्रदेश में कांग्रेस की सरकार है। रीवा सीट पर 2004 में भाजपा का कब्जा था, लेकिन 2009 में यहां से बसपा जीती थी। 2014 में फिर भाजपा की जीत हुई थी, क्योंकि भाजपा उम्मीदवार का मुकाबला कांग्रेस के सुंदरलाल तिवारी और बसपा के देवराज पटेल से था और इस त्रिकोणीय मुकाबले में भाजपा उम्मीदवार विजयी हुए थे, जबकि उनके वोटों की संख्या कांग्रेस और बसपा के उम्मीदवारों को मिले वोटों से कम थी। कांग्रेस ने इस बार 2014 में अपने उम्मीदवार सुंदरलाल तिवारी के बेटे पर दांव लगाया है। कांग्रेस को लगता है कि अब इस इलाके में बसपा का प्रभाव कम हो गया है और वर्तमान सांसद जनार्दन मिश्रा को इस चुनाव में सुंदरलाल तिवारी के बेटे सिद्धार्थ तिवारी परास्त कर देंगे।
भाजपा को बचाना होगा बैतूल का 'गढ़'
बैतूल सीट भाजपा का गढ़ मानी जाती है। यहां से पिछले 3 चुनाव में भाजपा जीतती रही और हर बार जीत का अंतर भी बढ़ता गया। 2014 के चुनाव में भाजपा के उम्मीदवार को जितने वोट मिले थे, वे कांग्रेस के उम्मीदवार को मिले वोटों से दो गुने से भी अधिक थे। वर्तमान सांसद ज्योति धुर्वे पर आरोप लगा कि वे फर्जी जाति प्रमाण पत्र के आधार पर चुनाव में खड़ी हुई थीं। इससे भाजपा को झटका लगा। कांग्रेस इस आशा में है कि उसे यहां से येन-केन-प्रकारेण जीत मिल ही जाएगी।
परिसीमन के बाद जब 2009 के चुनाव हुए, तब टीकमगढ़ को खजुराहो से अलग कर दिया गया था। परिसीमन के पहले खजुराहो की सीट पर भाजपा काबिज थी। टीकमगढ़ सीट बनने के बाद भी 2009 और 2014 में भाजपा ही यहां से जीती थी। भाजपा ने यहां से वीरेन्द्र खटीक को उम्मीदवार बनाया है। जिनके विरोध में स्थानीय नेता कमर कसकर खड़े है और विरोधी नेताओं के समर्थन दे रहे है। कांग्रेस के सामने चुनौती यह है कि पिछले चुनाव में उसे यहां भाजपा उम्मीदवार से 27 प्रतिशत कम वोट मिले थे। ऐसे में जीत पाना आसान नहीं।
मध्य प्रदेश: इन 7 सीटों पर कब्जा बनाए रखना भाजपा के लिए आसान नहीं
अमित शाह ने चुनाव रणनीति बदली
भाजपाध्यक्ष अमित शाह ने मध्यप्रदेश में कांग्रेस की सरकार बनने के बाद चुनाव रणनीति बदली है। कांग्रेस ने कई धुरंधर नेताओं के मैदान में उतार दिया, जिससे कार्यकर्ताओं में उत्साह आ गया। भाजपा बदले हुए माहौल को समझ चुकी है। इसलिए उसने बड़े नेताओं को लोकसभा क्षेत्रवार चुनाव की जिम्मेदारी दे दी है। हर लोकसभा क्षेत्र में भाजपा के चुनाव प्रभारी और संयोजक नियुक्त किए गए हैं। उनका काम है कि वे पूरी शक्ति लगाकर अपने-अपने क्षेत्र में पार्टी के लिए कार्य करे और अध्यक्ष तथा राष्ट्रीय संगठन महामंत्री रामलाल को सीधी रिपोर्ट करें। भाजपा को इस बार सीधी, शहडोल और सतना सीटों पर कड़े मुकाबले के संदेश मिल रहे हैं। जिन सीटों पर भाजपा के उम्मीदवार टिकट की होड़ में थे, वे टिकट न मिलने पर प्रत्याशी का खुलकर विरोध कर रहे हैं। ऐसे में भाजपा के लिए अपनी सीटें बचा पाना चुनौतीपूर्ण हो गया है। हालांकि यह माना जा रहा है कि मध्यप्रदेश की 29 में से दो तिहाई सीटें भाजपा के उम्मीदवार जीत जाएंगे। 2014 में कांग्रेस के पास केवल दो सीटें थी और कांग्रेस आश्वस्त है कि उसकी सीटें सम्मानजनक संख्या में बढ़ेगी।
भाजपा ने 6 मई को होने वाले चुनाव में पूर्व मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान पूर्व कैबिनेट मंत्री राजेन्द्र शुक्ल और केन्द्रीय मंत्री नरेन्द्र सिंह तोमर तथा प्रकाश जावड़ेकर को संगठन को मजबूत करने में लगाया है। विधानसभा चुनाव में रीवा और शहडोल संभाग के 7 जिलों में भाजपा को 28 में से 16 सीटों पर ही संतोष करना पड़ा, जबकि लोकसभा चुनाव में ये सभी सीटें भाजपा के पाले में थी। शिवराज सिंह चौहान यह बात जानते हैं कि इस इलाके में पूर्व स्पीकर श्रीनिवास तिवारी और पूर्व मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का अच्छा दबदबा रहा है। ये दोनों कांग्रेस के दिग्गज नेता थे, इसलिए भाजपा इन क्षेत्रों पर विशेष ध्यान दे रही है। पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह यह बात कहा करते थे कि रीवा के मुख्यमंत्री तो श्रीनिवास तिवारी ही हैं। अब उन्हीं श्रीनिवास तिवारी के पोते लोकसभा में मैदान में हैं।
शहडोल से भाजपा ने हिमाद्री सिंह को दिया टिकट
शहडोल संसदीय क्षेत्र से भाजपा ने हिमाद्री सिंह को टिकट दिया है, जो कांग्रेस से भाजपा में हाल ही में शामिल हुई हैं। हिमाद्री सिंह के पति नरेन्द्र सिंह ने 2009 में शहडोल संसदीय क्षेत्र से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा था। हिमाद्री की मां राजेश नंदिनी दो बार कांग्रेस की सांसद रह चुकी हैं, उनके पिता दलबीर सिंह भी दो बार कांग्रेस के सांसद रह चुके हैं। शादी के बाद हिमाद्री ने कांग्रेस छोड़कर अपने पति की पार्टी भाजपा में प्रवेश किया। भाजपा ने हिमाद्री सिंह पर ही दांव आजमाया है। इस आशा में कि कांग्रेस पार्टी में उनके जितनी भी शुभचिंतक है, वे उनकी मदद करेंगे, लेकिन इससे भाजपा के कई कार्यकर्ता नाराज हो गए। भाजपा किसी भी कीमत पर यह संसदीय क्षेत्र छोड़ना नहीं चाहती, इसलिए उसने हिमाद्री सिंह पर दांव आजमाया है।
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