पिछले सात लोकसभा चुनाव ने नालंदा में चल रहा है नीतीश के नाम का सिक्का
पटना। बिहार का नालंदा लोकसभा क्षेत्र भारत की ऐतिहासिक भूमि है। विश्व का पहला पूर्णत: आवासीय नालंदा विश्वविद्यालय यहीं था। 7वीं शताब्दी में इस विश्वविद्यालय का गौरव पूरी दुनिया में था। अब नालंदा के नाम से बिहार में एक जिला है जिसका मुख्यालय बिहारशरीफ है। नालंदा बिहार का एक लोकसभा क्षेत्र भी है। आजादी के बाद इस लोकसभा क्षेत्र में कांग्रेस का प्रभाव था। पहले पांच चुनाव कांग्रेस ने लगातार जीते। फिर इस सीट पर सीपीआइ का तीन बार कब्जा रहा। फिलवक्त यह बिहार के मुख्यमंत्री का सबसे सुरक्षित किला है। अब इस सीट पर उसी उम्मीदवार की जीत होती है जिसको नीतीश कुमार समर्थन देते हैं। जदयू के मौजूदा सांसद कौशलेन्द्र कुमार फिर मैदान में हैं। हम के उम्मीदवार अशोक कुमार आजाद से उनका सीधा मुकबला है। कौशलेन्द्र कुमार, नीतीश पर निर्भर हैं तो अशोक आजाद को महागठबंधन के वोट बैंक का भरोसा है।
नालंदा की राजनीतिक पृष्ठभूमि
कांग्रेस के नेत़त्व में चूंकि देश को आजादी मिली थी इस लिए देश के अधिकांश चुनाव क्षेत्रों में उसका सबसे अधिक प्रभाव था। नालंदा में भी यही बात थी। आजादी के कुछ पहले देश में अमन और शांत की बहाली के लिए महात्मा गांधी नालंदा (उस समय पटना जिला) के नगरनौसा आये थे। वे 1947 के मार्च और अप्रैल महीने में करीब 35 दिनों तक पटना में रुके थे। यहां कांग्रेस का प्रभाव होने की वजह से लोकसभा के लगातार पांच चुनावों में उसकी जीत हुई। कांग्रस का प्रभाव घाटा तो राजनीति अमीरी और गरीबी की लड़ाई में बदल गयी। गरीब तबके ने सीपीआइ पर भरोसा किया। सीपीआइ के विजय कुमार यादव यहां से तीन बार चुनाव जीते। 1994 के बाद नालंदा की राजनीतिे पूरी तरह बदल गयी।
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नालंदा कैसे बना नीतीश का किला?
लालू प्रसाद के उदय के बाद बिहार में बहुत तेजी से जातीय विभाजन हुआ। जातिवाद चरम पर पहुंच गया। हर जाति अपनी पृथक पहचान के लिए संगठित होने लगी। पिछड़े वर्ग में अतिपिछड़ी जातियां यादव वर्चस्व के खिलाफ खड़ा होने लगीं। सत्ता पूरी तरह जातीय समीकरण पर टिक गया। 1994 में नीतीश कुमार ने लालू यादव का खुल्लमखुल्ला विरोध शुरू कर दिया। उन्होंने लालू यादव पर अत्यंत पिछड़ों की अनदेखी का आरोप लगाया। नीतीश कुमार ने समता पार्टी बनाने से पहले पटना के गांधी मैदान में कुर्मी एकता रैली का आयोजन किया। इस रैली में जुड़ी भीड़ ने तय कर दिया कि नीतीश कुमार अब कुर्मी समुदाय के सबसे बड़े नेता हैं। फिर 1994 में नीतीश ने समता पार्टी बना ली। बिहार का कुर्मी समुदाय उनके पीछे मजबूती से खड़ा हो गया। नालंदा में जैसे ही जातीय गोलबंदी हुई, राजनीतिक विचारवाद ध्वस्त हो गया। कांग्रेसवाद, साम्यवाद हमेशा के लिए दफन हो गये।
नीतीश का गढ़ नालंदा
समता पार्टी बनाने के बाद नीतीश की पहली परीक्षा 1995 के बिहार विधानसभा में हुई। उन्होंने इस चुनाव में भाकपा माले से बेमेल राजनीतिक गठबंधन किया था। नीतीश को इस चुनाव में केवल सात सीटें ही मिलीं। लेकिन इन सात सीटों में से पांच सीटें नालंदा जिले की थीं। नीतीश को भले आशा के मुताबिक जीत नहीं मिली लेकिन एक बात साफ हो गयी कि नालंदा अब नीतीश का गढ़ है। नीतीश कुमार के लिए ये बहुत बड़ी बात थी। एक वक्त वह भी था जब इसी नालंदा के हरनौत ने नीतीश कुमार के राजीनितक जीवन का लगभग खात्मा कर दिया था। हताश नीतीश राजनीति छोड़ने वाले थे। वे 1977 और 1980 में हरनौत से विधानसभा का चुनाव हार गये थे। लेकिन किस्मत को तो कुछ और मंजूर था। 1985 में नीतीश जीते तो फिर राजनीतिक बुलंदियों को छूते चले गये।
