लोकसभा चुनाव 2019: किसे वोट देंगी जीबी रोड के अंधेरे कोठों में रहने वाली सेक्स वर्कर- ग्राउंड रिपोर्ट
ग्राहक न मिलने पर उनका चेहरा उतर गया और वो पीछे वहीं जाकर खड़ी हो गईं जहां रात के अंधेरे में वो ख़ुद को कुछ छुपाए, कुछ दिखाए खड़ी थीं.
रात के दो बजे हैं. दिल्ली के श्री अरविंदो मार्ग पर गाड़ी रुकते ही दो लड़कियां खिड़की की ओर दौड़ीं. उन्हें किसी ग्राहक की तलाश थी.
ग्राहक न मिलने पर उनका चेहरा उतर गया और वो पीछे वहीं जाकर खड़ी हो गईं जहां रात के अंधेरे में वो ख़ुद को कुछ छुपाए, कुछ दिखाए खड़ी थीं.
एक पत्रकार के तौर पर मैंने अपना परिचय दिया और उनसे बात करनी चाही तो वो एक दूसरे का मुंह ताकने लगीं. बस इतना ही कहा, "बहुत मजबूरी में ये काम कर रहे हैं."
हाथ में फ़ोन देखते ही वो गिड़गिड़ाते हुए कहने लगीं, "तस्वीर मत लेना, घर पता चल गया तो सब तबाह हो जाएगा."
गाड़ियों में बैठे कुछ लोग इन लड़कियों पर नज़र रखे हुए थे. इनकी निगरानी में ही दिल्ली की इस चर्चित सड़क पर वेश्यावृत्ति का ये काम हो रहा था.
चुनाव से जुड़े किसी सवाल का जबाव इन लड़कियों ने नहीं दिया. बस इतना ही कहा हम ऐसी सरकार चाहते हैं जो ग़रीबों के बारे में सोचे.
पुलिस का डर
अचानक दूर से एक लाल बत्ती लगी बड़ी गाड़ी आती दिखाई दी.
उस मद्धम लाल रोशनी को देखते ही वहां मौजूद युवतियों में भगदड़ सी मच गई और सभी लड़कियां ऑटो और गाड़ियों में बैठकर फ़रार हो गईं.
वो गाड़ी एक एंबुलेंस थी. कुछ देर बाद लड़कियां फिर लौट आईं और ग्राहक तलाशने लगीं.
इन्हें लोकतंत्र या चुनाव से कोई ख़ास मतलब नहीं था. न ही अपने इलाक़े के प्रत्याशियों के बारे में कोई जानकारी थी.
18-19 साल की बेचैन सी दिख रही एक युवती को आज कोई ग्राहक नहीं मिला था.
रात के साढ़े तीन बजते-बजते वो उसी ऑटो से वापस लौट गई जिससे वो आई थी.
नई दिल्ली रेलवे स्टेशन से अजमेरी गेट बहुत दूर नहीं हैं और यहीं से निकल कर लाहौरी गेट तक पहुंचने वाली जीबी रोड को 'बदनाम गली' कहा जाता है.
जीबी रोड पर नीचे मशीनरी के सामान की दुकाने हैं और ऊपर अंधेरे में डूबे कोठे हैं.
अंधेरी सीढ़ियां ऊपर जाकर एक हॉल में खुलती हैं जिसके चारों कोनों पर छोटे-छोटे डिब्बेनुमा कमरे बने हैं.
हॉल में कई महिलाएं हैं. अधेड़ भी और जवान भी. इनमें से कुछ आसपास किराए के कमरों पर रहती हैं और 'धंधा करने' यहां आई हैं.
इनसे बात करके ये अंदाज़ा होता है कि उनकी दुनिया इन कोठों तक ही सिमटी है और लोहे की जाली की बालकनी से बाहर का चुनावी शोर या ताज़ा हवा उन तक नहीं पहुंच पाती है.
1980 के दशक में कमसिन उम्र में महाराष्ट्र से जीबी रोड पहुंची संगीता को पता है कि देश में चुनाव हो रहे हैं लेकिन उनकी न चुनावों में दिलचस्पी है न किसी नेता से कोई उम्मीद.
नोटबंदी की धंधे पर मार
संगीता के मुताबिक़ नोटबंदी का उनके धंधे पर ऐसा असर हुआ है कि कई बार उनके पास खाने तक के पैसे नहीं हो पाते हैं.
वो कहती हैं, "मोदी जी ने खाना ख़राब कर दिया है. सरकार ऐसी होनी चाहिए जो ग़रीबों का साथ दे, सहारा दे, रहने को जगह दे. लेकिन ग़रीब के लिए कुछ हो ही नहीं रहा है, जिनके पास पहले से है उन्हें ही दिया जा रहा है. हम सड़क की औरतों के लिए कोई कुछ नहीं कर रहा है."
संगीता के पास पहचान पत्र भी है और आधार कार्ड भी है. वो हर बार वोट डालती हैं लेकिन उन्हें नहीं लगता कि उनके वोट से बहुत कुछ बदलेगा.
वो कहती हैं, "हमें सब कोठेवाली बोलते हैं लेकिन बोलने वाले ये नहीं सोचते कि हम भी पेट के लिए ये कर रहे हैं. हमारी कोई क़ीमत किसी की नज़र में नहीं है."
संगीता ने ज़ीरो बैलेंस पर खाता खोला था लेकिन उनकी शिकायत है कि उनके खाते में कोई पैसा नहीं आया है.
वो कहती हैं, "पहले कहा था कि पंद्रह लाख रुपए डालेंगे. ज़ीरो बैलेंस पर खाता भी खुलवा दिया, लेकिन एक पैसा किसी के खाते में नहीं डाला. ये तो लोगों को पागल बनाना हुआ. अब छह हज़ार रुपए महीना देने का लालच दे रहे हैं लेकिन हमें नहीं लगता कि कोई पैसा या मदद हमें मिलेगी."
वो कहती हैं, "हम ग़लत जगह पर हैं, लेकिन यहां शौक़ से नहीं है. मजबूरी में हैं. घर-गृहस्थी की औरतों को सबकुछ दिया जा रहा है लेकिन हम सड़क की औरतों के बारे में कोई कुछ नहीं पूछ रहा है. हमें भी पैर फैलाने के लिए जगह चाहिए. लेकिन हमारे हिस्से वो भी नहीं है."
वोट से कुछ बदलने की उम्मीद नहीं
संगीता इस बार भी हर बार की तरह वोट डालेंगी लेकिन उन्हें नहीं लगता कि वोट डालने से उनकी अपनी ज़िंदगी में कुछ बदलेगा.
वो कहती हैं, "किसी को हमारी परवाह नहीं है, कोई ग़ौर नहीं करता हम पर क्योंकि हम ग़ैर-क़ानूनी हैं."
इसी कोठे पर काम करने वाली सायरा भी संगीता की ही तरह हर बार वोट डालती है.
वो कहती हैं, "सरकार से हमारी यही उम्मीद है कि हमारा काम धंधा चलता रहा है. हमारे भी बच्चे हैं जिन्हें छोड़कर हम यहां पड़े हैं. जब से नोटबंदी हुई हमारा धंधा ही चौपट हो गया. खाने तक को हम मोहताज हो गए."
वो कहती हैं, "मेरे परिवार में किसी को नहीं पता कि मैं ये काम करती हूं. चार बच्चे हैं, उनका पेट भरना है, फ़ीस भरनी है. अगर कहीं बर्तन मांजने का काम भी करूं तो महीने का पांच-छह हज़ार ही मिलेगा. क्या इतने पैसों में चार बच्चों का पेट भर सकता है?"