1996 से नालंदा में नीतीश का सिक्का
1996 में नीतीश ने भाजपा से चुनावी समझौता किया। नीतीश को अटल बिहारी वाजपेयी के नजदीक लाने वाले नेता थे जॉर्ज फर्नांडीस। जॉर्ज का पसंदीदा चुनाव क्षेत्र पहले मुजफ्फरपुर था। लेकिन जार्ज समता पार्टी के दिल और दिमाग थे। नीतीश ने उन्हें अपने मजबूत किले से चुनाव लड़ने के लिए आमंत्रित किया। जॉर्ज फर्नांडीस नालंदा से तीन बार सांसद चुने गये। 2004 में जब नीतीश को खुद शर्तीया जीत की दरकार हुई तो वे बाढ़ के अलावा नालंदा से खड़ा हुए। आखिरकार नालंदा ने ही उनकी लाज बचायी। वे 2004 में बाढ़ से लोकसभा का चुनाव हार गये थे। 2005 में मुख्यमंत्री बनने के बाद जब उन्होंने नालांदा से इस्तीफा दिया तो उप चुनाव में उन्होंने मास्ट स्ट्रोक खेला। उपचुनाव में उन्होंने कांग्रेस के पुराने नेता रामस्वरूप प्रसाद को जदयू उम्मीदवार बना कर मैदान में उतारा और वे जीत गये। मुख्यमंत्री बनने के बाद नीतीश कुमार ने 2009 में पार्टी के युवा कार्यकर्ता कौशलेन्द्र कुमार को मौका दिया। नीतीश के नाम पर वे भी जीत गये। 2014 में मोदी लहर के बाद भी कौशलेन्द्र ने किसी तरह जीत हासिल कर ली थी। 2019 में उनके खिलाफ कुछ नाराजगी तो है लेकिन जैसे ही लोगों के सामने नीतीश का चेहरा सामने आता है वे नाराजगी भूल जाते हैं।
नालंदा में 4 लाख से अधिक कुर्मी वोटर
जातीय समीकरण की भाषा में नालंदा को कुर्मीस्तान कहा जाता है। एक अनुमान के मुताबिक यहां लगभग 4 लाख 16 हजार कुर्मी मतदाता हैं। अगर किसी के एक जाति के वोट का सवाल को कुर्मी यहां नम्बर एक की पायदान पर हैं। इसी लिए नालंदा नीतीश कुमार का अभेद्य दुर्ग है। यहां बनिया वोटरों की तादात करीब एक लाख 60 हजार है। करीब-करीब एक लाख 20 हजार पासवान वोटर भी हैं। नालंदा में यादव वोटर दूसरे स्थान पर हैं। उनकी संख्या करीब तीन लाख है। लगभग एक लाख 70 हजार मुस्लिम वोटर हैं। जदयू के कौशलेन्द्र कुमार कुर्मी समुदाय से आते हैं। हम के उम्मीदवार अशोक आजाद चंद्रवंशी यानी कहार समुदाय से आते हैं। नालंदा में कहार समुदाय के वोटरों की संख्या करीब 75 हजार बतायी जा रही है।
2019 में क्या है तस्वीर ?
2014 के चुनाव में लोजपा के सत्यानंद शर्मा ने जदयू के कौशलेन्द्र कुमार को कांटे की टक्कर दी थी। कौशलेन्द्र हारते हारते बचे थे। नौ हजार के मामूली अंतर से उनकी जीत हुई थी। लेकिन इस बार भाजपा और लोजपा के साथ आ जाने से उनकी स्थिति मजबूत दिखायी पड़ रही है। यहां के वोटर नीतीश कुमार का चेहरा देख कर वोट देते हैं। जदयू का प्रत्याशी चाहे जो भी हो, उसे वोट मिल जाता है। नालंदा में अभी तक राजद ये उसके सहयोगी दलों की कुछ खास नहीं चली है। लालू यादव ने कई बार नीतीश के किले को ढाहने की कोशिश की लेकिन कामयाबी नहीं मिली। हम के उम्मीदवार अशोक आजाद को राजद के वोट बैंक पर भरोसा है। कुशवाहा समुदाय यहां खामोश है। कुशवाहा वोटर अभी तक नीतीश के साथ थे। लेकिन उपेन्द्र कुशवाहा के अलग होने के बाद उन्होंने अभी तक अपना स्टैंड क्लीयर नहीं किया है। नीतीश कुमार ने नालंदा को एक बाऱ विश्व के मानचित्र पर प्रतिष्ठा दिलायी है।