सायरा की तीन बेटियां और एक बेटा है. बेटियां गांव में रहती हैं जबकि उनका बेटा साथ ही रहता है. सेक्स वर्कर के तौर पर काम करते हुए वो समय से पहले बूढ़ी होने लगी हैं.
गांव में उनके पास आधार कार्ड समेत सभी दस्तावेज़ हैं और कुछ सरकारी योजनाओं का फ़ायदा भी उनको मिलता है लेकिन घर में कोई कमानेवाला पुरुष न होने की वजह से वो दिल्ली आईं और जीबी रोड पहुंच गईं.
वो कहती हैं, "हमारी ज़िंदगी तो ऐसे ही बीत गई लेकिन हम चाहते हैं कि हमारे बच्चों का भविष्य कुछ बेहतर हो."
ग़रीबी की मार
26 साल की नीलम कम उम्र में ही यहां पहुंच गईं थी. यहां पहुंचने की वजह वो भी परिवार की ग़रीबी को ही बताती हैं.
हर महीने दस से पंद्रह हज़ार रुपए तक कमाने वाली नीलम इस कोठे में ही बनी एक बेहद छोटी कोठरी में रहती हैं.
सरकार और बाहर चल रही राजनीति के सवाल पर वो कहती हैं, "हमें ज़्यादा कुछ तो पता नहीं लेकिन हम ऐसा माहौल चाहते हैं जिसमें हमारे बच्चे भी बाक़ी बच्चों की तरह पढ़ सकें."
वो कहती हैं, "हमारे पास सर छुपाने की जगह नहीं है, अगर सरकार हमारे रहने का कहीं इंतज़ाम कर दे तो हम इस नरक से निकल जाएं."
लेकिन यहां से निकलना उनके लिए कल्पना मात्र ही है.
बाहर की राजनीति के सवाल पर वो कहती हैं, "आज तक किसी ने आकर हमारा हालचाल नहीं पूछा न ही हमें कभी लगा कि किसी को हमारी परवाह है. हम जो करते हैं उसे सब ग़लत धंधा कहते हैं. जिन्हें ग़लत मान लिया गया है कोई उनका साथ कैसे देगा?"
सरकार से कोई मतलब नहीं
इसी कोठे के ऊपरी तल पर रहने वाली रंजना को भी चुनाव से कोई मतलब नहीं है.
वो कहती हैं, "जब सरकार ने कभी हमारे लिए कुछ नहीं किया, तो हम सरकार के लिए कुछ क्यों करें?"
वो कहती हैं, "मुझे चुनावों के बारे में कुछ नहीं पता है. न मैं न्यूज़ देखती हूं न अख़बार पढ़ती हूं. न मेरा वोटर आई-कार्ड है. अगर कोई वोटर आई-कार्ड बनवा देगा तो वोट भी डाल लेंगे. लेकिन हमारा आई-कार्ड बनवाएगा कौन?"
ये पूछने पर कि अगर वोट डालने का मौक़ा मिला तो वो कैसी सरकार बनाना चाहेंगी. वहां मौजूद सभी महिलाओं ने एक स्वर में कहा, "जो ग़रीबों के बारे में भी सोचे, हम जैसे कीचड़ में रहने वालों के लिए भी कुछ करे."
रंजना बेहद कम उम्र में यहां पहुंची थी और अब कम उम्र में ही उन पर भी बुढ़ापा सा आने लगा है.
यहां पहुंचने के सवाल पर वो ख़ामोश हो गईं और उनका ठहाका आंसुओं में बदल गया.
तहख़ानों में क़ैद ज़िंदगी
इन महिलाओं के कमरे तहख़ानों जैसे हैं और वो उन्हें कहती भी तहख़ाना ही हैं.
एक सेक्स वर्कर जो अब बूढ़ी हो गई हैं, कहती हैं, "हमारे तहख़ाने में कोई हमारा हालचाल पूछने आया ये ही हमारे लिए बड़ी बात है. लेकिन हम जानते हैं कि कोई भी हमारे लिए कह कुछ भी दे लेकिन कभी हमारा भला नहीं होगा. हमें इन्हीं तहखानों में ख़त्म हो जाना है."
एक कोठे पर एल्मूनियम की एक सीढ़ी ऊपर बने कमरे तक पहुंचती है. यहां एक चार-पांच साल का लड़का अकेला खेल रहा था.
दीवार पर काग़ज़ के फूल लगे थे. ऊंची एड़ी की जूतियां फट्टे पर सज़ी थीं. साफ़ चादर गद्दे पर बिछी थी. ये यहां रहने वाली एक सेक्स वर्कर का पूरा आशियाना था.
ये बच्चा उसी का था जिसे अपने पिता के बारे में कोई जानकारी नहीं है. वो बड़ा होकर एक पुलिस अधिकारी बनना चाहता है.
लेकिन इससे पहले उसे स्कूल जाना है, ये उसका भी सपना है और उसकी मां का भी.
मां, जिसने उसे ऊपर के कमरे में सबकी नज़रों से छुपा रखा है.
इसी कमरे से एक रोशनदान नीचे सड़क की ओर खुलता है जिससे बाहर की दुनिया दिखती है.
बाहर की दुनिया जहां चुनाव का शोर है और गहमागहमी है. इस चुनावी शोर में इन कोठे पर रहने वाली महिलाओं का कहीं कोई ज़िक्र नहीं है.
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सेक्स वर्कर और अधिकार
जीबी रोड पर कार्यरत सेक्स वर्करों के बच्चों की शिक्षा के लिए काम करने वाली सामाजिक कार्यकर्ता गीतांजलि बब्बर कहती हैं, "सेक्स वर्करों और अधिकारों का हमारे देश में दूर-दूर तक कोई संबंध नहीं है. जहां आम नागरिकों में भी अधिकारों को लेकर बहुत जागरूकता न हो वहां सेक्स वर्करों में कैसे जागरूकता होगी."
गीतांजलि कहती हैं, "यहां काम करने वाली औरतें कठपुतलियों की तरह हैं. हमारी सरकार को इन औरतों की कोई परवाह नहीं है. जीबी रोड से भारत की सरकार बहुत दूर नहीं है. लेकिन किसी के पास वक़्त नहीं है जो इन औरतों का हाल पूछे."
गीतांजलि कहती है, "हमारे सरकारी अधिकारी, हमारे नेता इस सड़क से गुज़रते हैं. उन्हें सब पता है लेकिन वो इस बारे में कुछ नहीं करते. फिर चाहे आम आदमी पार्टी की सरकार हो या कांग्रेस की सरकार हो या बीजेपी की सरकार हो, कोठों के मामले में कोई कुछ नहीं करता है."
उनका मानना है कि अगर सरकार चाहे तो इन महिलाओं को इस दलदल से निकाला जा सकता है.
वो कहती हैं, "सरकार बड़ी-बड़ी योजनाएं ला रही है. इन योजनाओं में इन महिलाओं को भी समाहित किया जा सकता है. सरकार अगर चाहे तो सबकुछ हो सकता है."
भारत में कितनी सेक्स वर्कर हैं?
भारत में सेक्स वर्क में कितनी महिलाएं शामिल हैं इसका कोई स्पष्ट आंकड़ा उपलब्ध नहीं हैं.
महिला और बाल विकास मंत्रालय की एक रिपोर्ट के मुताबिक़ भारत में तीस लाख से अधिक सेक्स वर्कर हैं.
ह्यूमन राइट्स वॉच के मुताबिक़ ये आंकड़ा और भी अधिक हो सकता है.
बावजूद इसके सेक्स वर्करों का एक प्रभावशाली मतदाता वर्ग बनना अभी बाक़ी है.
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